अपने चरित्र का निर्माण करो
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जिसे तुम अच्छा मानते हो, यदि तुम उसे अपने आचरण में नहीं लाते तो यह तुम्हारी कायरता है। हो सकता है कि भय तुम्हें ऐसा नहीं करने देता हो, लेकिन इससे तुम्हारा न तो चरित्र ऊंचा उठेगा और न तुम्हें गौरव मिलेगा। मन में उठने वाले अच्छे विचारों को दबाकर तुम बार बार जो आत्म हत्या कर रहे हो आखिर उससे तुमने किस लाभ का अन्दाजा लगाया है?
शान्ति और तृप्ति, आचारवान व्यक्ति को ही प्राप्ति होती हैं। जो मन में है वही वाणी और कर्म में होने पर जैसी शान्ति मिलती है उसका एक अंश भी मन वाणी और कर्म में अन्तर रखने वाले व्यक्ति को प्राप्त नहीं होता। बल्कि ऐसा व्यक्ति घुट-घुट कर मरता है और दिन रात अशान्ति के ही चक्कर में पड़ा रहता है।
घुट-घुट कर लाख वर्ष जीने की अपेक्षा उस एक दिन का जीना अधिक श्रेयस्कर है जिसमें शान्ति है, तृप्ति है। परन्तु भय का भूत मनुष्य को न जिन्दा ही रहने देता है और न मरने ही देता है। भय की उत्पत्ति का कारण आशक्ति है, मोह है। शरीर का मोह, धन का मोह आदमी को कहीं का नहीं रहने देता, शरीर का चाहे जितना मोह करो उसे किसी न किसी दिन मिट्टी में मिलना ही है, अमर हो ही नहीं सकता तब फिर उसे आत्मोन्नति के साधन के लिए उपयोग में न लाकर जो लोग उसका भार ढोकर चलते रहना पसन्द करते हैं, पसन्द करते ही नहीं बल्कि चलते रहते हैं वे आत्मा को अन्धेरे की ओर ही गिराते हैं। धन और शरीर ये जीवन के लक्ष्य नहीं हैं, जीवन का लक्ष्य तो है आत्मा की उन्नति, आत्मा की प्राप्ति। इसलिए शरीर और धन का जो लोग इसके लिए उपयोग नहीं करते वे प्राप्त साधनों का दुरुपयोग न करके अपने भावी जीवन में किसी महान संकट के लिए निमन्त्रण देते हैं।
जीवन और अच्छे जीवन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए अपने आपकी खोज खबर रखता रहे। आत्म निरीक्षण करता रहे और फिर चतुर जर्राह की तरह जहाँ जहाँ आत्मोन्नति की बाधक शक्तियाँ और वृत्तियाँ काम कर रही हों। उनकी चीरफाड़ करता और उन्हें हटाता रहे। आत्म निरीक्षण और आत्म शुद्धि की वृत्ति को स्वभाव में बिना लाये कभी भी किसी व्यक्ति का चरित्र महान नहीं हुआ है। बल्कि चरित्र निर्माण के ये दोनों ही महान साधन हैं।
मानव स्वभावतः कमजोर नहीं है पर आस-पास का वातावरण उसे कमजोर बना देता है। सामाजिक परिस्थितियाँ-कायदे कानून मनुष्य को आगे बढ़ने से रोकते हैं और सामाजिक प्राणि होने के कारण मनुष्य समाज द्वारा परित्यक्त किये जाने के भय से आतंकित रहता है, इसलिए अन्दर गन्दगी बढ़ती रहती है। लेकिन जिसे अपने लक्ष्य का ज्ञान रहता है और अटूट श्रद्धा के साथ लक्ष्य पर पहुँचने की दृढ़ता को कायम रखता है उसे समाज के दुर्विधानों की बेड़ियां जकड़े नहीं रहती। वह इन्हें तोड़ता फोड़ता आगे बढ़ता है और स्वयं अपना ही उद्धार नहीं करता बल्कि समाज का भी पुनस्संस्कार कर डालता है। ऐसा व्यक्ति महान होता है।
ज्ञान को आचरण में बदल कर मनुष्य महान बनता है। इस महानता का सबसे बड़ा गुण है अभयदान । इसलिए जो चरित्रवान होते हैं वे निर्भीक होते हैं। वे आत्मा को अजर अमर मानते हैं और दुःख सुख को मानसिक विकार। जिन्हें आत्मा की प्राप्ति नहीं होती वे ही इन विकारों में फँसे रहते हैं इसलिए सम्पन्न होने पर भी सुखी नहीं रहते। लेकिन जिन्होंने विकारों के तत्व को समझ लिया है और जिन्हें आत्मा की पूर्णता का परिचय मिल गया है। ऐसे आत्माराम पुरुष सिर्फ अपने को ही नहीं तारते बल्कि वे संसार के तरण तारण हो जाते हैं।
चरित्र, मानव-आत्मा को पूर्ण विकसित करता है इसलिए आरंभ में भले ही किन्हीं कठिनाइयों का सामना करना पड़े परन्तु अन्त में वे कठिनाइयाँ ही जीवन को उज्ज्वल करने वाली दिखने लगती हैं। इन कठिनाइयों को पार कर मानव तपःपूत हो जाता है। आत्मा निखर उठती है। तब अभाव नाम के किसी भी तत्व का उसके लिए कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। इसलिए चरित्र की ही उपासना करनी चाहिए और चरित्रवान बनने का ही संकल्प । इस अकेले को लिया तो सब कुछ पा लिया समझो।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति 1948 सितम्बर पृष्ठ 3
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