
बच्चों की दुर्बलताएं तथा सुधार
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बच्चा अपराध क्यों करता है? इसके उत्तर में यह कहना अनुचित न होगा कि प्रवृत्ति परिस्थिति और वंश परम्परा दोनों पर निर्भर है। अपराधी बच्चों के पास रहते-रहते अच्छे बच्चे भी प्रायः अपराधी बन जाते हैं। अनुपयुक्त वातावरण, अत्यधिक लालच, अन्तर्मन में छुपी हुई गुप्त इच्छाएं, अनुवांशिक न्यूनता और मानसिक संघर्ष ही अपराध के मुख्य कारण हैं। श्री एल.ए. एवरिल के मतानुसार उनकी पुस्तक ‘‘एडोलोसेन्स’’ में अपराध के निम्न कारण बतलाये गये हैं—
(1) साहसिक कार्यों को करने की अभिलाषा — यौवन के प्रारम्भ में सनसनी पूर्ण, भयावह तथा साहसिक प्रवृत्तियों का प्राधान्य होता है। युवक प्रारम्भ से ही दंगा-फसाद, हुड़दंगबाजी या शरारत की ओर प्रेरित होते हैं। (2) बाहर के अनुभवों का वैषम्योत्पादक प्रभाव — बाहर के मित्रों के दलों की घनिष्ठता, प्रेम, मजेदारी, घरेलू जीवन को अप्रिय बना देती है। घर पर कोई साहसिक कार्य करने का मौका नहीं मिलता। इसलिये बाहर जाकर अपराध किया जाता है। (3) बुरे की संगति से बुराई की उत्पत्ति — गुट्ट के जीवन के असर से बढ़कर अपराध की भावना को प्रेरित करने वाली अन्य कोई वस्तु नहीं है। (4) महत्ता की इच्छा, गुनहगार की महत्ता, सुगमता से धन पाने की इच्छा, उबा देने वाला आलस्य, अत्यधिक कामेच्छा इत्यादि कारणों से अपराध में प्रवृत्ति हो जाती है।
अपराधी युवक से घबराने के स्थान पर बड़ी शान्ति एवं प्रेम से उसका सुधार करना चाहिये। उत्तेजित या निराश होने से कोई कार्य न हो सकेगा। डाट फटकार अपराध की अभिवृद्धि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकती।
सर्व प्रथम आप उसके प्रति अपना रुख बदल दीजिए। अर्थात् नाराजगी, क्रोध, आवेश के स्थान पर प्रेम, सहानुभूति और शान्ति को उपयोग में लाइये और इनको आप प्रयोग में ला रहे हैं, यह बात उस पर प्रकट होते रहने दीजिये। जब उसे यह ज्ञान हो जायगा कि आपका दृष्टिकोण बदल गया है, तो वह आपके समीप आने से नहीं डरेगा। बिगड़े हुए बालक में जो अच्छाइयां हैं उन्हें पहचानिये और उनकी खुले मुंह से प्रशंसा कीजिए। प्रशंसा की मिठाई पाकर वह उन्हीं गुणों को विकसित करेगा। ये सद्गुण बढ़कर बुराइयों पर हावी हो जायेंगे और खराबियां स्वयं अदृश्य हो जायेंगी।
माता-पिता को समय के अनुसार चलना चाहिये। यदि बच्चों में कुछ खराबियां भी हैं, तो उन्हें टालकर उनसे प्रेम करना चाहिए। मित्र भाव सर्वोत्कृष्ट रसायन है। माता-पिता को मित्र भाव का व्यवहार करना चाहिये। मित्रता का दृष्टिकोण धीरे-धीरे बालक के मन में खोया हुआ प्रेम और विश्वास उत्पन्न कर देता है।
माता-पिता को अपनी तबियत पर काबू रखना चाहिये और बालक के विवेक, बुद्धि, इत्यादि को स्वयं विकसित होने देने का अवसर प्रदान करना चाहिये। अधिक डाटना फटकारना अनुचित है। प्रेम भाव से धीरे-धीरे उसमें सुधार करें। जैसे-जैसे सुधार का कुछ भी फल प्राप्त हो, बच्चे की प्रशंसा और प्रोत्साहन करना चाहिये। प्रशंसा स्पष्ट रूप से खुल कर करें और मुक्त कंठ से करें। प्रशंसा का पुरस्कार पाकर बच्चा स्वयं आपकी ओर उन्मुख होगा तथा जिन गुणों, आदतों, व्यवहार के लिये आप उसकी प्रशंसा करते हैं, उन्हीं को उत्तरोत्तर विकसित करेगा स्मरण रखिए, आपकी प्रत्येक प्रशंसा भरी मुस्कान तथा प्रोत्साहन का अभिप्राय यही होगा कि वह आपकी प्रशंसा पाने के लिए उन्हीं गुणों को स्वयं विकसित करेगा। बच्चे प्रशंसा की मिठाई का लाभ संवरण नहीं कर पाते।
घर का वातावरण यथासम्भव मधुर बनाइये। प्रत्येक व्यक्ति बिगड़े बच्चे से शिष्टता तथा सौहार्द का व्यवहार करे। बच्चे के मन में कुटुम्बियों के प्रति जो कटुता का भाव है, वह दूर हो जाना चाहिए, जिससे वह सब में आत्म भाव का दर्शन करे सबमें प्रेम की प्रतिच्छाया का दर्शन करे।
बच्चे को कुछ उपयोगी कार्य दीजिए जिससे उसकी अधिक शक्ति उसके उपयोग में आ सके। शरारती बच्चे प्रायः अपनी बढ़ी हुई शक्ति को निकालने का मार्ग ढूंढ़ा करते हैं। जब उन्हें स्वस्थ और उपयोगी मार्ग नहीं प्राप्त होते, तब वे अनुपयोगी और गन्दे मार्गों द्वारा अपनी बढ़ी हुई शक्ति को निकालते हैं। यदि उन्हें स्वस्थ मार्ग (जैसे-खिलौने बनाना, पुस्तकें पढ़ना, संगीत, खेल, भ्रमण, कविता पाठ करना, चित्रकारी, फुलवारी) प्राप्त हो जांय और इनकी ओर कोई निरन्तर प्रोत्साहन देता रहे तो निश्चय ही ये उनके स्वभाव का 1 अंग बन जायेंगे और वे गंदगी का मार्ग त्याग देंगे। यदि बच्चा अनुपयोगी मार्गों में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है तो, इसमें अपराध माता-पिता का ही है, जो शक्ति के सही और स्वस्थ मार्गों की ओर बच्चों को उन्मुख नहीं करते हैं। वह कुसंगति में अनुचित मार्ग ढूंढ़ लेता है।
बच्चों की मानसिक ग्रंथियां—
बालक की भावनाएं सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण होती हैं और वे सरलता से ही उत्तेजित हो जाती हैं। कुछ बच्चों में विचार का अंश अधिक रहता है। कुछ का मन अनेक प्रकार की भावनाओं से ग्रसित रहता है कभी-कभी सारी शक्ति एक भावना में लग जाती है। दूसरे शब्दों में, वे इतने कोमल तथा संवेदनशील होते हैं कि साधारण-सी आलोचना, कुशब्द या डाट फटकार से भयंकर मानसिक कष्ट का मन ही मन अनुभव करते हैं। मानसिक विकास के अभाव में वे यह नहीं सोच पाते कि किस बात का कितना दुःख मानना चाहिये या कौन-कौन सी समस्याएं महत्वपूर्ण या क्षुद्र हैं। ग्रहण शक्ति की तीव्रता उनका दुर्गुण बन जाती है।
भावुकता जन्य ग्रंथियां—
अति भावुकता का भयंकर प्रभाव होता है। ग्रहणशील बच्चा अंदर ही अंदर मानसिक पीड़ा से घुलता रहता है, क्षुद्र सी बात को अपनी कल्पना से बढ़ा-चढ़ा कर देखता है, कुछ बच्चे घर छोड़ कर भागने का प्रयत्न करते हैं, कोई-कोई आत्महत्या जैसे गर्हित अपराध कर बैठते हैं। कभी-कभी चौदह पन्द्रह वर्ष के नवयुवक कामवासना के भड़कने से गन्दे मार्गों पर पड़ जाते हैं और हस्त मैथुन, गुदा मैथुन तथा अन्य कुत्सित आदतों के शिकार होते हैं। बाद में जब उन्हें अपनी कमजोरी का ज्ञान होता है तो पश्चाताप, आत्मग्लानि और नैराश्य में इतने डूब जाते हैं कि उनका जीवन एक लम्बी उदासी से परिपूर्ण हो जाता है। उनका किसी कार्य में जी नहीं लगता, दिन भर खोये-खोये से रहते हैं, समस्त उच्च आशाएं नष्ट हो जाती हैं। इनका कारण अधिक भावुकता ही है।
अधिक उदास, आत्मग्लानि से परिपूर्ण, दुःखी, अपने को अपराधी समझने वाला बच्चा विकसित होकर फूहड़ और मंद बुद्धि हो जाता है, उसकी प्रतिभा दब जाती है, आत्म विश्वास लुप्त हो जाता है, वह अपनी भावुकता को आलस्य से ढकने का प्रयत्न करता है। उसकी महत्वाकांक्षा नष्ट हो जाती है।
आपको चाहिये कि ऐसे बच्चों के विलुप्त आत्म विश्वास को पुनः स्थापित करें, यदि उनका आत्म विश्वास सो गया है तो उसे पुनः जाग्रत करने का प्रयत्न करें। पठन पाठन के लिए स्कूल जाने से पूर्व उसका आत्मविश्वास खूब उत्तेजित करें अन्यथा अपने सहपाठियों के मध्य वह शर्मिंदा रह कर आत्महीनता की ग्रंथि (अपने को छोटा समझने की आदत) का विकास कर लेगा। श्री दर्शन का कथन है, ‘‘शर्मीले भावुक बालक जब तक घर से ही तैयार करके न भेजे जांय, स्कूल के जीवन से बहुत घबराते हैं, क्योंकि उन पर स्कूल में की गई छोटी से छोटी नुक्ताचीनी भी उनके हृदय पर गहरा आघात करती है। बालक में आत्मविश्वास को उसी सीमा तक प्रोत्साहित करना चाहिए जहां तक कि वह उसकी अस्वाभाविक भावुकता को दूर करने में सहायता दे। ऐसा न हो कि उसकी मात्रा बालक में इतनी बढ़ जाय कि उसे शेखीखोरा बनादे।’’
आपको मध्य का मार्ग ही ग्रहण करना उचित है। न तो इतना अधिक प्रोत्साहन ही दीजिये कि बालक अनावश्यक रूप से उच्छृंखल बन जाय, न उसे इतना डांटिये फटकारिये ही कि वह अपने सहपाठियों के मध्य भी आत्महीनता का भाव अनुभव करे। स्मरण रखिये बालक के जिस प्रकार के मानसिक संवेद का दमन बाल्यकाल में होता है बालक की मानसिक ग्रंथि उसी प्रकार की होती है। भय, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, लज्जा, आत्मग्लानि इत्यादि सभी मनोविकार पृथक-पृथक अनेक जटिल मानसिक ग्रन्थियों की रचना करते हैं। शैशवावस्था के ये भय, लज्जा या आत्मग्लानि के संस्कार युवा तथा प्रौढ़ावस्था में विचलित होकर भिन्न-भिन्न प्रकार की जटिल मानसिक बीमारियों के कारण बन जाते हैं। फ्रायड के अनुसार प्रथम पांच वर्ष की अवस्था के जीवन की नाना हर्ष विषादमय घटनाएं बालक का मानसिक संस्थान बनाती या बिगाड़ती हैं। जो बालक शैशव में किसी वस्तु से भयभीत, शंकित, लज्जित या आत्मग्लानि से परिपूर्ण हो गया है उसका मानसिक विकास विचित्र प्रकार का होता है।
आत्महीनता की ग्रंथियां—
उदाहरण स्वरूप, आत्महीनता की ग्रन्थि को लीजिये। भौतिक कमी, विकृति, नाटापन, लंगड़ापन, कुरूपता, कानापन, सामाजिक छुटाई, जैसे-वर्ण की हीनता, माता पिता का नैतिक पतन, जारज होना, आर्थिक विपन्नता या हीन व्यवसाय के कारण इस प्रकार के बालकों को अपने साथियों द्वारा एक प्रकार का मानसिक आघात सहना पड़ता है। इस दुखद अनुभूति की पुनरावृत्ति होती चलती है, कई भाव वृत्तियों तथा मनोवेगों का दूषित संघर्ष सा चलता रहता है, जो उनको बाहरी जगत को प्रभावित करने की शक्ति प्रदान करता है। इस ग्रंथि के गुप्त प्रभाव के कारण बच्चा कुछ न कुछ सांकेतिक क्रियाएं किया करता है, जैसे सबसे न बोलना, अधिक शर्माना, कंधे हिलाना, आंखें नीची रखना, ओठ काटना, ओठों को पुनः चाटना, भागने की चेष्टा करना, एकान्त में रहने की इच्छा करना इत्यादि। जो बच्चे कठोर माता पिता अध्यापक या सौतेली माता के अनुशासन में रहते हैं, उनमें कायरता, भय, आत्मविश्वास शून्यता, अनावश्यक डरपोकपन, लज्जा, आलस्य और मानसिक नपुंसकता इत्यादि आ जाता है। बड़े होने परे ऐसे युवक श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं बन पाते हैं। ये व्यक्ति प्रायः अन्तर्मुखी वृत्ति के होते हैं।
डरने वाले बच्चे—
बालकों की मानसिक बीमारियों में भय की भावना ग्रंथि बड़ी विकट है। इसके फलस्वरूप बच्चे में कुछ रोगों की उत्पत्ति होती है जैसे भयानक स्वप्न देखना, अकेले रहने से डरना तथा सबसे चिढ़ना इत्यादि। भयानक स्वप्न देखने वाले बालकों को निर्भयता के वातावरण में रखना चाहिए। अवकाश के समय निर्भयता की पुष्टि करने वाली कहानियां, वीर पुरुषों की गाथाएं, ऐसे ही पवित्र चित्र दिखाने चाहिए, जिससे बालक के अंतर्मन से भय की ग्रन्थि टूट जाय। सोने से पूर्व उसे निर्भयता के संकेत दिये जाने चाहिये— ‘‘तुम वीर हो। तुम सब जगह विजयी होते हो। तुम्हें कोई हरा नहीं सकता। तुम बहादुर बच्चे हो। कौन तुम्हें हरा सकता है। तुम बड़े होकर महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, जैसे पुरुष बनोगे।’’ इस प्रकार के संकेतों को पुनः-पुनः दुहराने से बच्चे में खोया हुआ आत्म विश्वास जागृत हो जाता है। वीर भाव की वृद्धि करने वाले गीत गाकर सुनाना भी गुणकारी है।
अकेले में डरने वाले बालकों को प्रेम की अतृप्त इच्छा रहती है। जब बालक प्रेम का पूरा अंश प्राप्त कर लेता है, तो उसकी यह आदत स्वयं छूट जाती है। ज्यों-ज्यों बच्चे का आत्म विश्वास दृढ़तर होता जायगा, त्यों-त्यों इस ग्रंथि का दूषित प्रभाव कम होता जायगा। धीरे-धीरे उसके अवचेतन में स्वाभाविक निर्भय भावना आ जायगी। यदि अवचेतन के भय का, चेतन निर्भयता से सामंजस्य स्थापित कर दिया जाय, तो भय की ग्रन्थि का निराकरण स्वयं हो जाता है।
अन्धकार के डर को निकालने के लिए भी मन से अंधेरे के प्रति भय के भाव को निकालना चाहिये। गर्भवती स्त्री जब अन्धेरे में जाने से डरती है तो उसका बच्चा भी डरने लगता है। अतः पति को सदैव पत्नी को वीरतापूर्ण कहानियां ही सुनानी चाहिए। बच्चों को धीरे-धीरे, स्वयं उनके साथ अन्धेरे में रहकर, यह रोग दूर करना चाहिये। ‘‘स्वप्न में उठ कर घूमना’’ इस बीमारी का करण माता पिता के मध्य प्रेम न्यूनता है। घूमने कारण अतृप्ति है। बालक वातावरण से अतृप्त है। यह अतृप्ति उसके गुप्त मन में प्रविष्ट हो चुकी है। अतएव उस प्रेमपूर्ण व्यवहार हंसी खुशी के वातावरण में रखकर निकालना चाहिए। आपके सद्भाव पूर्ण व्यवहार तथा सहानुभूति से आन्तरिक संघर्ष की गुत्थियां सुलझ कर बच्चा गहरी निद्रा में से सकेगा।
भूलने वाले बच्चे—
पढ़ा हुआ पाठ भूल जाना यह बालकों की स्मरण शक्ति की निर्बलता का सूचक है। ऐसे बालकों का मन अति चलायमान होता है। किसी एक तत्व, विषय या पुस्तक पर वह एकाग्र नहीं हो पाता है। बालकों को प्रेम से पढ़ाने से तथा पुनः-पुनः एक ही बात का अभ्यास कराने से यह कमजोरी धीरे-धीरे दूर हो जाती है।
आवश्यकता इस बात की है कि आप बच्चे को मन्दबुद्धि का मानकर उसके साथ सहानुभूति का व्यवहार करें। प्यार और दुलार से उसे एक-दो बार तत्वों को भूलने पर भी पुनः सहानुभूति से समझा दें। कुछ शिक्षक पाठ को पढ़ाने में इतनी जल्दी करते हैं कि बालक का नन्हा-सा मन पाठ के मूल तत्वों को एक बार में ग्रहण नहीं कर पाता है, इतने ही में वे आगे चल देते हैं। बच्चे का मन पीछे रह जाता है। शिक्षक की इस भाग दौड़ में बच्चे की ग्रहणशक्ति निर्बल पड़ जाती है। उसकी स्मरण शक्ति पर इतना भार एकत्रित हो जाता है, जिसे वह पचा नहीं पाता। फलतः वे बच्चे पढ़ने लिखने में पिछड़ जाते हैं।
प्रत्येक बच्चे को विकास का पूर्ण अवसर दें और सहानुभूतिपूर्ण वातावरण उपस्थित करें। बच्चे को यथासंभव वही शिक्षा दी जाय जिसमें उसकी विशेष रुचि हो। अभिभावकगण अपने स्वार्थ के लिए बच्चे से अरुचि पूर्ण या ऐसा मोटा कार्य न करायें जो वह न कर सके। ऐसे बालक को, जिसमें कोई शारीरिक या मानसिक रोग हो विशेष प्रकार के अध्ययन, मनोरंजन, स्वस्थ भोजन तथा पर्याप्त विश्राम की सुविधाएं प्रदान किया करें, तो पिछड़े हुए बच्चे भी पर्याप्त विकास कर सकते हैं।
मन्द बुद्धि बच्चे विशेष देख-रेख, सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार और कुशल शिक्षकों की अपेक्षा करते हैं। उनके जो कुछ भी गुण हों, उनकी पर्याप्त प्रशंसा की जाय और सहानुभूति से उन्हें आगे बढ़ाया जाय। प्रायः लोग ऐसे बच्चों से ऊब जाते हैं। यह उचित नहीं है। घर का प्रत्येक व्यक्ति यदि उसको प्रोत्साहित करे तो वह भी अपना विकास कर लेता है, देर से ही सही।
चिढ़ने वाले बच्चे—
अनेक बालकों को चिढ़ने की आदत होती है। चिढ़ने वाला बालक अपना आत्म सम्मान खो बैठता है। बच्चा प्रायः जिस प्रेम, सहानुभूति, सौहार्द की आशा अपने परिवार से करता है, उसे नहीं पाता। उसके मन में आत्म अपमान की विषम वेदना निवास करती है। उसे उन व्यक्तियों से भारी घृणा होती है जो उसे चिढ़ाते हैं। वह स्वयं भी चिढ़कर उनका तिरस्कार करने का प्रयत्न किया करता है। जिन बालकों का समाज में पर्याप्त आदर नहीं होता, वे भी अन्तर की ठेस के कारण चिढ़ने लगते हैं। आरम्भ काल की कुचली हुई आत्म सम्मान की भावना कभी-कभी बड़े होने पर भी चलती रहती है। बात यह है जो व्यक्ति जिस भावना को दृढ़ता से अन्तर्मन में धारण कर लेता है और उत्तरोत्तर उसी का अनुभव करता चलता है, वैसा ही बनता जाता है। आत्म अपमान स्थायी घृणा के रूप में परिवर्तित होकर बच्चों को चिढ़ाने वाला बना देता है।
इस संबंध में प्रो. लालजीराम शुक्ल की सम्मति माननीय है, ‘‘अध्यापक तथा अभिभावक का कर्तव्य है कि बालक को ऐसी घटनाओं से सतर्क करता रहे, जिनसे उनका जीवन क्लेशमय हो जाने की सम्भावना है। यदि वे बालक की चेष्टाओं को सतर्कता से देखते रहे और उन्हें प्रशस्त मार्ग का अनुसरण कराते रहें, तो उनका वास्तविक आदर्श बना सकते हैं। मानसिक ग्रन्थि उदय होने का अवसर न देना चाहिए। यदि किसी प्रकार मानसिक ग्रन्थि का उदय हो जाय तो उसके दूर करने का उपाय करना चाहिए।’’ दूर करने का उपाय यह है कि उस भाव के विरोधी सद्गुण को प्रोत्साहित किया जाय। प्रेम, सहानुभूति और आत्म सम्मान की भावनाएं विकसित की जांय।
चोरी करने वाले बच्चे—
कुछ बालकों में चोरी की ग्रन्थि होती है। बाल्यावस्था में बालकों से छिपाकर रखने की मां-बाप की आदत, धीरे-धीरे उसमें भी आ जाती है। जिन बालकों को बाल्यावस्था में खाने खेलने या ओढ़ने पहनने के लिए पर्याप्त साधन प्राप्त नहीं होते उनकी ये इच्छाएं आन्तरिक मन में दलित अनुभूतियों के रूप में रहती हैं। वे फौरन चीजों को अनुचित साधनों से प्राप्त करना चाहते हैं। यह आदत चोरी बन जाती है।
श्री दौलतचन्द्र का विचार है, ‘‘जबसे बालक को यह ज्ञान होने लगता है कि अमुक वस्तु उसकी है, तभी से वह यह भी जानने लगता है कि अमुक वस्तु उसकी नहीं अथवा यह कि वह किसी दूसरे की है और इसको उसे नहीं लेना चाहिए। जो बालक बाद में चोरी करते हैं उनकी वस्तुएं पहले, जब वे शायद छोटे हों, बड़ों द्वारा जाने अथवा अनजाने में अनधिकार रूप से भी ली गई होती है। चोरी की आदत परिवार की आर्थिक कठिनाइयों व अभाव की स्थिति के कारण भी पड़ जाती है।’’
उपरोक्त कारणों में पर्याप्त तथ्य है। जिस बालक का विकास तंगी, अभाव, कमी या गरीबी में होता है, जो बालक दूसरों को अपने से अच्छा रहते हुए अच्छे वस्त्र पहनते हुए देखता है, वह अन्दर ही अन्दर उन चीजों को प्राप्त करने के लिए लालायित होता है। उसमें एक प्रकार की ईर्ष्या का भाव विकसित होता रहता है, जो चोरी की आदत में प्रकट होता है।
इस रोग को दूर करने के लिये ऐसा वातावरण उपस्थित करना चाहिये जिससे उसे दैनिक जीवन की आवश्यकताएं पूर्ण करने के समस्त साधन अनायास ही उपलब्ध होते रहें, वह जिन चीजों की कामना करता है, उसे स्वयं सबके सामने दे दीजिये। कुछ जेब खर्च भी दीजिये प्रेम से समझाइये और यथासम्भव अतृप्त न होने दीजिये।
जिद्दी बच्चों का सुधार—
जिद का प्रधान कारण बचपन में बालकों की उचित-अनुचित इच्छाओं की पूर्ति तथा अत्यधिक लाड़ प्यार है। बालकों को प्यार और सहानुभूति चाहिये, किन्तु इसकी अधिकता से बालक को एक प्रकार की मिथ्या आत्म-लघुता या बड़प्पन की भावना आ जाती है। वह अपने गुणों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर देखता है। यह एक प्रकार का मद है, जिसके सामने माता-पिता का व्यक्तित्व झुक जाता है।
हर बार जिद कर वह माता-पिता के हृदय में करुणा का संचार करता है, माता-पिता की अति भावुकता के कारण वह अनुचित बातों, घृणित आदतों, असंयम, अनियमितता और आनन्द की ओर बढ़ता जाता है। प्रत्येक जिद उसके मानसिक जगत में रहने वाला मस्तिष्क का एक मानसिक मार्ग है। पुनरावृत्ति से इन मार्गों की गहराई निरन्तर बढ़ती रहती है। जिद्दी बालक बड़े होकर माता पिता के लिये एक विषम समस्या बन जाते हैं।
सुधारने का सर्वप्रथम उपाय यह है कि अपने मन से झूंठी भावुकता, जो बालक का भविष्य बिगाड़ रही है, निकाल देनी चाहिए। उसकी अनुचित बातों को पूर्ण कभी न करें चाहे वह दिन भर मचलता रहे। दो चार बार सख्ती दिखाने से बालक को यह मालूम हो जायगा कि वह रोकर या जिद से आपको नहीं हरा सकता है। अतः वह यह आदत छोड़ देगा।
रोने से चुप करने के लिए किसी प्रकार की मिठाई, पैसा, खिलौना अथवा अन्य किसी वस्तु के रूप में रिश्वत या घूंस देकर बालक को चुप मत कीजिए। उसे रोने चिल्लाने दीजिये और चिल्लाहट को सहन कर अपनी दृढ़ता दिखाइए।
उसे समय पर भोजन, दूध या जो कुछ फल इत्यादि आप देते हैं, देते रहिए। अनियमित रूप से उन्हें खिलौने या उनकी फरमाइशें पूरी करने से उनकी जिद तो चलती रहती ही है, स्वास्थ्य भी नष्ट हो जाता है। बालक को चाट पकौड़ी या बाजार की चीजें खिलाना सच्चा ममत्व नहीं है बाल्यावस्था से ही उन्हें संयम का पाठ पढ़ाना उचित है। नियमितता और संयम से उनका चरित्र निर्माण होता है।
वातावरण बदलने का भी उत्तम प्रभाव पड़ता है। जिन माता-पिता के पास वह अधिक जिद करता है, उनसे दूर रखकर नये व्यक्तियों में निवास करने से बालक को अपनी जिद की निस्सारता और पूर्ति न होने का तथ्य ज्ञान हो जाता है। अतः जिद्दी बालक दूसरों के घर में रह कर प्रायः सुधर जाते हैं।
बालक को जिद करते समय उसे पूर्ण कर अपनी कमजोरी न दिखाइये।
यौन सम्बन्धी जटिलताएं—
अनेक ग्रंथियां बालकों की यौनगत भूलों से सम्बन्धित होती हैं। यों तो गुप्त अंगों में क्षणिक उत्तेजना प्रारम्भ से ही थोड़ी बहुत होती है, किन्तु बारह से चौदह वर्ष की आयु में यौवन का प्रभात आरम्भ हो जाता है। कभी-कभी माता-पिता बालक के शयन-कक्ष में ही वासना-निरत रहते हैं और जब बालक को सोता हुआ समझते हैं, तब वह चुपचाप उनकी प्रणय क्रीड़ा देखा करता है। उद्विग्नता और कौतूहल से भी उन्हें यौनगत उत्तेजनाएं प्राप्त होती हैं। हमारी वर्तमान शिक्षा संस्थाओं में अनेक घातक रोग फैल गये हैं। सुन्दर बालक और युवक एक दूसरे के साथ नितांत अवांछनीय रीति से गन्दा व्यवहार करते हैं। इनका सम्बन्ध कामुकता से भरा हुआ होता है। सिनेमा में गन्दे दृश्य देखते-देखते बाजारू युवक ऐसे खूबसूरत बच्चों की ताक में रहते हैं और उनके सम्पर्क में रहकर अपनी वासना शांत करने के दुष्प्रयत्न करते हैं। शिक्षालयों, बोर्डिंग हाउसों, सिपाहियों तथा बाजारों में युवकों और सुन्दर बच्चों का यह कामुकता पूर्ण दुर्व्यवहार चलता रहता है।
एडवर्ड कारपेण्टर, जे.ए. साइमाण्ड्स, वाल्ट व्हिटमेन हेवलाकएलिस आदि मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य की इस कामुकता जन्य निर्बलता का संकेत किया है। शिक्षकों तथा माता-पिताओं को बच्चों को ऐसे दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों से बचाना चाहिए। प्रत्येक स्कूल कालेजों में ऐसे कामुक पूर्ण प्रकृति वाले गुण्डे विद्यार्थियों का समुदाय रहता है जो खूबसूरत विद्यार्थियों को डराता धमकाता है जिससे वह इन शैतानों की गुट में सम्मिलित होकर उनकी कामवासना की पूर्ति का साधन बनें। ऐसे दुष्ट साथियों से बच्चों का सर्वनाश होता है, गुदा मैथुन से डरे हुए विद्यार्थियों में से यौवन की धीरता, दृढ़ता, साहस इत्यादि विलुप्त हो जाते हैं। जीवनी शक्ति का ह्रास होता है, अध्ययन में मन नहीं लगता और मेधाशक्ति विलुप्त हो जाती है। अतः ऐसे दुष्ट प्रकृति के सहपाठियों से अपने बच्चे की रक्षा कीजिए।
बच्चों को घृणित कामवासना की उत्तेजना करने वाले फिल्म न दिखलाइये। सिनेमा अभिनेत्रियों के चित्र मत खरीदने दीजिए। पान, सिगरेट, गाना, बनाव श्रृंगार की ओर मत झुकने दीजिए। यथा सम्भव उसे घर पर ही रखिये और घर को ऐसा अच्छा बनाइये कि उसका मनोरंजन घर पर ही हो सके। सद्-ग्रन्थ पढ़ने को दीजिए। प्रातःकाल भजन, पूजन इत्यादि की आदतों का शुरू से ही विकास प्रारम्भ करदें। श्रृंगार प्रधान नाटक, गन्दे उपन्यास, अश्लील कहानियां, घृणित चित्र और विषय सम्बन्धी कुरुचि पूर्ण गाने मुख से उच्चारण न होने दीजिये। स्त्रियों के साथ बातें करना, युवतियों की ओर ताकना पापी स्वभाव के लक्षण हैं। यथासम्भव आपके पुत्र को स्त्रियों के साथ खेलना अधिक बैठना, उठना, मनोविनोद करना, नीचतापूर्ण संकेत करना, गन्दी कविताएं स्मरण नहीं कराना चाहिए। उन्हें अच्छे से अच्छे व्यक्तियों की संगति में रखिये। सत्संग से निःसंग की प्राप्ति होती है, सद्विचार उत्पन्न होते हैं, सत्य, प्रेम, दया, उत्साह, महत्वाकांक्षा का यथार्थ ज्ञान तथा निश्चय होता है। तुलसी का वचन बड़ा मनोवैज्ञानिक है—‘‘शठ सुधरहिं सत् संगति पाई। पारस परसि कुधातु सुहाई।।’’ योगवशिष्ठ, गीता, रामायण, दासबोध, भागवत इत्यादि उपकारी ग्रन्थ सरल भाषा में उनके पास रख कर उनमें उनकी रुचि उत्पन्न करनी चाहिए।
(1) साहसिक कार्यों को करने की अभिलाषा — यौवन के प्रारम्भ में सनसनी पूर्ण, भयावह तथा साहसिक प्रवृत्तियों का प्राधान्य होता है। युवक प्रारम्भ से ही दंगा-फसाद, हुड़दंगबाजी या शरारत की ओर प्रेरित होते हैं। (2) बाहर के अनुभवों का वैषम्योत्पादक प्रभाव — बाहर के मित्रों के दलों की घनिष्ठता, प्रेम, मजेदारी, घरेलू जीवन को अप्रिय बना देती है। घर पर कोई साहसिक कार्य करने का मौका नहीं मिलता। इसलिये बाहर जाकर अपराध किया जाता है। (3) बुरे की संगति से बुराई की उत्पत्ति — गुट्ट के जीवन के असर से बढ़कर अपराध की भावना को प्रेरित करने वाली अन्य कोई वस्तु नहीं है। (4) महत्ता की इच्छा, गुनहगार की महत्ता, सुगमता से धन पाने की इच्छा, उबा देने वाला आलस्य, अत्यधिक कामेच्छा इत्यादि कारणों से अपराध में प्रवृत्ति हो जाती है।
अपराधी युवक से घबराने के स्थान पर बड़ी शान्ति एवं प्रेम से उसका सुधार करना चाहिये। उत्तेजित या निराश होने से कोई कार्य न हो सकेगा। डाट फटकार अपराध की अभिवृद्धि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर सकती।
सर्व प्रथम आप उसके प्रति अपना रुख बदल दीजिए। अर्थात् नाराजगी, क्रोध, आवेश के स्थान पर प्रेम, सहानुभूति और शान्ति को उपयोग में लाइये और इनको आप प्रयोग में ला रहे हैं, यह बात उस पर प्रकट होते रहने दीजिये। जब उसे यह ज्ञान हो जायगा कि आपका दृष्टिकोण बदल गया है, तो वह आपके समीप आने से नहीं डरेगा। बिगड़े हुए बालक में जो अच्छाइयां हैं उन्हें पहचानिये और उनकी खुले मुंह से प्रशंसा कीजिए। प्रशंसा की मिठाई पाकर वह उन्हीं गुणों को विकसित करेगा। ये सद्गुण बढ़कर बुराइयों पर हावी हो जायेंगे और खराबियां स्वयं अदृश्य हो जायेंगी।
माता-पिता को समय के अनुसार चलना चाहिये। यदि बच्चों में कुछ खराबियां भी हैं, तो उन्हें टालकर उनसे प्रेम करना चाहिए। मित्र भाव सर्वोत्कृष्ट रसायन है। माता-पिता को मित्र भाव का व्यवहार करना चाहिये। मित्रता का दृष्टिकोण धीरे-धीरे बालक के मन में खोया हुआ प्रेम और विश्वास उत्पन्न कर देता है।
माता-पिता को अपनी तबियत पर काबू रखना चाहिये और बालक के विवेक, बुद्धि, इत्यादि को स्वयं विकसित होने देने का अवसर प्रदान करना चाहिये। अधिक डाटना फटकारना अनुचित है। प्रेम भाव से धीरे-धीरे उसमें सुधार करें। जैसे-जैसे सुधार का कुछ भी फल प्राप्त हो, बच्चे की प्रशंसा और प्रोत्साहन करना चाहिये। प्रशंसा स्पष्ट रूप से खुल कर करें और मुक्त कंठ से करें। प्रशंसा का पुरस्कार पाकर बच्चा स्वयं आपकी ओर उन्मुख होगा तथा जिन गुणों, आदतों, व्यवहार के लिये आप उसकी प्रशंसा करते हैं, उन्हीं को उत्तरोत्तर विकसित करेगा स्मरण रखिए, आपकी प्रत्येक प्रशंसा भरी मुस्कान तथा प्रोत्साहन का अभिप्राय यही होगा कि वह आपकी प्रशंसा पाने के लिए उन्हीं गुणों को स्वयं विकसित करेगा। बच्चे प्रशंसा की मिठाई का लाभ संवरण नहीं कर पाते।
घर का वातावरण यथासम्भव मधुर बनाइये। प्रत्येक व्यक्ति बिगड़े बच्चे से शिष्टता तथा सौहार्द का व्यवहार करे। बच्चे के मन में कुटुम्बियों के प्रति जो कटुता का भाव है, वह दूर हो जाना चाहिए, जिससे वह सब में आत्म भाव का दर्शन करे सबमें प्रेम की प्रतिच्छाया का दर्शन करे।
बच्चे को कुछ उपयोगी कार्य दीजिए जिससे उसकी अधिक शक्ति उसके उपयोग में आ सके। शरारती बच्चे प्रायः अपनी बढ़ी हुई शक्ति को निकालने का मार्ग ढूंढ़ा करते हैं। जब उन्हें स्वस्थ और उपयोगी मार्ग नहीं प्राप्त होते, तब वे अनुपयोगी और गन्दे मार्गों द्वारा अपनी बढ़ी हुई शक्ति को निकालते हैं। यदि उन्हें स्वस्थ मार्ग (जैसे-खिलौने बनाना, पुस्तकें पढ़ना, संगीत, खेल, भ्रमण, कविता पाठ करना, चित्रकारी, फुलवारी) प्राप्त हो जांय और इनकी ओर कोई निरन्तर प्रोत्साहन देता रहे तो निश्चय ही ये उनके स्वभाव का 1 अंग बन जायेंगे और वे गंदगी का मार्ग त्याग देंगे। यदि बच्चा अनुपयोगी मार्गों में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है तो, इसमें अपराध माता-पिता का ही है, जो शक्ति के सही और स्वस्थ मार्गों की ओर बच्चों को उन्मुख नहीं करते हैं। वह कुसंगति में अनुचित मार्ग ढूंढ़ लेता है।
बच्चों की मानसिक ग्रंथियां—
बालक की भावनाएं सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण होती हैं और वे सरलता से ही उत्तेजित हो जाती हैं। कुछ बच्चों में विचार का अंश अधिक रहता है। कुछ का मन अनेक प्रकार की भावनाओं से ग्रसित रहता है कभी-कभी सारी शक्ति एक भावना में लग जाती है। दूसरे शब्दों में, वे इतने कोमल तथा संवेदनशील होते हैं कि साधारण-सी आलोचना, कुशब्द या डाट फटकार से भयंकर मानसिक कष्ट का मन ही मन अनुभव करते हैं। मानसिक विकास के अभाव में वे यह नहीं सोच पाते कि किस बात का कितना दुःख मानना चाहिये या कौन-कौन सी समस्याएं महत्वपूर्ण या क्षुद्र हैं। ग्रहण शक्ति की तीव्रता उनका दुर्गुण बन जाती है।
भावुकता जन्य ग्रंथियां—
अति भावुकता का भयंकर प्रभाव होता है। ग्रहणशील बच्चा अंदर ही अंदर मानसिक पीड़ा से घुलता रहता है, क्षुद्र सी बात को अपनी कल्पना से बढ़ा-चढ़ा कर देखता है, कुछ बच्चे घर छोड़ कर भागने का प्रयत्न करते हैं, कोई-कोई आत्महत्या जैसे गर्हित अपराध कर बैठते हैं। कभी-कभी चौदह पन्द्रह वर्ष के नवयुवक कामवासना के भड़कने से गन्दे मार्गों पर पड़ जाते हैं और हस्त मैथुन, गुदा मैथुन तथा अन्य कुत्सित आदतों के शिकार होते हैं। बाद में जब उन्हें अपनी कमजोरी का ज्ञान होता है तो पश्चाताप, आत्मग्लानि और नैराश्य में इतने डूब जाते हैं कि उनका जीवन एक लम्बी उदासी से परिपूर्ण हो जाता है। उनका किसी कार्य में जी नहीं लगता, दिन भर खोये-खोये से रहते हैं, समस्त उच्च आशाएं नष्ट हो जाती हैं। इनका कारण अधिक भावुकता ही है।
अधिक उदास, आत्मग्लानि से परिपूर्ण, दुःखी, अपने को अपराधी समझने वाला बच्चा विकसित होकर फूहड़ और मंद बुद्धि हो जाता है, उसकी प्रतिभा दब जाती है, आत्म विश्वास लुप्त हो जाता है, वह अपनी भावुकता को आलस्य से ढकने का प्रयत्न करता है। उसकी महत्वाकांक्षा नष्ट हो जाती है।
आपको चाहिये कि ऐसे बच्चों के विलुप्त आत्म विश्वास को पुनः स्थापित करें, यदि उनका आत्म विश्वास सो गया है तो उसे पुनः जाग्रत करने का प्रयत्न करें। पठन पाठन के लिए स्कूल जाने से पूर्व उसका आत्मविश्वास खूब उत्तेजित करें अन्यथा अपने सहपाठियों के मध्य वह शर्मिंदा रह कर आत्महीनता की ग्रंथि (अपने को छोटा समझने की आदत) का विकास कर लेगा। श्री दर्शन का कथन है, ‘‘शर्मीले भावुक बालक जब तक घर से ही तैयार करके न भेजे जांय, स्कूल के जीवन से बहुत घबराते हैं, क्योंकि उन पर स्कूल में की गई छोटी से छोटी नुक्ताचीनी भी उनके हृदय पर गहरा आघात करती है। बालक में आत्मविश्वास को उसी सीमा तक प्रोत्साहित करना चाहिए जहां तक कि वह उसकी अस्वाभाविक भावुकता को दूर करने में सहायता दे। ऐसा न हो कि उसकी मात्रा बालक में इतनी बढ़ जाय कि उसे शेखीखोरा बनादे।’’
आपको मध्य का मार्ग ही ग्रहण करना उचित है। न तो इतना अधिक प्रोत्साहन ही दीजिये कि बालक अनावश्यक रूप से उच्छृंखल बन जाय, न उसे इतना डांटिये फटकारिये ही कि वह अपने सहपाठियों के मध्य भी आत्महीनता का भाव अनुभव करे। स्मरण रखिये बालक के जिस प्रकार के मानसिक संवेद का दमन बाल्यकाल में होता है बालक की मानसिक ग्रंथि उसी प्रकार की होती है। भय, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, लज्जा, आत्मग्लानि इत्यादि सभी मनोविकार पृथक-पृथक अनेक जटिल मानसिक ग्रन्थियों की रचना करते हैं। शैशवावस्था के ये भय, लज्जा या आत्मग्लानि के संस्कार युवा तथा प्रौढ़ावस्था में विचलित होकर भिन्न-भिन्न प्रकार की जटिल मानसिक बीमारियों के कारण बन जाते हैं। फ्रायड के अनुसार प्रथम पांच वर्ष की अवस्था के जीवन की नाना हर्ष विषादमय घटनाएं बालक का मानसिक संस्थान बनाती या बिगाड़ती हैं। जो बालक शैशव में किसी वस्तु से भयभीत, शंकित, लज्जित या आत्मग्लानि से परिपूर्ण हो गया है उसका मानसिक विकास विचित्र प्रकार का होता है।
आत्महीनता की ग्रंथियां—
उदाहरण स्वरूप, आत्महीनता की ग्रन्थि को लीजिये। भौतिक कमी, विकृति, नाटापन, लंगड़ापन, कुरूपता, कानापन, सामाजिक छुटाई, जैसे-वर्ण की हीनता, माता पिता का नैतिक पतन, जारज होना, आर्थिक विपन्नता या हीन व्यवसाय के कारण इस प्रकार के बालकों को अपने साथियों द्वारा एक प्रकार का मानसिक आघात सहना पड़ता है। इस दुखद अनुभूति की पुनरावृत्ति होती चलती है, कई भाव वृत्तियों तथा मनोवेगों का दूषित संघर्ष सा चलता रहता है, जो उनको बाहरी जगत को प्रभावित करने की शक्ति प्रदान करता है। इस ग्रंथि के गुप्त प्रभाव के कारण बच्चा कुछ न कुछ सांकेतिक क्रियाएं किया करता है, जैसे सबसे न बोलना, अधिक शर्माना, कंधे हिलाना, आंखें नीची रखना, ओठ काटना, ओठों को पुनः चाटना, भागने की चेष्टा करना, एकान्त में रहने की इच्छा करना इत्यादि। जो बच्चे कठोर माता पिता अध्यापक या सौतेली माता के अनुशासन में रहते हैं, उनमें कायरता, भय, आत्मविश्वास शून्यता, अनावश्यक डरपोकपन, लज्जा, आलस्य और मानसिक नपुंसकता इत्यादि आ जाता है। बड़े होने परे ऐसे युवक श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं बन पाते हैं। ये व्यक्ति प्रायः अन्तर्मुखी वृत्ति के होते हैं।
डरने वाले बच्चे—
बालकों की मानसिक बीमारियों में भय की भावना ग्रंथि बड़ी विकट है। इसके फलस्वरूप बच्चे में कुछ रोगों की उत्पत्ति होती है जैसे भयानक स्वप्न देखना, अकेले रहने से डरना तथा सबसे चिढ़ना इत्यादि। भयानक स्वप्न देखने वाले बालकों को निर्भयता के वातावरण में रखना चाहिए। अवकाश के समय निर्भयता की पुष्टि करने वाली कहानियां, वीर पुरुषों की गाथाएं, ऐसे ही पवित्र चित्र दिखाने चाहिए, जिससे बालक के अंतर्मन से भय की ग्रन्थि टूट जाय। सोने से पूर्व उसे निर्भयता के संकेत दिये जाने चाहिये— ‘‘तुम वीर हो। तुम सब जगह विजयी होते हो। तुम्हें कोई हरा नहीं सकता। तुम बहादुर बच्चे हो। कौन तुम्हें हरा सकता है। तुम बड़े होकर महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, जैसे पुरुष बनोगे।’’ इस प्रकार के संकेतों को पुनः-पुनः दुहराने से बच्चे में खोया हुआ आत्म विश्वास जागृत हो जाता है। वीर भाव की वृद्धि करने वाले गीत गाकर सुनाना भी गुणकारी है।
अकेले में डरने वाले बालकों को प्रेम की अतृप्त इच्छा रहती है। जब बालक प्रेम का पूरा अंश प्राप्त कर लेता है, तो उसकी यह आदत स्वयं छूट जाती है। ज्यों-ज्यों बच्चे का आत्म विश्वास दृढ़तर होता जायगा, त्यों-त्यों इस ग्रंथि का दूषित प्रभाव कम होता जायगा। धीरे-धीरे उसके अवचेतन में स्वाभाविक निर्भय भावना आ जायगी। यदि अवचेतन के भय का, चेतन निर्भयता से सामंजस्य स्थापित कर दिया जाय, तो भय की ग्रन्थि का निराकरण स्वयं हो जाता है।
अन्धकार के डर को निकालने के लिए भी मन से अंधेरे के प्रति भय के भाव को निकालना चाहिये। गर्भवती स्त्री जब अन्धेरे में जाने से डरती है तो उसका बच्चा भी डरने लगता है। अतः पति को सदैव पत्नी को वीरतापूर्ण कहानियां ही सुनानी चाहिए। बच्चों को धीरे-धीरे, स्वयं उनके साथ अन्धेरे में रहकर, यह रोग दूर करना चाहिये। ‘‘स्वप्न में उठ कर घूमना’’ इस बीमारी का करण माता पिता के मध्य प्रेम न्यूनता है। घूमने कारण अतृप्ति है। बालक वातावरण से अतृप्त है। यह अतृप्ति उसके गुप्त मन में प्रविष्ट हो चुकी है। अतएव उस प्रेमपूर्ण व्यवहार हंसी खुशी के वातावरण में रखकर निकालना चाहिए। आपके सद्भाव पूर्ण व्यवहार तथा सहानुभूति से आन्तरिक संघर्ष की गुत्थियां सुलझ कर बच्चा गहरी निद्रा में से सकेगा।
भूलने वाले बच्चे—
पढ़ा हुआ पाठ भूल जाना यह बालकों की स्मरण शक्ति की निर्बलता का सूचक है। ऐसे बालकों का मन अति चलायमान होता है। किसी एक तत्व, विषय या पुस्तक पर वह एकाग्र नहीं हो पाता है। बालकों को प्रेम से पढ़ाने से तथा पुनः-पुनः एक ही बात का अभ्यास कराने से यह कमजोरी धीरे-धीरे दूर हो जाती है।
आवश्यकता इस बात की है कि आप बच्चे को मन्दबुद्धि का मानकर उसके साथ सहानुभूति का व्यवहार करें। प्यार और दुलार से उसे एक-दो बार तत्वों को भूलने पर भी पुनः सहानुभूति से समझा दें। कुछ शिक्षक पाठ को पढ़ाने में इतनी जल्दी करते हैं कि बालक का नन्हा-सा मन पाठ के मूल तत्वों को एक बार में ग्रहण नहीं कर पाता है, इतने ही में वे आगे चल देते हैं। बच्चे का मन पीछे रह जाता है। शिक्षक की इस भाग दौड़ में बच्चे की ग्रहणशक्ति निर्बल पड़ जाती है। उसकी स्मरण शक्ति पर इतना भार एकत्रित हो जाता है, जिसे वह पचा नहीं पाता। फलतः वे बच्चे पढ़ने लिखने में पिछड़ जाते हैं।
प्रत्येक बच्चे को विकास का पूर्ण अवसर दें और सहानुभूतिपूर्ण वातावरण उपस्थित करें। बच्चे को यथासंभव वही शिक्षा दी जाय जिसमें उसकी विशेष रुचि हो। अभिभावकगण अपने स्वार्थ के लिए बच्चे से अरुचि पूर्ण या ऐसा मोटा कार्य न करायें जो वह न कर सके। ऐसे बालक को, जिसमें कोई शारीरिक या मानसिक रोग हो विशेष प्रकार के अध्ययन, मनोरंजन, स्वस्थ भोजन तथा पर्याप्त विश्राम की सुविधाएं प्रदान किया करें, तो पिछड़े हुए बच्चे भी पर्याप्त विकास कर सकते हैं।
मन्द बुद्धि बच्चे विशेष देख-रेख, सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार और कुशल शिक्षकों की अपेक्षा करते हैं। उनके जो कुछ भी गुण हों, उनकी पर्याप्त प्रशंसा की जाय और सहानुभूति से उन्हें आगे बढ़ाया जाय। प्रायः लोग ऐसे बच्चों से ऊब जाते हैं। यह उचित नहीं है। घर का प्रत्येक व्यक्ति यदि उसको प्रोत्साहित करे तो वह भी अपना विकास कर लेता है, देर से ही सही।
चिढ़ने वाले बच्चे—
अनेक बालकों को चिढ़ने की आदत होती है। चिढ़ने वाला बालक अपना आत्म सम्मान खो बैठता है। बच्चा प्रायः जिस प्रेम, सहानुभूति, सौहार्द की आशा अपने परिवार से करता है, उसे नहीं पाता। उसके मन में आत्म अपमान की विषम वेदना निवास करती है। उसे उन व्यक्तियों से भारी घृणा होती है जो उसे चिढ़ाते हैं। वह स्वयं भी चिढ़कर उनका तिरस्कार करने का प्रयत्न किया करता है। जिन बालकों का समाज में पर्याप्त आदर नहीं होता, वे भी अन्तर की ठेस के कारण चिढ़ने लगते हैं। आरम्भ काल की कुचली हुई आत्म सम्मान की भावना कभी-कभी बड़े होने पर भी चलती रहती है। बात यह है जो व्यक्ति जिस भावना को दृढ़ता से अन्तर्मन में धारण कर लेता है और उत्तरोत्तर उसी का अनुभव करता चलता है, वैसा ही बनता जाता है। आत्म अपमान स्थायी घृणा के रूप में परिवर्तित होकर बच्चों को चिढ़ाने वाला बना देता है।
इस संबंध में प्रो. लालजीराम शुक्ल की सम्मति माननीय है, ‘‘अध्यापक तथा अभिभावक का कर्तव्य है कि बालक को ऐसी घटनाओं से सतर्क करता रहे, जिनसे उनका जीवन क्लेशमय हो जाने की सम्भावना है। यदि वे बालक की चेष्टाओं को सतर्कता से देखते रहे और उन्हें प्रशस्त मार्ग का अनुसरण कराते रहें, तो उनका वास्तविक आदर्श बना सकते हैं। मानसिक ग्रन्थि उदय होने का अवसर न देना चाहिए। यदि किसी प्रकार मानसिक ग्रन्थि का उदय हो जाय तो उसके दूर करने का उपाय करना चाहिए।’’ दूर करने का उपाय यह है कि उस भाव के विरोधी सद्गुण को प्रोत्साहित किया जाय। प्रेम, सहानुभूति और आत्म सम्मान की भावनाएं विकसित की जांय।
चोरी करने वाले बच्चे—
कुछ बालकों में चोरी की ग्रन्थि होती है। बाल्यावस्था में बालकों से छिपाकर रखने की मां-बाप की आदत, धीरे-धीरे उसमें भी आ जाती है। जिन बालकों को बाल्यावस्था में खाने खेलने या ओढ़ने पहनने के लिए पर्याप्त साधन प्राप्त नहीं होते उनकी ये इच्छाएं आन्तरिक मन में दलित अनुभूतियों के रूप में रहती हैं। वे फौरन चीजों को अनुचित साधनों से प्राप्त करना चाहते हैं। यह आदत चोरी बन जाती है।
श्री दौलतचन्द्र का विचार है, ‘‘जबसे बालक को यह ज्ञान होने लगता है कि अमुक वस्तु उसकी है, तभी से वह यह भी जानने लगता है कि अमुक वस्तु उसकी नहीं अथवा यह कि वह किसी दूसरे की है और इसको उसे नहीं लेना चाहिए। जो बालक बाद में चोरी करते हैं उनकी वस्तुएं पहले, जब वे शायद छोटे हों, बड़ों द्वारा जाने अथवा अनजाने में अनधिकार रूप से भी ली गई होती है। चोरी की आदत परिवार की आर्थिक कठिनाइयों व अभाव की स्थिति के कारण भी पड़ जाती है।’’
उपरोक्त कारणों में पर्याप्त तथ्य है। जिस बालक का विकास तंगी, अभाव, कमी या गरीबी में होता है, जो बालक दूसरों को अपने से अच्छा रहते हुए अच्छे वस्त्र पहनते हुए देखता है, वह अन्दर ही अन्दर उन चीजों को प्राप्त करने के लिए लालायित होता है। उसमें एक प्रकार की ईर्ष्या का भाव विकसित होता रहता है, जो चोरी की आदत में प्रकट होता है।
इस रोग को दूर करने के लिये ऐसा वातावरण उपस्थित करना चाहिये जिससे उसे दैनिक जीवन की आवश्यकताएं पूर्ण करने के समस्त साधन अनायास ही उपलब्ध होते रहें, वह जिन चीजों की कामना करता है, उसे स्वयं सबके सामने दे दीजिये। कुछ जेब खर्च भी दीजिये प्रेम से समझाइये और यथासम्भव अतृप्त न होने दीजिये।
जिद्दी बच्चों का सुधार—
जिद का प्रधान कारण बचपन में बालकों की उचित-अनुचित इच्छाओं की पूर्ति तथा अत्यधिक लाड़ प्यार है। बालकों को प्यार और सहानुभूति चाहिये, किन्तु इसकी अधिकता से बालक को एक प्रकार की मिथ्या आत्म-लघुता या बड़प्पन की भावना आ जाती है। वह अपने गुणों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर देखता है। यह एक प्रकार का मद है, जिसके सामने माता-पिता का व्यक्तित्व झुक जाता है।
हर बार जिद कर वह माता-पिता के हृदय में करुणा का संचार करता है, माता-पिता की अति भावुकता के कारण वह अनुचित बातों, घृणित आदतों, असंयम, अनियमितता और आनन्द की ओर बढ़ता जाता है। प्रत्येक जिद उसके मानसिक जगत में रहने वाला मस्तिष्क का एक मानसिक मार्ग है। पुनरावृत्ति से इन मार्गों की गहराई निरन्तर बढ़ती रहती है। जिद्दी बालक बड़े होकर माता पिता के लिये एक विषम समस्या बन जाते हैं।
सुधारने का सर्वप्रथम उपाय यह है कि अपने मन से झूंठी भावुकता, जो बालक का भविष्य बिगाड़ रही है, निकाल देनी चाहिए। उसकी अनुचित बातों को पूर्ण कभी न करें चाहे वह दिन भर मचलता रहे। दो चार बार सख्ती दिखाने से बालक को यह मालूम हो जायगा कि वह रोकर या जिद से आपको नहीं हरा सकता है। अतः वह यह आदत छोड़ देगा।
रोने से चुप करने के लिए किसी प्रकार की मिठाई, पैसा, खिलौना अथवा अन्य किसी वस्तु के रूप में रिश्वत या घूंस देकर बालक को चुप मत कीजिए। उसे रोने चिल्लाने दीजिये और चिल्लाहट को सहन कर अपनी दृढ़ता दिखाइए।
उसे समय पर भोजन, दूध या जो कुछ फल इत्यादि आप देते हैं, देते रहिए। अनियमित रूप से उन्हें खिलौने या उनकी फरमाइशें पूरी करने से उनकी जिद तो चलती रहती ही है, स्वास्थ्य भी नष्ट हो जाता है। बालक को चाट पकौड़ी या बाजार की चीजें खिलाना सच्चा ममत्व नहीं है बाल्यावस्था से ही उन्हें संयम का पाठ पढ़ाना उचित है। नियमितता और संयम से उनका चरित्र निर्माण होता है।
वातावरण बदलने का भी उत्तम प्रभाव पड़ता है। जिन माता-पिता के पास वह अधिक जिद करता है, उनसे दूर रखकर नये व्यक्तियों में निवास करने से बालक को अपनी जिद की निस्सारता और पूर्ति न होने का तथ्य ज्ञान हो जाता है। अतः जिद्दी बालक दूसरों के घर में रह कर प्रायः सुधर जाते हैं।
बालक को जिद करते समय उसे पूर्ण कर अपनी कमजोरी न दिखाइये।
यौन सम्बन्धी जटिलताएं—
अनेक ग्रंथियां बालकों की यौनगत भूलों से सम्बन्धित होती हैं। यों तो गुप्त अंगों में क्षणिक उत्तेजना प्रारम्भ से ही थोड़ी बहुत होती है, किन्तु बारह से चौदह वर्ष की आयु में यौवन का प्रभात आरम्भ हो जाता है। कभी-कभी माता-पिता बालक के शयन-कक्ष में ही वासना-निरत रहते हैं और जब बालक को सोता हुआ समझते हैं, तब वह चुपचाप उनकी प्रणय क्रीड़ा देखा करता है। उद्विग्नता और कौतूहल से भी उन्हें यौनगत उत्तेजनाएं प्राप्त होती हैं। हमारी वर्तमान शिक्षा संस्थाओं में अनेक घातक रोग फैल गये हैं। सुन्दर बालक और युवक एक दूसरे के साथ नितांत अवांछनीय रीति से गन्दा व्यवहार करते हैं। इनका सम्बन्ध कामुकता से भरा हुआ होता है। सिनेमा में गन्दे दृश्य देखते-देखते बाजारू युवक ऐसे खूबसूरत बच्चों की ताक में रहते हैं और उनके सम्पर्क में रहकर अपनी वासना शांत करने के दुष्प्रयत्न करते हैं। शिक्षालयों, बोर्डिंग हाउसों, सिपाहियों तथा बाजारों में युवकों और सुन्दर बच्चों का यह कामुकता पूर्ण दुर्व्यवहार चलता रहता है।
एडवर्ड कारपेण्टर, जे.ए. साइमाण्ड्स, वाल्ट व्हिटमेन हेवलाकएलिस आदि मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य की इस कामुकता जन्य निर्बलता का संकेत किया है। शिक्षकों तथा माता-पिताओं को बच्चों को ऐसे दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों से बचाना चाहिए। प्रत्येक स्कूल कालेजों में ऐसे कामुक पूर्ण प्रकृति वाले गुण्डे विद्यार्थियों का समुदाय रहता है जो खूबसूरत विद्यार्थियों को डराता धमकाता है जिससे वह इन शैतानों की गुट में सम्मिलित होकर उनकी कामवासना की पूर्ति का साधन बनें। ऐसे दुष्ट साथियों से बच्चों का सर्वनाश होता है, गुदा मैथुन से डरे हुए विद्यार्थियों में से यौवन की धीरता, दृढ़ता, साहस इत्यादि विलुप्त हो जाते हैं। जीवनी शक्ति का ह्रास होता है, अध्ययन में मन नहीं लगता और मेधाशक्ति विलुप्त हो जाती है। अतः ऐसे दुष्ट प्रकृति के सहपाठियों से अपने बच्चे की रक्षा कीजिए।
बच्चों को घृणित कामवासना की उत्तेजना करने वाले फिल्म न दिखलाइये। सिनेमा अभिनेत्रियों के चित्र मत खरीदने दीजिए। पान, सिगरेट, गाना, बनाव श्रृंगार की ओर मत झुकने दीजिए। यथा सम्भव उसे घर पर ही रखिये और घर को ऐसा अच्छा बनाइये कि उसका मनोरंजन घर पर ही हो सके। सद्-ग्रन्थ पढ़ने को दीजिए। प्रातःकाल भजन, पूजन इत्यादि की आदतों का शुरू से ही विकास प्रारम्भ करदें। श्रृंगार प्रधान नाटक, गन्दे उपन्यास, अश्लील कहानियां, घृणित चित्र और विषय सम्बन्धी कुरुचि पूर्ण गाने मुख से उच्चारण न होने दीजिये। स्त्रियों के साथ बातें करना, युवतियों की ओर ताकना पापी स्वभाव के लक्षण हैं। यथासम्भव आपके पुत्र को स्त्रियों के साथ खेलना अधिक बैठना, उठना, मनोविनोद करना, नीचतापूर्ण संकेत करना, गन्दी कविताएं स्मरण नहीं कराना चाहिए। उन्हें अच्छे से अच्छे व्यक्तियों की संगति में रखिये। सत्संग से निःसंग की प्राप्ति होती है, सद्विचार उत्पन्न होते हैं, सत्य, प्रेम, दया, उत्साह, महत्वाकांक्षा का यथार्थ ज्ञान तथा निश्चय होता है। तुलसी का वचन बड़ा मनोवैज्ञानिक है—‘‘शठ सुधरहिं सत् संगति पाई। पारस परसि कुधातु सुहाई।।’’ योगवशिष्ठ, गीता, रामायण, दासबोध, भागवत इत्यादि उपकारी ग्रन्थ सरल भाषा में उनके पास रख कर उनमें उनकी रुचि उत्पन्न करनी चाहिए।