
छः से दस वर्ष की अवस्था तक विकास
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इस अवस्था में मानसिक, बौद्धिक तथा शारीरिक सर्वांगीण विकास तीव्रगति से होता है। आश्चर्यजनक कौतूहलप्रद कहानियों, वस्तुओं का वर्णन, देश विदेश का ज्ञान इत्यादि उसे रुचिकर प्रतीत होता है। एक चतुर पिता को निम्न उपायों से बाल विकास करना चाहिए।
उन्हें पढ़ने के लिए सरल, सचित्र, कौतूहल वर्द्धक ज्ञान प्रदान करने वाला बाल साहित्य पढ़ने के लिए देना चाहिए। कहानी बच्चों को सर्वाधिक प्रिय होती हैं। बालक, चुन्नू मुन्नू, बाल सखा, चन्दा मामा—इत्यादि बच्चों के सुन्दर मासिक पत्र प्रकाशित होते हैं। प्रत्येक पिता अपने बच्चे के लिए इनमें से कुछ चुन कर अपने बाल-बच्चों के लिए मंगा सकते हैं।
बच्चों के लिए छोटे-छोटे एकांकी नाटक उनसे अभिनय कराये जांय। अभिनय करने में उन्हें विभिन्न पात्रों की स्पीचें स्मरण करनी पड़ती हैं। यह ज्ञान बाद में उन्हीं का बन जाता है। जब बच्चे इनका अभिनय करते हैं तो उन्हें महापुरुषों के विचार, कार्य एवं चरित्र सम्बन्धी अनेकों बातों की जानकारी प्राप्त होती है।
वैराइटीशो के द्वारा मन्द बुद्धि के बच्चों को अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। छोटे-छोटे कवि सम्मेलन संगीत सम्मेलन भी कराये जा सकते हैं।
खेल, विकास का सर्वोत्कृष्ट साधन है। कारण, बच्चे खेल ही खेल में नियन्त्रण, अंग संचालन, अपनी पार्टी के प्रति प्रेम, संगठन, धैर्य और उत्साह की शिक्षा प्राप्त करते हैं। बड़ों का आज्ञा पालन भी सीखते हैं।
बाजों पर संगीत का अभ्यास करना चाहिए। संगीत, भजन, सामूहिक कीर्तन, पूजन, देवताओं के चित्रों का भी बच्चों पर बड़ा पवित्र प्रभाव पड़ता है। अवकाश के समय उन्हें मंदिरों की सैर कराई जा सकती है।
बच्चों को सैर के लिये नये-नये स्थानों, प्राकृतिक दृश्यों, पर्वतों, बाग, सरिता तटों पर ले जाकर उनका भूगोल संबंधी ज्ञान विकसित करना चाहिए। यदि कहीं चिड़ियाघर या अजायबघर हो, तो उन्हें उसकी सैर करानी चाहिए। कुछ छोटे जानवर जैसे बतख, कबूतर, मैना, कुत्ता, बिल्ली, तोता, हिरन इत्यादि घर पर पाले जा सकते हैं।
चित्रकारी की अभिरुचि उत्पन्न कीजिये। इसके लिये प्रारम्भिक अभ्यास स्लेट पर चित्र बनाकर कराया जा सकता है। चटकीले रंगों वाले चित्रों को बच्चे विशेष रूप से पसन्द करते हैं। बच्चों को रेखाचित्र खींच कर दीजिये और उन्हें रंग भरने दीजिये। रंगों का विवेक उनकी जिज्ञासा एवं रुचि को परिष्कृत करेगा।
बालक की शिक्षा वातावरण से प्रारम्भ होती है। आप ऐसा वातावरण एकत्रित करें जिसमें बच्चे में व्यक्तित्व के नाना गुण, उसकी शारीरिक, मानसिक, कलात्मक, सांस्कृतिक काव्य सम्बन्धी आवश्यकताएं आसानी से पूर्ण हो जायें। बालक के सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उसे कुछ न कुछ सिखाये। सिखाने की मनोवैज्ञानिक रीति स्वयं उस कार्य को करना है जिन्हें आप बालकों को सिखाना चाहते हैं।
बात-चीत का ढंग, सोने-उठने-बैठने, घर का साधारण कार्य करने, शिष्टाचार, छोटी-छोटी वस्तुएं खरीदना, पाठ-पूजा भजन, कीर्तन, शरीर की सफाई, जिम्मेदारी, शिक्षा आप स्वयं इन कार्यों को उनके सामने आदर्श रूप से करें। वे आपका अनुकरण करेंगे। ज्यों-ज्यों एक-एक आदत सीखी जाय, बच्चे का खूब प्रोत्साहन करते चलें।
हमारा देश धर्म प्रधान है। भारत की आध्यात्म प्रधान संस्कृति में बालक का विद्या काल आश्रम के पावन वातावरण में व्यतीत होता था, जहां जीवन के पवित्र संस्कार बच्चे पर पड़ते थे। दुर्भाग्य से आश्रमों का पावन जीवन अब नहीं है पर आप चाहें तो बच्चे के लिये घर पर ही वैसा पवित्र शान्त आनन्दमय वातावरण उपस्थित कर सकते हैं। निर्दयता वह शत्रु है जो बालक के कोमल मन पर घातक प्रभाव छोड़ता है। अतः डाट फटकार, मार-पीट, शुष्कता, गालियां, डाटना, दबाना—इन शत्रुओं से बचे रहें। गुरुजन भी विकृत ताड़ना से बचें।
बच्चों को जीवन के सम्पर्क में लाइये। स्वयं बाजार ले जाइये और नाना वस्तुओं, व्यक्तियों, जानवरों, स्थानों से परिचित कराइये। बाग में ले जाकर स्वयं पौधों, फूलों, कांटों, पत्तियों से परिचित कराइये। पक्षी पालकर उन्हें पक्षी जगत् एवं पशुविज्ञान से जानकारी कराइये।
उन्हें पढ़ने के लिए सरल, सचित्र, कौतूहल वर्द्धक ज्ञान प्रदान करने वाला बाल साहित्य पढ़ने के लिए देना चाहिए। कहानी बच्चों को सर्वाधिक प्रिय होती हैं। बालक, चुन्नू मुन्नू, बाल सखा, चन्दा मामा—इत्यादि बच्चों के सुन्दर मासिक पत्र प्रकाशित होते हैं। प्रत्येक पिता अपने बच्चे के लिए इनमें से कुछ चुन कर अपने बाल-बच्चों के लिए मंगा सकते हैं।
बच्चों के लिए छोटे-छोटे एकांकी नाटक उनसे अभिनय कराये जांय। अभिनय करने में उन्हें विभिन्न पात्रों की स्पीचें स्मरण करनी पड़ती हैं। यह ज्ञान बाद में उन्हीं का बन जाता है। जब बच्चे इनका अभिनय करते हैं तो उन्हें महापुरुषों के विचार, कार्य एवं चरित्र सम्बन्धी अनेकों बातों की जानकारी प्राप्त होती है।
वैराइटीशो के द्वारा मन्द बुद्धि के बच्चों को अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। छोटे-छोटे कवि सम्मेलन संगीत सम्मेलन भी कराये जा सकते हैं।
खेल, विकास का सर्वोत्कृष्ट साधन है। कारण, बच्चे खेल ही खेल में नियन्त्रण, अंग संचालन, अपनी पार्टी के प्रति प्रेम, संगठन, धैर्य और उत्साह की शिक्षा प्राप्त करते हैं। बड़ों का आज्ञा पालन भी सीखते हैं।
बाजों पर संगीत का अभ्यास करना चाहिए। संगीत, भजन, सामूहिक कीर्तन, पूजन, देवताओं के चित्रों का भी बच्चों पर बड़ा पवित्र प्रभाव पड़ता है। अवकाश के समय उन्हें मंदिरों की सैर कराई जा सकती है।
बच्चों को सैर के लिये नये-नये स्थानों, प्राकृतिक दृश्यों, पर्वतों, बाग, सरिता तटों पर ले जाकर उनका भूगोल संबंधी ज्ञान विकसित करना चाहिए। यदि कहीं चिड़ियाघर या अजायबघर हो, तो उन्हें उसकी सैर करानी चाहिए। कुछ छोटे जानवर जैसे बतख, कबूतर, मैना, कुत्ता, बिल्ली, तोता, हिरन इत्यादि घर पर पाले जा सकते हैं।
चित्रकारी की अभिरुचि उत्पन्न कीजिये। इसके लिये प्रारम्भिक अभ्यास स्लेट पर चित्र बनाकर कराया जा सकता है। चटकीले रंगों वाले चित्रों को बच्चे विशेष रूप से पसन्द करते हैं। बच्चों को रेखाचित्र खींच कर दीजिये और उन्हें रंग भरने दीजिये। रंगों का विवेक उनकी जिज्ञासा एवं रुचि को परिष्कृत करेगा।
बालक की शिक्षा वातावरण से प्रारम्भ होती है। आप ऐसा वातावरण एकत्रित करें जिसमें बच्चे में व्यक्तित्व के नाना गुण, उसकी शारीरिक, मानसिक, कलात्मक, सांस्कृतिक काव्य सम्बन्धी आवश्यकताएं आसानी से पूर्ण हो जायें। बालक के सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उसे कुछ न कुछ सिखाये। सिखाने की मनोवैज्ञानिक रीति स्वयं उस कार्य को करना है जिन्हें आप बालकों को सिखाना चाहते हैं।
बात-चीत का ढंग, सोने-उठने-बैठने, घर का साधारण कार्य करने, शिष्टाचार, छोटी-छोटी वस्तुएं खरीदना, पाठ-पूजा भजन, कीर्तन, शरीर की सफाई, जिम्मेदारी, शिक्षा आप स्वयं इन कार्यों को उनके सामने आदर्श रूप से करें। वे आपका अनुकरण करेंगे। ज्यों-ज्यों एक-एक आदत सीखी जाय, बच्चे का खूब प्रोत्साहन करते चलें।
हमारा देश धर्म प्रधान है। भारत की आध्यात्म प्रधान संस्कृति में बालक का विद्या काल आश्रम के पावन वातावरण में व्यतीत होता था, जहां जीवन के पवित्र संस्कार बच्चे पर पड़ते थे। दुर्भाग्य से आश्रमों का पावन जीवन अब नहीं है पर आप चाहें तो बच्चे के लिये घर पर ही वैसा पवित्र शान्त आनन्दमय वातावरण उपस्थित कर सकते हैं। निर्दयता वह शत्रु है जो बालक के कोमल मन पर घातक प्रभाव छोड़ता है। अतः डाट फटकार, मार-पीट, शुष्कता, गालियां, डाटना, दबाना—इन शत्रुओं से बचे रहें। गुरुजन भी विकृत ताड़ना से बचें।
बच्चों को जीवन के सम्पर्क में लाइये। स्वयं बाजार ले जाइये और नाना वस्तुओं, व्यक्तियों, जानवरों, स्थानों से परिचित कराइये। बाग में ले जाकर स्वयं पौधों, फूलों, कांटों, पत्तियों से परिचित कराइये। पक्षी पालकर उन्हें पक्षी जगत् एवं पशुविज्ञान से जानकारी कराइये।