Books - इक्कीसवीं सदी का संविधान
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
Normal
0
false
false
false
EN-US
X-NONE
X-NONE
MicrosoftInternetExplorer4
परमात्मा ने मनुष्य को
अन्य प्राणियों की अपेक्षा विशेष बुद्धि और शक्ति दी है। इस संसार में जितनी भी
महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ हैं, उनमें बुद्धि शक्ति ही सर्वोपरि है। मानव जाति की अब तक की
इतनी उन्नति के पीछे उसकी बौद्धिक विशेषता का चमत्कार ही सन्निहित है। इतनी बड़ी
शक्ति देकर मनुष्य को परमात्मा ने कुछ उत्तरदायित्वों में भी बाँधा है, ताकि दी हुई शक्ति का दुरुपयोग न हो।
उत्तरदायित्वों का नाम है- कर्तव्य धर्म।
रेलगाड़ी इंजन में
विशेष शक्ति होती है, यह
अपने मार्ग से भटक पड़े तो अनर्थ उत्पन्न कर सकता है। इसलिए जमीन पर दो पटरी बिछा
दी गई हैं और इंजन को उसी पर चलते रहने की व्यवस्था बनाई गई है। बिजली में बहुत
शक्ति रहती है। वह शक्ति इधर- उधर न बिखरे पड़े इसलिए उसका नियंत्रण रखना आवश्यक है। इस
उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह प्रबंध किया गया है कि बिजली तार में ही होकर
प्रवाहित हो और वह तार भी ऊपर से ढका रहे। हर शक्तिशाली तत्त्व पर नियंत्रण आवश्यक
होता है। नियंत्रित न रहने देने पर जो शक्तिशाली वस्तुएँ अनर्थ पैदा कर सकती हैं।
मनुष्य को यदि परमात्मा ने नियंत्रित न रखा होता,
उस पर धर्म कर्तव्यों का उत्तरदायित्व न
रखा होता तो निश्चय ही मानव प्राणी इस सृष्टि का सबसे भयंकर सबसे अनर्थकारी प्राणी
सिद्ध हुआ होता। अशक्त या स्वल्प शक्ति
वाले पदार्थ या जीव नियंत्रित रह सकते हैं क्योंकि उनके द्वारा बहुत थोड़ी हानि की
संभावना रहती है। कीड़े- मकोड़े मक्खी- मच्छर कुत्ता- बिल्ली प्रभृति छोटे जीवों पर कोई बंधन नहीं रहते, पर बैल,
घोड़ा,
ऊँट,
हाथी आदि जानवरों पर नाक की रस्सी (नाथ)
लगाम,
नकेल अंकुश आदि के द्वारा नियंत्रण रखा
जाता है। यदि ऐसा प्रतिबंध न हो तो वह शक्तिशाली जानवर लाभकारी सिद्ध होने की
अपेक्षा हानि ही उत्पन्न करेंगे।
अनियंत्रित मनुष्य
कितना घातक हो सकता है, इसकी कल्पना मात्र से सिहरन होती है। जिन असुरों, दानवों,
दस्युओं,
दुरात्माओं के कुकृत्यों से मानव सभ्यता
कलंकित होती रहे है, वे
शक्ल- सूरत
से तो मनुष्य ही थे, पर
उन्होंने स्वेच्छाचार अपनाया, मर्यादाओं को तोड़ा, न धर्म का विचार किया,
न कर्तव्य का। शक्तियों के मद में जो कुछ
उन्हें सूझा, जिसमें
लाभ दिखाई दिया, वही
करते रहे, फलस्वरूप
उनका जीवन सब प्रकार घृणित और निकृष्ट बना रहा। उनके द्वारा असंख्यों का उत्पीड़न
होता रहा। असुरता का अर्थ ही उच्छृंखलता है।
मर्यादाओं का उल्लंघन
करने की घटनाएँ, दुर्घटनाएँ
कहलाती हैं और उनके फलस्वरूप सर्वत्र विक्षोभ भी उत्पन्न होता है। सूर्य, चन्द्रमा,
ग्रह,
नक्षत्र,
पृथ्वी सभी अपनी नियत कक्षा और धुरी पर
घूमते हैं, एक
दूसरे के साथ आकर्षण शक्ति में बँधे रहते हैं और एक नियत व्यवस्था के अनुरूप अपना
कार्यक्रम जारी रखते हैं। यदि वे नियत व्यवस्था के अनुरूप अपना कार्यक्रम जारी
रखें, तो
उसका परिणाम प्रलय ही हो सकता है। यदि ग्रह मार्ग में भटक जाएँगे तो एक दूसरे से
टकराकर विनाश की प्रक्रिया उत्पन्न कर देंगे। मनुष्य भी जब अपने कर्तव्य मार्ग से
भटकता है तो अपना ही नहीं, दूसरे अनेकों का नाश भी करता है।
परमात्मा ने हर मनुष्य
की अंतरात्मा में एक मार्गदर्शन चेतना की प्रतिष्ठा की है,
जो उसे हर उचित कर्म करने की प्रेरणा एवं
अनुचित करने पर भर्त्सना करती रहती हैं। सदाचरण कर्तव्यपालन के कार्य, धर्म या पुण्य कहलाते हैं, उनके करते ही तत्क्षण करने वाले को
प्रसन्नता एवं शांति का अनुभव होता है। इसके विपरीत यदि स्वेच्छाचार बरता गया है, धर्म मर्यादाओं को तोड़ा गया है, स्वार्थ के लिए अनीति का आचरण किया गया
है, तो
अंतरात्मा में लज्जा, संकोच, पश्चाताप,
भय और ग्लानि का भाव उत्पन्न होगा। भीतर
ही भीतर अशान्ति रहेगी और ऐसा लगेगा मानो अपना अंतरात्मा ही अपने को धिक्कार रहा
है। इस आत्म प्रताड़ना की पीड़ा को भुलाने के लिए अपराधी प्रवृत्ति के लोग नशेबाजी
का सहारा लेते हैं। फिर भी चैन कहाँ, पाप वृत्तियाँ जलती हुई अग्नि की तरह हैं। जो पहले वहीं जलन
पैदा करती है जहाँ उसे स्थान मिलता है।
/* Style Definitions */
table.MsoNormalTable
{mso-style-name:"Table Normal";
mso-tstyle-rowband-size:0;
mso-tstyle-colband-size:0;
mso-style-noshow:yes;
mso-style-priority:99;
mso-style-qformat:yes;
mso-style-parent:"";
mso-padding-alt:0in 5.4pt 0in 5.4pt;
mso-para-margin:0in;
mso-para-margin-bottom:.0001pt;
mso-pagination:widow-orphan;
font-size:11.0pt;
font-family:"Calibri","sans-serif";
mso-ascii-font-family:Calibri;
mso-ascii-theme-font:minor-latin;
mso-fareast-font-family:"Times New Roman";
mso-fareast-theme-font:minor-fareast;
mso-hansi-font-family:Calibri;
mso-hansi-theme-font:minor-latin;
mso-bidi-font-family:"Times New Roman";
mso-bidi-theme-font:minor-bidi;}
Normal
0
false
false
false
EN-US
X-NONE
X-NONE
MicrosoftInternetExplorer4
आत्म प्रताड़ना सबसे
बड़ी मानसिक व्याधि है। जिसका मन अपने दुष्कर्मों के लिए अपने आपको धिक्कारता रहेगा, वह कभी आंतरिक दृष्टि से सशक्त न रह
सकेगा। उसे अनेक मानसिक दोष दुर्गुण घेरेंगे और धीरे-
धीरे अनेक मनोविकारों से ग्रस्त हो
जाएगा।
मर्यादाओं का उल्लंघन
करके लोग तात्कालिक थोड़ा लाभ उठाते देखे जाते हैं। दूरगामी परिणामों को न सोचकर
लोग तुरंत के लाभ को देखते हैं। बेईमानी से धन कमाने,
दंभ से अहंकार बढ़ाने और अनुपयुक्त भोगों
के भोगने से जो क्षणिक सुख मिलता है, वह परिणाम में भारी विपत्ति बनकर सामने आता है। मानसिक
स्वास्थ्य को नष्ट कर डालने और आध्यात्मिक महत्ता एवं विशेषताओं को समाप्त करने
में सबसे बड़ा कारण आत्म प्रताड़ना है। ओले पड़ने से जिस प्रकार फसल नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार आत्म प्रताड़ना की चोटें पड़ते
रहने से मन और अंतःकरण के सभी श्रेष्ठ तत्त्व नष्ट हो जाते हैं और ऐसा मनुष्य
प्रेत- पिशाचों
जैसी श्मशान मनोभूमि लेकर निरंतर विक्षुब्ध विचरता रहता है।
धर्म कर्तव्यों की
मर्यादा को तोड़ने वाले उच्छृंखल, कुमार्गगामी मनुष्यों को गतिविधियों को रोकने के लिए, उन्हें दंड देने के लिए समाज और शासन की
ओर से जो प्रतिरोधात्मक व्यवस्था हुई है, उससे सर्वथा बचे रहना संभव नहीं। धूर्तता के बल पर आज कितने ही
अपराधी प्रवृत्ति के लोग सामाजिक भर्त्सना से और कानून दंड से बच निकलने में सफल
होते रहते हैं, पर
यही चाल सदा सफल होती रहेगी, ऐसी बात नहीं है। असत्य का आवरण अंततः छँटना ही है। जन- मानस में व्याप्त घृणा का सूक्ष्म प्रभाव
उस मनुष्य पर अदृश्य रूप से पड़ता है। जिसके अहित परिणाम ही सामने आते हैं। राजदंड
से बचे रहने के लिए ऐसे लोग रिश्वत में बहुत खर्च करते हैं, निरंतर डरे और दबे रहते हैं, उनका कोई सच्चा मित्र नहीं रहता। जो लोग
उनसे लाभ उठाते हैं, वे
भी भीतर ही भीतर घृणा करते हैं और समय आने पर शत्रु बन जाते हैं। जिनकी आत्मा
धिक्कारेगी उनके लिए देर- सबेर में सभी कोई धिक्कारने वाले बन जाएँगे। ऐसी धिक्कार
एकत्रित करके यदि मनुष्य जीवित रहा हो उसका जीवन न जीने के बराबर है।
नियंत्रण में रहना
आवश्यक है। मनुष्य के लिए यही उचित है कि वह ईश्वरीय मर्यादाओं का पालन करे। अपने
उत्तरदायित्वों को समझे और कर्तव्यों को निबाहें। नीति,
सदाचार और धन का पालन करते हुए सीमित लाभ
में संतोष करना पड़ सकता है। गरीबी और सादगी का जीवन बिताना पड़ सकता है, पर उसमें चैन अधिक है। अनीति अपनाकर अधिक
धन एकत्रित कर लेना संभव है, पर ऐसा धन अपने साथ इतने उपद्रव लेकर आता है कि उनसे निपटना
भारी त्रासदायक सिद्ध होता है। दंभ और अहंकार का प्रदर्शन करके लोगों के ऊपर जो
रौब जमाया जाता है, उससे
आतंक और कौतूहल हो सकता है, पर श्रद्धा और प्रतिष्ठा का दर्शन भी दुर्लभ रहेगा। विलासिता
और वासना का अनुपयुक्त भोग भोगने वाला अपना शारीरिक,
मानसिक और सामाजिक संतुलन नष्ट करके
खोखला ही बनता जाता है। परलोक और पुनर्जन्म को अंधकारमय बनाकर आत्मा को असंतुष्ट
और परमात्मा को अप्रसन्न रखकर क्षणिक सूखों के लिए अनीति का मार्ग अपनाना, किसी भी दृष्टि से दूरदर्शिता पूर्ण नहीं
कहा जा सकता।
बुद्धिमत्ता इसी में
है कि हम धर्म, कर्तव्य
पालन का महत्त्व समझें, सदाचार की मर्यादाओं का उल्लंघन न करें। स्वयं शांतिपूर्वक
जिएँ और दूसरों को सुखपूर्वक जीने दें। यह सब नियंत्रण की नीति अपनाने से ही संभव
हो सकता है। कर्तव्य और धर्म का अंकुश परमात्मा ने हमारे ऊपर इसीलिए रखा है कि
सन्मार्ग में भटकें नहीं। इन नियंत्रणों को तोड़ने की चेष्टा करना अपने और दूसरों
के लिए महती विपत्तियों को आमंत्रित करने की मूर्खता करना ही गिना जाएगा।
समाज में स्वस्थ
परम्परा कायम रहें, उसी
से अपनी और सबकी सुविधा बनी रहेगी। यह ध्यान में रखते हुए हम में से प्रत्येक को
अपने नागरिक कर्तव्यों का पालन करने में भावनापूर्वक दत्तचित्त होना चाहिए। समाज
सबका है। सब लोग थोड़ा- थोड़ा बिगाड़ करें तो सब मिलाकर बिगाड़ की मात्रा बहुत बड़ी हो
जाएगी, किंतु
यदि थोड़े- थोड़े
प्रयत्न सुधार भी बहुत हो सकता है। उचित यही है कि हम सब मिलकर अपने समाज को
सुधारने, संचालित
करने और स्वस्थ परम्पराएँ प्रचलित करने का प्रयत्न करें और सभ्य, सुविकसित लोगों की तरह भौतिक एवं आत्मिक
प्रगति कर सुख
First
5
7
Last