
बालक के प्रथम तीन वर्ष
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जन्म के पश्चात् जब बालक पृथ्वी पर आता है तभी से वह नाना प्रकार के संस्कार, उस परिस्थिति से निरन्तर प्राप्त करता चलता है। जन्म से पूर्व माता के गर्भ कालीन विचारों, उसके हर्ष, क्रोध, काम, चिन्ता, क्षमा, शान्ति इत्यादि भावों के अतिरिक्त जब शिशु पदार्पण करता है, तो उसका व्यक्तित्व सांसारिक परिस्थितियों से भी परिचालित होना प्रारम्भ हो जाता है।
प्रारम्भिक संस्कारों का महत्व—
प्रथम वर्ष में बच्चा माता के संसर्ग तथा उसके दूध पिलाते समय के विचारों से व्यक्तित्व प्राप्त करता है। हमारी नब्बे प्रतिशत माताएं यह नहीं समझतीं कि उनके इर्द-गिर्द रहने वाले विचारों का वातावरण उनके नन्ने-मुन्ने पर कितना महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रहा है। जिन माताओं को अनचाही या अनैतिक दृष्टि से प्राप्त की हुई सन्तान होती है तथा जो निरन्तर अपनी अनैतिकता के विषय में गुपचुप चिन्तन किया करती हैं, उनका दूषित प्रभाव बच्चे पर पड़ता है और वह नैराश्य, खिन्न, चिड़चिड़ा और आत्महीनता की ग्रन्थि से युक्त बनता है। बच्चे को दूध पिलाने वाली माताओं को विषय सम्भोग इत्यादि से विष की तरह बचना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के दूषित विचारों वाली माता का पुत्र कामी लम्पट और आवारा हो सकता है। अत्यधिक क्रोधी, उत्तेजित या बात-बात पर बिगड़ उठने वाली माताओं के बच्चे उग्र स्वभाव के बनते हैं। इसका कारण बच्चे के प्रारम्भिक संस्कार हैं। माता-पिता द्वारा बोले जाने वाले या उनके मन में मौजूद रहने वाले सद्भाव अथवा दुर्भाव अपनी अमिट छाप (इम्प्रेशन) बच्चे के मानस-पटल पर छोड़ जाते हैं। सावधान! बच्चा आपसे अपने प्रारम्भिक संस्कार प्राप्त करता है।
आप जिस प्रकार घर में रहते हैं, उठते बैठते या व्यवहार करते हैं, घर में जैसी शिष्टता या अशिष्टता चलती है, जो-जो अच्छी बातें या गालियां दी जाती हैं, जो प्रवृत्तियां उसके समीप के वातावरण में दिन भर चला करती हैं, उन समस्त परिस्थितियों, आपके व्यवहारों से बालक अपने संस्कार ग्रहण करता है। यह मत समझिये कि इस नन्हे के मस्तिष्क में आपके व्यवहार को समझने की शक्ति नहीं है। उसके पास वे सभी बौद्धिक शक्तियां हैं जो आपके विकसित मस्तिष्क में हैं। आपके हर्ष, क्रोध, प्यार, तिरस्कार, द्वेष इत्यादि समस्त भावों को नन्हा मस्तिष्क ग्रहण करता चलता है। उसका प्रारम्भिक ज्ञान अंधानुकरण पर आधारित है। आप उसके लिए ऐसे जीवित आदर्श हैं, जिससे उसे अपने गुप्त मन के असंख्य संस्कार बनाने हैं।
बचपन के संस्कारों में जीवन का बड़ा महत्व है। ये संस्कार बीज रूप से बच्चे के मस्तिष्क में संग्रहीत रहते हैं तथा उनके कार्यों को संचालित किया करते हैं। जटिल भावना ग्रंथियों का निर्माण बचपन के संस्कारों से ही होता है। बड़ा हो जाने पर भी गुप्त रूप से गालियों, अशिष्टता सूचक व्यवहारों या अश्लील शब्दों के प्रयोगों द्वारा प्रायः बचपन के कुसंस्कार व्यक्त हुआ करते हैं। कुसंस्कारों में प्रारम्भिक जीवन व्यतीत करने वाला बालक बूढ़ा होने पर भी उन्हीं का दास बना रहता है।
शिशु की मौलिक आवश्यकताएं—
शिशु की प्रारम्भिक आवश्यकताएं हैं शरीर के लिये आराम, सुरक्षित समझने का आन्तरिक भाव तथा समुचित खुराक। प्रारम्भ में नवजात शिशु में इन्द्रिय सुख की ही प्रधानता होती है। उसके मन में मूल भाव अपने आपको सुरक्षित समझने का होता है। यदि तनिक सी भी लापरवाही की जाय तो शिशु के मन में ‘भय’ का भाव अपनी जड़ें जमा सकता है। अतएव आपके पालन पोषण की रीति ऐसी होना चाहिये कि बच्चा डर न जाय, उसके मन में भय की भावना न बैठ जाय। वह अपने आपको सुरक्षित समझता रहे। प्रारम्भ में कोई उसके पास रहे, उसे प्यार दुलार करे, अकेला न छोड़े, अकस्मात् ऊंची आवाज उसके कानों पर न डाले, तेज रोशनी न दिखावे, रात्रि में अकेला न छोड़े, किसी भयानक उपाय से उसे हंसाने की चेष्टा न करें, भीरु और अस्थिर तरीके से उसे न हिलाये डुलायें।
डा. मेक्डानल्ड लेडाल के अनुसार ‘‘अधीर और तेज स्वभाव वाली नर्सें बच्चे के कोमल संस्थान में तुनुक मिज़ाजी उत्पन्न कर देती हैं। कपड़े उतारते पहनाते हुए उसमें एक प्रकार की अधीरता और घबराहट का भाव भर देती हैं। अकस्मात् चौंका देने वाला खटका शिशु के समीप नहीं होना चाहिए।’’
किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि आप उसके पास साधारण शोर भी न करें, या बातचीत इत्यादि भी रोक दें। नहीं, साधारण शोर चलता रहे तो भी कुछ हर्ज नहीं है। चलने फिरने, बोलने, बातचीत करने, साधारण मध्यम गाने-बजाने की ध्वनि से शिशु को कोई बाधा नहीं पहुंचती है। बच्चा नींद से तभी उठता है, जब कच्ची नींद में सो जाता है। अत्यधिक प्रेम, पुनः-पुनः बच्चे को उठाना, रह-रह कर उसके विषय में चिन्ता करना, उसके सम्बन्ध में असाधारण खबरदारी, गुप्त अलक्षित रूप से बच्चे के मानसिक संस्थान पर प्रभाव डालकर उसे बनाया करते हैं।
शिशु के व्यक्तित्व का निर्माण—
प्रारम्भिक आदतों का विकास करने के लिये आपको उसे आभास कराना होगा। पुनः पुनः जिन आदतों को दुहराया जाता है, वे बच्चे के गुप्त मन में जटिल मानसिक ग्रन्थियों का रूप धारण कर लेती हैं। अपने विवेक द्वारा स्थिर कीजिए कि कौन-कौन आदतें आप उसमें डालना चाहते हैं? उदाहरणार्थ निम्न आदतें विकसित कीजिये— (1) मल मूत्र त्यागना — इसके लिये आपको समय निश्चित करना होगा और प्रति दिन उसी समय बच्चे को मल त्याग के लिए उठाना या बिठाना होगा जो मातायें बच्चे को प्रतिदिन छह-सात बजे मल के लिये प्रेरित करती हैं, वे स्वास्थ्य की दृष्टि से बड़ी शुभ बात करती हैं। इसी प्रकार प्रतिघण्टा मूत्र त्याग के लिए प्रेरित करना उचित है। छोटे बच्चे को मूत्र जल्दी-जल्दी आता है। अतः समझदारी से काम लें और कपड़ों पर मूत्र त्याग न करने दें।
(2) भोजन सम्बन्धी सावधानियां रखें अर्थात् दूध पिलाने का एक निश्चित समय निर्धारित करलें। उसी समय पेट भर कर पिलादें। सावधान! बच्चा किसी खेल में लग कर भूखा न रह जाय अन्यथा वह मध्य ही में रोने बिलखने लगेगा। अनुभव और अभ्यास द्वारा यह मालूम हो जायगा कि बच्चे को कितना दूध चाहिये। आयु के अनुसार यह बढ़ता जायगा। जैसे-जैसे बच्चा बढ़े उसे फलों के रस, पतली पकी हुई दाल चावल, बिना मिर्च की सब्जी चटाने का क्रम रखना चाहिये। यथा सम्भव मां का दूध ही पिलाना चाहिये। दूध पिलाते समय मां के शरीर के साथ जो स्नेहमय सम्पर्क शिशु को प्राप्त होता है, उससे शिशु को प्रेम, सहानुभूति, मृदुता, हंसमुख होना, प्रसन्नता, निर्दोषपन, आन्तरिक शान्ति, सौजन्य, तृप्ति, इत्यादि मनोभावों का विकास होता है। माता को दूध पिलाते समय शान्त, हंसमुख, स्थिर, प्रेममय, सहानुभूति पूर्ण होना चाहिये क्योंकि जो गुण उसके पास इस समय होंगे, वे ही दूध तथा शारीरिक मानसिक सम्पर्क द्वारा उसमें विकसित हो जायेंगे। शिशु की मानसिक उन्नति, व्यक्तित्व के विकास तथा इन्द्रियजन्य सुख के लिए, शरीर की वृद्धि के लिये मां के स्तन से दुग्ध-पान कराना आवश्यक है।
(3) विश्राम सम्बन्धी आदतें — शिशु को अपने आप से सो जाने की आदत पड़ती चाहिए। आप उसका बिछौना बिछा सकते हैं। निश्चित समय पर बिछौने पर लिटा सकते हैं। प्रारम्भ में थपथपा भी सकते हैं लेकिन धीरे-धीरे इन उपकरणों का परित्याग कर दीजिए, लोरियां न गाइये वर्ना वैसी ही आदत पड़ जायगी। यदि बच्चा स्वयं सो जायगा तो धीरे-धीरे उसे स्वावलम्बन की आदत पड़ जायगी। स्वावलम्बन का विकास शैशव से ही करना चाहिये।
(4) आमोद प्रमोद के लिये रंग बिरंगे खिलौने, झुनझुने, आकर्षक वस्तुएं पास रखिए और बच्चे को खेल कर मनोरंजन करने दीजिये आप स्वयं भी उसके साथ खेल सकते हैं पर स्वावलम्बन न टूट जाय, यह ध्यान रखिये।
(5) स्नान तथा बच्चे की शारीरिक सफाई, मालिश, धूप स्नान इत्यादि नियमित रूप से किया करें। अंग्रेज बच्चों में स्वच्छता की स्वास्थ्य-प्रद आदतें आरम्भ में ही डाली जाती हैं। स्नान के पश्चात् तेल से बालों को स्निग्ध करना, पाउडर, क्रीम या हलका मक्खन मल देना, आंखों में काजल डालना, हलके हलके वस्त्र जो खूब ढीले-ढाले हों पहना दीजिए। बच्चे को खेलने दीजिये। दूर से देखते रहिये कि वे कैसे कार्य करता है। उसके स्वावलम्बन में अनुचित प्रेम द्वारा कोई बाधा न पहुंचाइये। जब तक आपको यह ज्ञात न हो जाय कि कोई आदत बच्चे पर कितनी अनुकूल बैठी है, तब तक उस पर नियमित रूप से बच्चे को चलाने का आग्रह न करें।
(6) भय से रोक थाम — यकायक बच्चे को गुदगुदाना, चौंका देना, नोंच लेना, गहराई से चूम लेना या काट लेना, अत्यधिक शोर या कोलाहल शिशु को स्तम्भित या हैरान करता है और भय, शंका तथा संकोच उत्पन्न करता है। इनसे बचे रहें।
(7) शिशु का प्रकृति या जगत की नाना वस्तुओं से धीरे-धीरे परिचय कराइये। कुत्ते, बिल्ली, बकरी का मेमना, गाय का बछड़ा इत्यादि से जो परिचय कराना हो तो वह इस प्रकार करावें कि वह भयभीत न हो जाय।
(8) चम्मच से या किसी दूसरी चीज को थाली से टकराकर ध्वनि द्वारा शिशु आनन्द लेता है, पालने से किसी खिलौने को बार-बार गिरा देता है, जिससे आप उठाकर दें, इन बातों से वह अपना आत्म-विश्वास बढ़ाता है। ज्यों-ज्यों बालक बढ़ता जाय, उसे अपने तरीके से स्वयं कार्य करने दीजिये परिस्थिति पर काबू पाने दीजिये। यदि परिस्थिति पर काबू पाने के लिये उसके हृदय में उत्साह रहेगा, तो उसके मन में हीनत्व या अपने आपको कमजोर न समझने का भाव उत्पन्न न होगा, स्वभाव में चिड़चिड़ापन या तुनुकमिजाजी भी न आवेगी। बालक को किसी ऐसे कार्य के सम्बन्ध में विवश या नियन्त्रित न कीजिए जिसका अन्तिम निर्णय करने का फैसला स्वयं उसी को करना आवश्यक हो। भोजन, दूध या जलपान, सोना या अन्य शारीरिक कार्यों को जहां तक सम्भव हो उसे स्वयं ही करने दीजिये। हर समय लाड़-प्यार मिजाजपुर्सी की आदत उसमें दूसरों पर निर्भर रहने की आदत डालती है।
संक्षेप में, जब शिशु बड़ा होकर स्वयं जीवन, जगत, वातावरण इत्यादि के नये अनुभव प्राप्त करने लगे तो आपको सावधान हो जाना चाहिए। कुत्सित पापों से बचाकर निर्भयता, स्वावलम्बन, प्रसन्नता, दृढ़ता के भावों को जानना चाहिए। निप्पल चुसाना, सारे दिन बच्चे को गोद में लेना, अत्यधिक लाड़ प्यार, लोरियां गाना मानसिक दृष्टि से हानिकारक हैं, क्योंकि इनके उपयोग के कारण बच्चा वास्तविक संसार से दूर भागता है। उसे संसार की कठोरता का ज्ञान धीरे-धीरे स्वाभाविक रीति से कराना आवश्यक है। बच्चे को हमेशा अपने से धीरे-धीरे दूर होते जाने के लिए उत्साहित कीजिए और उसे अपना कार्य स्वयं करने के लिए प्रोत्साहन दीजिए।
यदि आप बालक का अपने साथ सम्बन्ध चिरस्थायी रखना चाहते हैं, तो वह परस्पर सेवा, सौहार्द, सहायता पर आश्रित होना चाहिए। यदि आपका बच्चा भूलों से स्वयं शिक्षा लेने लगेगा, तो स्वतन्त्र रूप से उसका व्यक्तित्व विकसित होने लगेगा।
बच्चे का मानसिक एवं भावात्मक विकास—
तीन से छह वर्ष की अवस्था में मन अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है। प्रारम्भ में घरेलू वातावरण में उसे जो मानसिक संवेदनाएं, विचार या अनुभव प्राप्त हुए हैं, वे अब क्रमशः उनके चरित्र तथा प्रारम्भिक कार्यों में स्पष्ट होने लगते हैं। बालक परिस्थिति को समझने लगता है। उसका व्यक्तित्व निर्मित होने लगता है। बालक हाथ, पांवों, त्वचा तथा नेत्रों के नाना अनुभवों से ज्ञान-वृद्धि करने लगता है। घर की गरीबी, योग्य शिक्षक का अभाव, अनुकूल व्यवस्था की कमी होने पर बच्चे का मानस विकास उचित गति से नहीं चल पाता।
मैडम मौन्टेसरी नामक बाल शिक्षण विशेषज्ञा का कथन है कि तीन से छह वर्ष की आयु में बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है किन्तु शिक्षण का संस्कार बालक की स्वयं प्रवृत्ति पर ही सध सकता है, अर्थात् उसके स्वप्रयत्न पर ही निर्भर होता है। उसके अतिरिक्त बच्चा चरित्र के विकास के लिए भी योग्य बन जाता है, पर इस आयु में बालक अपने द्वारा ही विकास की बातों को ग्रहण कर सकता है। ये तत्व उस पर लादे नहीं जा सकते।
चरित्र एवं बच्चे के भावात्मक विकास के लिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को बच्चे के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए। वह हमारी आदतें, पूजा ढंग, भजन कीर्तन, शिष्टाचार, वस्त्र पहनने के तरीके, स्नान, भोजन के ढंग कुछ-कुछ सीख सकता है। छह वर्ष का बालक आज्ञा द्वारा नीति की भी कई बातें सीख सकता है। इस आयु में बालक सबसे अधिक शब्द मांगता है। माता पिता को चाहिए कि उसे अच्छे से अच्छे शब्द सीखने के लिए दें। उच्च महापुरुषों के नाम, उनके अनेक मित्र, शहरों के नाम, नये-नये फलों, तरकारियों, वस्तुओं के नाम उच्चारण करने में उसे विशेष उत्साह प्राप्त होता है। तीन से छह वर्ष की आयु में प्रत्यक्ष वस्तुओं द्वारा नाना वस्तुओं के नाम सिखाना चाहिए।
इस आयु में बालक की कल्पना शक्ति भी क्रमशः विकास पथ पर होती है। अतः परियों, जादू की कहानियां, अद्भुत वस्तुओं के विषय में बातचीत में वे विशेष रस लेते हैं। ज्यों-ज्यों अनुभव वृद्धि होती है, इसी कल्पना द्वारा बालक अपने ज्ञान की वृद्धि करता है। परिस्थिति से अनुभव प्राप्त कर कल्पना को जोड़ कर वह सांसारिक ज्ञान बढ़ाता है। नवीन बातों की जिज्ञासा उसके मन में उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है। वह आस-पास के व्यक्तियों से नाना प्रकार के कौतूहल जनक प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा शान्त करना चाहता है।
सावधान! बच्चे के ये प्रश्न उसके भावी सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी विकास में बड़ा महत्व रखते हैं। इन प्रश्नों का दम कदापि न करें। उन्हें ऐसे उत्तर दें जिसे वह ग्रहण कर सकें और उनकी जिज्ञासा-तृप्त हो सके। उत्तर देते समय तीन बातें स्मरण रखिये। (1) बाल मानस का ज्ञान, (2) परिस्थितियों की जानकारी, (3) विषय को सरलतम बनाकर समझाने की कला। शंकाओं को इस प्रकार निवारण करें कि बच्चे की उलझनें स्पष्ट हो जांय तथा वह पूर्ण संतुष्ट हो जाय।
प्रारम्भिक संस्कारों का महत्व—
प्रथम वर्ष में बच्चा माता के संसर्ग तथा उसके दूध पिलाते समय के विचारों से व्यक्तित्व प्राप्त करता है। हमारी नब्बे प्रतिशत माताएं यह नहीं समझतीं कि उनके इर्द-गिर्द रहने वाले विचारों का वातावरण उनके नन्ने-मुन्ने पर कितना महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रहा है। जिन माताओं को अनचाही या अनैतिक दृष्टि से प्राप्त की हुई सन्तान होती है तथा जो निरन्तर अपनी अनैतिकता के विषय में गुपचुप चिन्तन किया करती हैं, उनका दूषित प्रभाव बच्चे पर पड़ता है और वह नैराश्य, खिन्न, चिड़चिड़ा और आत्महीनता की ग्रन्थि से युक्त बनता है। बच्चे को दूध पिलाने वाली माताओं को विषय सम्भोग इत्यादि से विष की तरह बचना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के दूषित विचारों वाली माता का पुत्र कामी लम्पट और आवारा हो सकता है। अत्यधिक क्रोधी, उत्तेजित या बात-बात पर बिगड़ उठने वाली माताओं के बच्चे उग्र स्वभाव के बनते हैं। इसका कारण बच्चे के प्रारम्भिक संस्कार हैं। माता-पिता द्वारा बोले जाने वाले या उनके मन में मौजूद रहने वाले सद्भाव अथवा दुर्भाव अपनी अमिट छाप (इम्प्रेशन) बच्चे के मानस-पटल पर छोड़ जाते हैं। सावधान! बच्चा आपसे अपने प्रारम्भिक संस्कार प्राप्त करता है।
आप जिस प्रकार घर में रहते हैं, उठते बैठते या व्यवहार करते हैं, घर में जैसी शिष्टता या अशिष्टता चलती है, जो-जो अच्छी बातें या गालियां दी जाती हैं, जो प्रवृत्तियां उसके समीप के वातावरण में दिन भर चला करती हैं, उन समस्त परिस्थितियों, आपके व्यवहारों से बालक अपने संस्कार ग्रहण करता है। यह मत समझिये कि इस नन्हे के मस्तिष्क में आपके व्यवहार को समझने की शक्ति नहीं है। उसके पास वे सभी बौद्धिक शक्तियां हैं जो आपके विकसित मस्तिष्क में हैं। आपके हर्ष, क्रोध, प्यार, तिरस्कार, द्वेष इत्यादि समस्त भावों को नन्हा मस्तिष्क ग्रहण करता चलता है। उसका प्रारम्भिक ज्ञान अंधानुकरण पर आधारित है। आप उसके लिए ऐसे जीवित आदर्श हैं, जिससे उसे अपने गुप्त मन के असंख्य संस्कार बनाने हैं।
बचपन के संस्कारों में जीवन का बड़ा महत्व है। ये संस्कार बीज रूप से बच्चे के मस्तिष्क में संग्रहीत रहते हैं तथा उनके कार्यों को संचालित किया करते हैं। जटिल भावना ग्रंथियों का निर्माण बचपन के संस्कारों से ही होता है। बड़ा हो जाने पर भी गुप्त रूप से गालियों, अशिष्टता सूचक व्यवहारों या अश्लील शब्दों के प्रयोगों द्वारा प्रायः बचपन के कुसंस्कार व्यक्त हुआ करते हैं। कुसंस्कारों में प्रारम्भिक जीवन व्यतीत करने वाला बालक बूढ़ा होने पर भी उन्हीं का दास बना रहता है।
शिशु की मौलिक आवश्यकताएं—
शिशु की प्रारम्भिक आवश्यकताएं हैं शरीर के लिये आराम, सुरक्षित समझने का आन्तरिक भाव तथा समुचित खुराक। प्रारम्भ में नवजात शिशु में इन्द्रिय सुख की ही प्रधानता होती है। उसके मन में मूल भाव अपने आपको सुरक्षित समझने का होता है। यदि तनिक सी भी लापरवाही की जाय तो शिशु के मन में ‘भय’ का भाव अपनी जड़ें जमा सकता है। अतएव आपके पालन पोषण की रीति ऐसी होना चाहिये कि बच्चा डर न जाय, उसके मन में भय की भावना न बैठ जाय। वह अपने आपको सुरक्षित समझता रहे। प्रारम्भ में कोई उसके पास रहे, उसे प्यार दुलार करे, अकेला न छोड़े, अकस्मात् ऊंची आवाज उसके कानों पर न डाले, तेज रोशनी न दिखावे, रात्रि में अकेला न छोड़े, किसी भयानक उपाय से उसे हंसाने की चेष्टा न करें, भीरु और अस्थिर तरीके से उसे न हिलाये डुलायें।
डा. मेक्डानल्ड लेडाल के अनुसार ‘‘अधीर और तेज स्वभाव वाली नर्सें बच्चे के कोमल संस्थान में तुनुक मिज़ाजी उत्पन्न कर देती हैं। कपड़े उतारते पहनाते हुए उसमें एक प्रकार की अधीरता और घबराहट का भाव भर देती हैं। अकस्मात् चौंका देने वाला खटका शिशु के समीप नहीं होना चाहिए।’’
किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि आप उसके पास साधारण शोर भी न करें, या बातचीत इत्यादि भी रोक दें। नहीं, साधारण शोर चलता रहे तो भी कुछ हर्ज नहीं है। चलने फिरने, बोलने, बातचीत करने, साधारण मध्यम गाने-बजाने की ध्वनि से शिशु को कोई बाधा नहीं पहुंचती है। बच्चा नींद से तभी उठता है, जब कच्ची नींद में सो जाता है। अत्यधिक प्रेम, पुनः-पुनः बच्चे को उठाना, रह-रह कर उसके विषय में चिन्ता करना, उसके सम्बन्ध में असाधारण खबरदारी, गुप्त अलक्षित रूप से बच्चे के मानसिक संस्थान पर प्रभाव डालकर उसे बनाया करते हैं।
शिशु के व्यक्तित्व का निर्माण—
प्रारम्भिक आदतों का विकास करने के लिये आपको उसे आभास कराना होगा। पुनः पुनः जिन आदतों को दुहराया जाता है, वे बच्चे के गुप्त मन में जटिल मानसिक ग्रन्थियों का रूप धारण कर लेती हैं। अपने विवेक द्वारा स्थिर कीजिए कि कौन-कौन आदतें आप उसमें डालना चाहते हैं? उदाहरणार्थ निम्न आदतें विकसित कीजिये— (1) मल मूत्र त्यागना — इसके लिये आपको समय निश्चित करना होगा और प्रति दिन उसी समय बच्चे को मल त्याग के लिए उठाना या बिठाना होगा जो मातायें बच्चे को प्रतिदिन छह-सात बजे मल के लिये प्रेरित करती हैं, वे स्वास्थ्य की दृष्टि से बड़ी शुभ बात करती हैं। इसी प्रकार प्रतिघण्टा मूत्र त्याग के लिए प्रेरित करना उचित है। छोटे बच्चे को मूत्र जल्दी-जल्दी आता है। अतः समझदारी से काम लें और कपड़ों पर मूत्र त्याग न करने दें।
(2) भोजन सम्बन्धी सावधानियां रखें अर्थात् दूध पिलाने का एक निश्चित समय निर्धारित करलें। उसी समय पेट भर कर पिलादें। सावधान! बच्चा किसी खेल में लग कर भूखा न रह जाय अन्यथा वह मध्य ही में रोने बिलखने लगेगा। अनुभव और अभ्यास द्वारा यह मालूम हो जायगा कि बच्चे को कितना दूध चाहिये। आयु के अनुसार यह बढ़ता जायगा। जैसे-जैसे बच्चा बढ़े उसे फलों के रस, पतली पकी हुई दाल चावल, बिना मिर्च की सब्जी चटाने का क्रम रखना चाहिये। यथा सम्भव मां का दूध ही पिलाना चाहिये। दूध पिलाते समय मां के शरीर के साथ जो स्नेहमय सम्पर्क शिशु को प्राप्त होता है, उससे शिशु को प्रेम, सहानुभूति, मृदुता, हंसमुख होना, प्रसन्नता, निर्दोषपन, आन्तरिक शान्ति, सौजन्य, तृप्ति, इत्यादि मनोभावों का विकास होता है। माता को दूध पिलाते समय शान्त, हंसमुख, स्थिर, प्रेममय, सहानुभूति पूर्ण होना चाहिये क्योंकि जो गुण उसके पास इस समय होंगे, वे ही दूध तथा शारीरिक मानसिक सम्पर्क द्वारा उसमें विकसित हो जायेंगे। शिशु की मानसिक उन्नति, व्यक्तित्व के विकास तथा इन्द्रियजन्य सुख के लिए, शरीर की वृद्धि के लिये मां के स्तन से दुग्ध-पान कराना आवश्यक है।
(3) विश्राम सम्बन्धी आदतें — शिशु को अपने आप से सो जाने की आदत पड़ती चाहिए। आप उसका बिछौना बिछा सकते हैं। निश्चित समय पर बिछौने पर लिटा सकते हैं। प्रारम्भ में थपथपा भी सकते हैं लेकिन धीरे-धीरे इन उपकरणों का परित्याग कर दीजिए, लोरियां न गाइये वर्ना वैसी ही आदत पड़ जायगी। यदि बच्चा स्वयं सो जायगा तो धीरे-धीरे उसे स्वावलम्बन की आदत पड़ जायगी। स्वावलम्बन का विकास शैशव से ही करना चाहिये।
(4) आमोद प्रमोद के लिये रंग बिरंगे खिलौने, झुनझुने, आकर्षक वस्तुएं पास रखिए और बच्चे को खेल कर मनोरंजन करने दीजिये आप स्वयं भी उसके साथ खेल सकते हैं पर स्वावलम्बन न टूट जाय, यह ध्यान रखिये।
(5) स्नान तथा बच्चे की शारीरिक सफाई, मालिश, धूप स्नान इत्यादि नियमित रूप से किया करें। अंग्रेज बच्चों में स्वच्छता की स्वास्थ्य-प्रद आदतें आरम्भ में ही डाली जाती हैं। स्नान के पश्चात् तेल से बालों को स्निग्ध करना, पाउडर, क्रीम या हलका मक्खन मल देना, आंखों में काजल डालना, हलके हलके वस्त्र जो खूब ढीले-ढाले हों पहना दीजिए। बच्चे को खेलने दीजिये। दूर से देखते रहिये कि वे कैसे कार्य करता है। उसके स्वावलम्बन में अनुचित प्रेम द्वारा कोई बाधा न पहुंचाइये। जब तक आपको यह ज्ञात न हो जाय कि कोई आदत बच्चे पर कितनी अनुकूल बैठी है, तब तक उस पर नियमित रूप से बच्चे को चलाने का आग्रह न करें।
(6) भय से रोक थाम — यकायक बच्चे को गुदगुदाना, चौंका देना, नोंच लेना, गहराई से चूम लेना या काट लेना, अत्यधिक शोर या कोलाहल शिशु को स्तम्भित या हैरान करता है और भय, शंका तथा संकोच उत्पन्न करता है। इनसे बचे रहें।
(7) शिशु का प्रकृति या जगत की नाना वस्तुओं से धीरे-धीरे परिचय कराइये। कुत्ते, बिल्ली, बकरी का मेमना, गाय का बछड़ा इत्यादि से जो परिचय कराना हो तो वह इस प्रकार करावें कि वह भयभीत न हो जाय।
(8) चम्मच से या किसी दूसरी चीज को थाली से टकराकर ध्वनि द्वारा शिशु आनन्द लेता है, पालने से किसी खिलौने को बार-बार गिरा देता है, जिससे आप उठाकर दें, इन बातों से वह अपना आत्म-विश्वास बढ़ाता है। ज्यों-ज्यों बालक बढ़ता जाय, उसे अपने तरीके से स्वयं कार्य करने दीजिये परिस्थिति पर काबू पाने दीजिये। यदि परिस्थिति पर काबू पाने के लिये उसके हृदय में उत्साह रहेगा, तो उसके मन में हीनत्व या अपने आपको कमजोर न समझने का भाव उत्पन्न न होगा, स्वभाव में चिड़चिड़ापन या तुनुकमिजाजी भी न आवेगी। बालक को किसी ऐसे कार्य के सम्बन्ध में विवश या नियन्त्रित न कीजिए जिसका अन्तिम निर्णय करने का फैसला स्वयं उसी को करना आवश्यक हो। भोजन, दूध या जलपान, सोना या अन्य शारीरिक कार्यों को जहां तक सम्भव हो उसे स्वयं ही करने दीजिये। हर समय लाड़-प्यार मिजाजपुर्सी की आदत उसमें दूसरों पर निर्भर रहने की आदत डालती है।
संक्षेप में, जब शिशु बड़ा होकर स्वयं जीवन, जगत, वातावरण इत्यादि के नये अनुभव प्राप्त करने लगे तो आपको सावधान हो जाना चाहिए। कुत्सित पापों से बचाकर निर्भयता, स्वावलम्बन, प्रसन्नता, दृढ़ता के भावों को जानना चाहिए। निप्पल चुसाना, सारे दिन बच्चे को गोद में लेना, अत्यधिक लाड़ प्यार, लोरियां गाना मानसिक दृष्टि से हानिकारक हैं, क्योंकि इनके उपयोग के कारण बच्चा वास्तविक संसार से दूर भागता है। उसे संसार की कठोरता का ज्ञान धीरे-धीरे स्वाभाविक रीति से कराना आवश्यक है। बच्चे को हमेशा अपने से धीरे-धीरे दूर होते जाने के लिए उत्साहित कीजिए और उसे अपना कार्य स्वयं करने के लिए प्रोत्साहन दीजिए।
यदि आप बालक का अपने साथ सम्बन्ध चिरस्थायी रखना चाहते हैं, तो वह परस्पर सेवा, सौहार्द, सहायता पर आश्रित होना चाहिए। यदि आपका बच्चा भूलों से स्वयं शिक्षा लेने लगेगा, तो स्वतन्त्र रूप से उसका व्यक्तित्व विकसित होने लगेगा।
बच्चे का मानसिक एवं भावात्मक विकास—
तीन से छह वर्ष की अवस्था में मन अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है। प्रारम्भ में घरेलू वातावरण में उसे जो मानसिक संवेदनाएं, विचार या अनुभव प्राप्त हुए हैं, वे अब क्रमशः उनके चरित्र तथा प्रारम्भिक कार्यों में स्पष्ट होने लगते हैं। बालक परिस्थिति को समझने लगता है। उसका व्यक्तित्व निर्मित होने लगता है। बालक हाथ, पांवों, त्वचा तथा नेत्रों के नाना अनुभवों से ज्ञान-वृद्धि करने लगता है। घर की गरीबी, योग्य शिक्षक का अभाव, अनुकूल व्यवस्था की कमी होने पर बच्चे का मानस विकास उचित गति से नहीं चल पाता।
मैडम मौन्टेसरी नामक बाल शिक्षण विशेषज्ञा का कथन है कि तीन से छह वर्ष की आयु में बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है किन्तु शिक्षण का संस्कार बालक की स्वयं प्रवृत्ति पर ही सध सकता है, अर्थात् उसके स्वप्रयत्न पर ही निर्भर होता है। उसके अतिरिक्त बच्चा चरित्र के विकास के लिए भी योग्य बन जाता है, पर इस आयु में बालक अपने द्वारा ही विकास की बातों को ग्रहण कर सकता है। ये तत्व उस पर लादे नहीं जा सकते।
चरित्र एवं बच्चे के भावात्मक विकास के लिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को बच्चे के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए। वह हमारी आदतें, पूजा ढंग, भजन कीर्तन, शिष्टाचार, वस्त्र पहनने के तरीके, स्नान, भोजन के ढंग कुछ-कुछ सीख सकता है। छह वर्ष का बालक आज्ञा द्वारा नीति की भी कई बातें सीख सकता है। इस आयु में बालक सबसे अधिक शब्द मांगता है। माता पिता को चाहिए कि उसे अच्छे से अच्छे शब्द सीखने के लिए दें। उच्च महापुरुषों के नाम, उनके अनेक मित्र, शहरों के नाम, नये-नये फलों, तरकारियों, वस्तुओं के नाम उच्चारण करने में उसे विशेष उत्साह प्राप्त होता है। तीन से छह वर्ष की आयु में प्रत्यक्ष वस्तुओं द्वारा नाना वस्तुओं के नाम सिखाना चाहिए।
इस आयु में बालक की कल्पना शक्ति भी क्रमशः विकास पथ पर होती है। अतः परियों, जादू की कहानियां, अद्भुत वस्तुओं के विषय में बातचीत में वे विशेष रस लेते हैं। ज्यों-ज्यों अनुभव वृद्धि होती है, इसी कल्पना द्वारा बालक अपने ज्ञान की वृद्धि करता है। परिस्थिति से अनुभव प्राप्त कर कल्पना को जोड़ कर वह सांसारिक ज्ञान बढ़ाता है। नवीन बातों की जिज्ञासा उसके मन में उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है। वह आस-पास के व्यक्तियों से नाना प्रकार के कौतूहल जनक प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा शान्त करना चाहता है।
सावधान! बच्चे के ये प्रश्न उसके भावी सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी विकास में बड़ा महत्व रखते हैं। इन प्रश्नों का दम कदापि न करें। उन्हें ऐसे उत्तर दें जिसे वह ग्रहण कर सकें और उनकी जिज्ञासा-तृप्त हो सके। उत्तर देते समय तीन बातें स्मरण रखिये। (1) बाल मानस का ज्ञान, (2) परिस्थितियों की जानकारी, (3) विषय को सरलतम बनाकर समझाने की कला। शंकाओं को इस प्रकार निवारण करें कि बच्चे की उलझनें स्पष्ट हो जांय तथा वह पूर्ण संतुष्ट हो जाय।