Books - इक्कीसवीं सदी का संविधान
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Language: HINDI
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इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम
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पुराने कुसंस्कारी
अभ्यासों को निरस्त करने के लिए नए उत्साह से,
साहसपूर्वक सत्प्रयोजनों को दैनिक क्रियाकलाप
में सम्मिलित करना पड़ता है और बार- बार उभरने वाली पशु- प्रवृत्तियों को निरस्त करने के लिए कड़ा रुख अपनाना पड़ता है।
इस प्रकार अपने आप से जूझने को ही संयम समझना चाहिए। अर्जुन की भूमिका, इस अपने से संघर्ष करने (महाभारत)
में प्रत्येक कर्मयोगी को निभानी पड़ती
है।
जीवन एक युद्धस्थली है, जिसमें मनुष्य को सतत कामुक प्रतिकूल विचारों से लेकर चिर संचित प्रवृत्तियों तक एवं ऋतुकाल की बदलती परिस्थितियों से लेकर वातावरण में अस्वाभाविक परिवर्तन से जूझना पड़ता है। जीवनी शक्ति, जो उसे मानसिक रूप से लड़ सकने योग्य साहसी एवं उसके शरीर संस्थान को रोगी होने से बचाती है, एक ही अनुदान की परिणति हे- संयम जो इसे अपनाता है, वह न रोगी होता है न दुःखी। वह जीवन संग्राम में कभी दुःखी नहीं होता तथा विशृंखलित अस्त- व्यस्त विचार उसे प्रभावित नहीं कर पाते। संयम एवं संघर्ष एक- दूसरे के पर्यायवाची हैं तथा असंयम की परिणति ही दीन- हीन दरिद्रता, रोग- शोक के रूप में होती है। जीवन देवता की उपासना तब ही भली प्रकार संभव है, जब अपने जीवन रसों को व्यर्थ बहाना छोड़कर मनुष्य उन्हें सृजनात्मक चिंतन व कर्तव्य में नियोजित करें। यदि व्यक्ति असंयम के दुष्परिणामों को समझ जाए, तो भूतल पर स्वर्ग आ जाए तथा दुःख दारिद्रय सर्वथा समाप्त हो जाए। जीवन सम्पदा के चार क्षेत्र हैं- इंद्रिय शक्ति, समय शक्ति, विचार शक्ति, धन (साधन) शक्ति। आरंभ की तीन तो ईश्वर प्रदत्त हैं। चौथी इन तीनों के संयुक्त प्रयत्न से भौतिक क्षेत्र में पुरुषार्थ द्वारा अर्जित की जाती हैं। जो व्यक्ति इन्हें दैवी विभूतियाँ मानकर इनका सुनियोजन करता है, अभाव से भरे संसार में रहते हुए भी साधन एकत्र कर लेता है। शारीरिक सामर्थ्य, वाणी का सही उपयोग एवं समय सम्पदा का सही सुनियोजन करने के लिए ये विभूतियाँ भगवान् ने बहुत सोच- समझकर मानव को विरासत में दी हैं। दस इंद्रियों में दो प्रमुख हैं, जिनमें से एक जिह्वा तथा दूसरी जननेन्द्रिय है। जिसने इनको वश में कर लिया, समझो उसने शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त कर लिया है। जिह्वा संयम से शारीरिक स्वास्थ्य तथा जननेन्द्रिय के संयम से मनोबल अक्षुण्ण रहता है। जिह्वा का शरीरगत स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। जिह्वा स्वाद को प्रधानता देकर ऐसे पदार्थों को खाती रहती है, जो अनावश्यक ही नहीं, हानिकारक भी होते हैं। स्वाद- स्वाद में भोजन की मात्रा बढ़ने से पेट खराब तथा असंख्य रोग हो जाते हैं। समय संयम में शिथिलता रहने से मनुष्य निश्चित रूप से आलसी और प्रमादी बनता है। नियमितता न रहने से जो किया जाता है, वह आधा- अधूरा रहता है। समय का सदुपयोग, सुनियोजित श्रम से ही किया जा सकता है। आलस्य का अर्थ है- शारीरिक श्रम से बचना तथा प्रमाद, मानसिक जड़ता का नाम हे। शरीर बलवान होते हुए भी व्यक्ति श्रम से जी चुराए, तो उसे प्रमाद कहा जाता है। हमारे सबसे समीपवर्ती शत्रु आलस्य और प्रमाद ही हैं। जो समय देवता की अवहेलना करते हैं, वे जीवन को निरर्थक बिता कर चलते बनते हैं। समय के असंयमी ही अल्पजीवी कहलाते हैं, भले ही उनकी आयु कुछ भी हो। समय ईश्वर प्रदत्त सम्पदा है। उसे श्रम में मनोयोगपूर्वक नियोजित करके विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियाँ अर्जित की जा सकती हैं। जो समय गँवाता है, उसे जीवन गँवाने वाला ही समझा जाता है। समय की तरह ही विचार प्रवार को भी सत्प्रयोजनों में निरत रखा जाए। उत्कृष्ट उपयोगी विचारों को मर्यादा में सीमाबद्ध रखने से वे सृजनात्मक प्रयोजनों में लगते हैं और महत्त्वपूर्ण प्रतिफल उत्पन्न करते हैं। मनोनिग्रह के अभ्यास से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त करते हैं। नित्य विचारों की अनगढ़ता अस्त- व्यस्तता से बचना चाहिए। विचारों को सुनियोजित कर लक्ष्य विशेष से जोड़कर लौकिक व आत्मिक जगत में लाभान्वित होना चाहिए। व्यक्ति जो भी कार्य करता है, वह विचारों की परिणति है। ‘‘जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही करता है।’’ इस उक्ति को सदैव स्मरण रखना चाहिए। विचारों को आवारा कुत्तों की तरह अचिंत्य चिंतन में भटकने न देने का नित्य अभ्यास करना चाहिए। विचारों को हर समय उपयोगी दिशाधारा के साथ नियोजित करके रखना चाहिए। अनगढ़, अनुपयुक्त, निरर्थक विचारों से जूझने के लिए सद्विचारों की सेना को पहले से ही तैयार रखना चाहिए। अचिंत्य चिंतन उठते ही जूझ पड़ें और उन्हें निरस्त करके भगा दें। चिड़िया घर में बड़ा होता है, उसमें पशु- पक्षियों का घूमने- फिरने की आजादी होती है, पर बाहर जाने नहीं दिया जाता, ठीक यही नीति विचार वैभव के बारे में भी बरती जाए, उन्हें जहाँ- तहाँ बिखरने न दिया जाए। /* Style Definitions */ table.MsoNormalTable {mso-style-name:"Table Normal"; 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जीवन एक युद्धस्थली है, जिसमें मनुष्य को सतत कामुक प्रतिकूल विचारों से लेकर चिर संचित प्रवृत्तियों तक एवं ऋतुकाल की बदलती परिस्थितियों से लेकर वातावरण में अस्वाभाविक परिवर्तन से जूझना पड़ता है। जीवनी शक्ति, जो उसे मानसिक रूप से लड़ सकने योग्य साहसी एवं उसके शरीर संस्थान को रोगी होने से बचाती है, एक ही अनुदान की परिणति हे- संयम जो इसे अपनाता है, वह न रोगी होता है न दुःखी। वह जीवन संग्राम में कभी दुःखी नहीं होता तथा विशृंखलित अस्त- व्यस्त विचार उसे प्रभावित नहीं कर पाते। संयम एवं संघर्ष एक- दूसरे के पर्यायवाची हैं तथा असंयम की परिणति ही दीन- हीन दरिद्रता, रोग- शोक के रूप में होती है। जीवन देवता की उपासना तब ही भली प्रकार संभव है, जब अपने जीवन रसों को व्यर्थ बहाना छोड़कर मनुष्य उन्हें सृजनात्मक चिंतन व कर्तव्य में नियोजित करें। यदि व्यक्ति असंयम के दुष्परिणामों को समझ जाए, तो भूतल पर स्वर्ग आ जाए तथा दुःख दारिद्रय सर्वथा समाप्त हो जाए। जीवन सम्पदा के चार क्षेत्र हैं- इंद्रिय शक्ति, समय शक्ति, विचार शक्ति, धन (साधन) शक्ति। आरंभ की तीन तो ईश्वर प्रदत्त हैं। चौथी इन तीनों के संयुक्त प्रयत्न से भौतिक क्षेत्र में पुरुषार्थ द्वारा अर्जित की जाती हैं। जो व्यक्ति इन्हें दैवी विभूतियाँ मानकर इनका सुनियोजन करता है, अभाव से भरे संसार में रहते हुए भी साधन एकत्र कर लेता है। शारीरिक सामर्थ्य, वाणी का सही उपयोग एवं समय सम्पदा का सही सुनियोजन करने के लिए ये विभूतियाँ भगवान् ने बहुत सोच- समझकर मानव को विरासत में दी हैं। दस इंद्रियों में दो प्रमुख हैं, जिनमें से एक जिह्वा तथा दूसरी जननेन्द्रिय है। जिसने इनको वश में कर लिया, समझो उसने शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त कर लिया है। जिह्वा संयम से शारीरिक स्वास्थ्य तथा जननेन्द्रिय के संयम से मनोबल अक्षुण्ण रहता है। जिह्वा का शरीरगत स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। जिह्वा स्वाद को प्रधानता देकर ऐसे पदार्थों को खाती रहती है, जो अनावश्यक ही नहीं, हानिकारक भी होते हैं। स्वाद- स्वाद में भोजन की मात्रा बढ़ने से पेट खराब तथा असंख्य रोग हो जाते हैं। समय संयम में शिथिलता रहने से मनुष्य निश्चित रूप से आलसी और प्रमादी बनता है। नियमितता न रहने से जो किया जाता है, वह आधा- अधूरा रहता है। समय का सदुपयोग, सुनियोजित श्रम से ही किया जा सकता है। आलस्य का अर्थ है- शारीरिक श्रम से बचना तथा प्रमाद, मानसिक जड़ता का नाम हे। शरीर बलवान होते हुए भी व्यक्ति श्रम से जी चुराए, तो उसे प्रमाद कहा जाता है। हमारे सबसे समीपवर्ती शत्रु आलस्य और प्रमाद ही हैं। जो समय देवता की अवहेलना करते हैं, वे जीवन को निरर्थक बिता कर चलते बनते हैं। समय के असंयमी ही अल्पजीवी कहलाते हैं, भले ही उनकी आयु कुछ भी हो। समय ईश्वर प्रदत्त सम्पदा है। उसे श्रम में मनोयोगपूर्वक नियोजित करके विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियाँ अर्जित की जा सकती हैं। जो समय गँवाता है, उसे जीवन गँवाने वाला ही समझा जाता है। समय की तरह ही विचार प्रवार को भी सत्प्रयोजनों में निरत रखा जाए। उत्कृष्ट उपयोगी विचारों को मर्यादा में सीमाबद्ध रखने से वे सृजनात्मक प्रयोजनों में लगते हैं और महत्त्वपूर्ण प्रतिफल उत्पन्न करते हैं। मनोनिग्रह के अभ्यास से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त करते हैं। नित्य विचारों की अनगढ़ता अस्त- व्यस्तता से बचना चाहिए। विचारों को सुनियोजित कर लक्ष्य विशेष से जोड़कर लौकिक व आत्मिक जगत में लाभान्वित होना चाहिए। व्यक्ति जो भी कार्य करता है, वह विचारों की परिणति है। ‘‘जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही करता है।’’ इस उक्ति को सदैव स्मरण रखना चाहिए। विचारों को आवारा कुत्तों की तरह अचिंत्य चिंतन में भटकने न देने का नित्य अभ्यास करना चाहिए। विचारों को हर समय उपयोगी दिशाधारा के साथ नियोजित करके रखना चाहिए। अनगढ़, अनुपयुक्त, निरर्थक विचारों से जूझने के लिए सद्विचारों की सेना को पहले से ही तैयार रखना चाहिए। अचिंत्य चिंतन उठते ही जूझ पड़ें और उन्हें निरस्त करके भगा दें। चिड़िया घर में बड़ा होता है, उसमें पशु- पक्षियों का घूमने- फिरने की आजादी होती है, पर बाहर जाने नहीं दिया जाता, ठीक यही नीति विचार वैभव के बारे में भी बरती जाए, उन्हें जहाँ- तहाँ बिखरने न दिया जाए। /* Style Definitions */ table.MsoNormalTable {mso-style-name:"Table Normal"; 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