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Books - मनचाही सन्तान

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


बच्चों की शक्तियों का विकास कैसे करें?

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बाल शिक्षण का मनोवैज्ञानिक उद्देश्य यह है कि बच्चों को संसार की कर्मस्थली में आने के लिये तैयार किया जाय। संसार कठोर कार्य क्षेत्र से भरा हुआ है। पग-पग पर हमें कष्ट और संघर्षों का सामना करना पड़ता है। बच्चे के मन में भी क्रमशः कार्य क्षेत्र की भावना, जिम्मेदारी और माता-पिता की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के विषय में जानकारी उत्पन्न होनी चाहिए।

बच्चों को स्वाधीन बनाइये—

आवश्यकता इस बात की है कि आप बच्चों को ऐसी शिक्षा प्रदान करें कि वे आप पर अनावश्यक रूप से निर्भर न रहें, वरन् स्वयं अपने हाथों से निज कार्य सम्पन्न करते चलें। प्रायः देखा जाता है कि बच्चे जरा-जरा सी बात के लिए माता-पिता, भाई, बहिन अथवा नौकरों के ऊपर मुहताज होते हैं, स्वयं कुछ नहीं कर पाते। माता-पिता को ही उनके दैनिक कार्य, जैसे स्नान के पश्चात् कपड़े धोना, स्नान कराना, बिस्तर लगाना, भोजन में सहायता करना, बाल ठीक करना इत्यादि छोटे-बड़े कार्य करने पड़ते हैं। बड़े घरों में तो बालक एक गिलास जल भी स्वयं अपने हाथ से लेकर नहीं पी सकते, अपने जूतों पर पालिश या वस्त्रों को ब्रुश से साफ नहीं कर सकते, यदि घर में झाड़ू, कमरे की सफाई अथवा भोजन बनाने का कार्य पड़ जाय, तो वे विफल होते हैं।

चतुर माता-पिता को प्रारम्भ से ही इन कमजोरियों को दूर करने में सतर्क रहना चाहिए। बच्चों को स्वयं काम करने की आदत डालकर आप उनमें आत्म विश्वास और स्वावलम्बन उत्पन्न करते हैं, संसार के कर्म क्षेत्र के लिए उन्हें मजबूत बनाते हैं। स्वयं न कर बच्चों को इस युक्ति से प्रोत्साहित कीजिये कि उन्हें अपने कार्य करने में आनन्द आये। वे खुद स्नान करें, वस्त्रों को सम्हालें, कपड़े धोएं, तौलिया स्वच्छ रखें, कंघी स्वयं करें, दांत मंजन करना न भूलें, बिस्तर स्वयं बिछायें स्वयं उठायें, स्कूल से आकर जूते और वस्त्र बदल डालें, अपनी पुस्तकों कापियों तथा पठन-पाठन संबंधी अन्य सामग्रियों को यथा स्थान सुरक्षित रखें। संक्षेप में, अपने अधिक से अधिक कार्य वे स्वयं करें।

धीरे-धीरे उत्तरदायित्व का विकास करने के लिये यह भी आवश्यक है कि उनसे घर के मामलों में राय ली जाय। जिम्मेदारी अनुभव करने वाला बच्चा न चोरी करेगा, न अनुचित पैसों की लम्बी चौड़ी मांगें ही पेश करेगा। बच्चे स्वयं चाहते हैं कि परिवार के मामलों में दिलचस्पी लें, किन्तु हम स्वेच्छाचार से उनकी बात पर ध्यान नहीं देते।

बच्चे के गर्व को प्रोत्साहित कीजिए—

बच्चे को यह अनुभव करने दीजिये कि घर में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। बच्चे का गर्व फुला दीजिये। उसे इस बात के गर्व का आनन्द अनुभव करने दीजिए कि परिवार में उसका सम्मान होता है। गर्व की रक्षा करने वाले माता-पिता का बच्चा सदैव परिवार के सम्मान की रक्षा करता है। इससे बच्चे का आत्म विश्वास बढ़ता है। बच्चों को अपने हाथ, अपने उद्योग और परिश्रम से चीजें, खिलौने, तस्वीरें, कढ़ाई बुनाई या सिलाई का कार्य करने में विशेष आनन्द का अनुभव होता है। चतुर माता-पिता को बच्चों की इस स्वाभाविक रचनाशीलता, कार्य करने की प्रवृत्ति, सृजनात्मक शक्ति को जागृत करना चाहिए।

बच्चे का दर्प जाग्रत करने से वह किस प्रकार स्वयं अपने को ऊंचा उठाता है, इसका एक उदाहरण डेल कार्नेगी ने अपनी पुस्तक में इस प्रकार दिया है—

‘‘मेरे ट्रेनिंग कोर्स का एक विद्यार्थी अपने छोटे बालक के कारण चिन्तित रहता था। बालक की तोल कम थी और वह भली प्रकार खाना न खाता था। उसके माता पिता डांटते-फटकारते और दोष निकालते, पर बच्चे ने उनकी बात पर ध्यान न दिया। पिता ने अपने मन में कहा कि मुझे यह जानना चाहिए कि आखिर यह बच्चा चाहता क्या है? उसके लड़के के पास एक तीन पहियों की साइकिल थी, जब वह उस साइकिल पर चढ़ कर घर के सामने की सड़क पर जाता था, तो एक बड़ा दुष्ट लड़का उसकी साइकिल छीन कर स्वयं उस पर चढ़ता था। स्वभावतः छोटा बालक चिल्लाता हुआ घर आता था और मां को उस दुष्ट से बच्चे की रक्षा करनी पड़ती थी। छोटा लड़का क्या चाहता था? उसका अभिमान, उसका क्रोध, महत्व की भावना के लिये उसकी इच्छा—उसकी रचना में जितने भी प्रबल आवेग थे, वे सब उसे उस दुष्ट से बदला लेने के लिए उत्तेजित करते थे। पिता ने इसी भावना को उत्तेजित कर बच्चे का सुधार शुरू किया। उन्होंने कहा कि तुम पौष्टिक वस्तुएं खाओगे, तब मजबूत बन कर उस दुष्ट को हरा सकोगे। जब बच्चे के मन में यह बात बैठ गई तो उसके खान-पान की समस्या तुरन्त हल हो गई। लड़का दूध, दही, फल, साग, अण्डे इत्यादि सब कुछ खाने लगा, जिससे मजबूत बन कर उस दुष्ट की मरम्मत कर सकें, अपने अपमान का बदला ले सके।

उस समस्या के हल हो जाने के बाद पिता ने एक दूसरी समस्या को पकड़ा। बालक को बिछौने पर पेशाब कर देने की बुरी आदत थी। वह अपनी दादी के साथ सोया करता था। सवेरे उठ कर उसकी दादी चादर को भीगी पाती थी। वह कहती थी—‘‘देखो जौन, तुमने रात फिर क्या कर दिया।’’

बालक उत्तर देता—‘‘नहीं, मैंने नहीं किया। तुमने किया है।’’ डाट-फटकार, थप्पड़, तमाचा, लज्जित करना, बार-बार तिरस्कार, क्रोध, नाराजगी, उपदेश का कोई प्रभाव न पड़ा। इसलिए माता पिता ने कार्नेगी साहब से पूछा कि ‘‘हम क्या करें?’’ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के बाद भिन्न कार्य किये गये।

उसकी आवश्यकताएं क्या क्या थीं? प्रथम, वह दादी की भांति गागरा पहनने के स्थान पर रात्रि को पिता की भांति पायजामा पहन कर सोना चाहता था। दादी उसकी आदत से तंग आ चुकी थी। इसलिए उसे शरीफ बड़े व्यक्तियों की तरह पायजामा पहनने को दिया। बच्चे में बड़प्पन की भावना दृढ़ होने लगी। उसकी दूसरी मांग थी एक अलग साफ बिछौना। दादी ने उस पर आपत्ति नहीं की।

उसकी माता उसे एक बड़ी दुकान पर ले गई। वहां जो लड़की वस्तुएं बेचने पर नियुक्ति थी, उसकी ओर आंख का इशारा करके उसने कहा—‘‘यह छोटे महाशय आपके यहां से कुछ वस्तुएं खरीदना चाहते हैं।’’

लड़की ने बच्चे के दर्प और महत्ता की भावना को उत्तेजित किया। वह यह नहीं जानती थी कि बच्चा अपने स्वाभिमान की रक्षा चाहता है। उसने यह कह कर उसे महत्ता का अनुभव कराया, ‘‘तरुण महाशय, मैं आपको क्या दिखलाऊं?’’

बच्चा अभिमान से फूल उठा और घमण्ड से बोला—‘‘मैं अपने लिए एक बिछौना खरीदना चाहता हूं।’’ उसे एक बिछौना खरीद दिया गया। बच्चे को अपने बिस्तर से ऐसा प्रेम हुआ कि उस पर कभी उसने मूत्र नहीं किया। लड़के ने अपने स्वाभिमान की रक्षा की। यह उसका अपना बिछौना था, उसने स्वयं उसे खरीदा था। वह युवा की भांति आचरण करना चाहता था। और उसने ऐसा ही किया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि बच्चे चाहते हैं कि उनसे शिष्टतापूर्ण व्यवहार किया जाय, उनका आत्माभिमान उकसाया जाय, उनकी तारीफ की जाय। जहां डाट फटकार, फुसलाहट, प्यार दुलार व्यर्थ हो जाता हो, वहां बच्चे में गर्व को जगाकर सुधार करना चाहिये।

यौवन का प्रभात तथा सावधानी—

बालक के जीवन में 14 से 21 वर्ष के मध्य की अवस्था बड़ी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें बचपन छूटता है तथा यौवन का प्रभाव खिलता है। लड़के और लड़कियों में यौवन सम्बन्धी अनेक प्रकार के आन्तरिक एवं बाह्य विकास होते हैं। इस वय में संगति का बड़ा प्रभाव पड़ता है। आवारा लड़कों की संगति में पड़कर बड़े घर के बालक भी गन्दी आदतों के शिकार बन जाते हैं, गाली गलौज करते, बदतमीजी करते, वेश की ओर से लापरवाह हो जाते हैं। बालकों के आवारा बनने का एक कारण यह भी है कि उन्हें घर पर पर्याप्त प्रेम, सौहार्द, महत्ता और मनोरंजन के अवसर नहीं प्राप्त होते हैं, घर पर या तो कोई फिक्र नहीं करता या बहुत कम करता है। वे गलियों में आवारा लड़कों के साथ रहते हैं तथा वैसी ही आदतें सीखते चलते हैं।

अनेक माता-पिता बालकों की इस चढ़ती हुई अवस्था में की गई शरारतों को बड़ी कठोरता, डाट फटकार से सुधारने का प्रयत्न करते हैं। माता प्रायः क्रोध की उत्तेजना में आकर जली-कटी बातें सुनाती हैं, कुछ व्यक्ति मारपीट कर बैठते हैं। कटुता, संघर्ष और क्रोध के इस वातावरण में नया युवक घर से अतृप्त होकर सदा के लिये उसे छोड़ देता है। उद्विग्नता को बुरा प्रभाव बालक के भावी जीवन पर पड़ता है। बालक भी क्रोध, घृणा, भय, ईर्ष्या, विकारों से आक्रान्त होते हैं तथा ये मनोविकार शीघ्रता से मानसिक और शारीरिक बीमारियों में परिणत हो जाते हैं। माता-पिता या शिक्षक की असावधानी से (1) भयानक स्वप्न देखना, (2) अकेले रहने से डरना, (3) अन्धकार से डरना, (4) याद किया हुआ पाठ भूल जाना, (5) स्वप्न में उठ कर घूमना, (6) सबसे चिढ़ना (7) घर के सामान को तोड़ना (8) आग से खेलना, (9) घर से भाग जाना इत्यादि मानसिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं। प्रेम, आत्मविश्वास, निर्भयता के वातावरण से इन्हें दूर किया जा सकता है।
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