
पारिवारिक आय-व्यय।
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पारिवारिक खर्च की समस्या सम्मिलित कुटुम्बों में कदाचित सबसे महत्वपूर्ण और उत्तर दायित्वपूर्ण है। हमने अनेक बड़े परिवारों का विशेष अध्ययन किया है तथा हमें ज्ञात हुआ है कि परिवारों के मुखिया आय-व्यय की कला से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। अस्सी प्रतिशत कर्ज से ग्रसित हैं। अथवा अनीति की राह पर जा रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक व्यय करना चाहता है। चुपचाप कुछ एकत्रित रखकर परिवार की सम्मिलित पूँजी का क्षय करता है। कुछ स्थानों पर स्त्रियाँ बड़ी मूर्खतापूर्ण काम करती हैं। गहनों, विवाहों दिखावा में अनाप-शनाप व्यय होता है। कुछ रूढ़ि वादी अशिक्षित मूर्ख स्त्रियाँ जो धर्म के विषय में कुछ नहीं समझती। पात्र कुपात्र का विवेक न कर खूब दान करती हैं। एक परिवार में एक मुखिया ने अपनी पत्नी की जिद से तंग आकर अपनी सामर्थ्य से बाहर निकल कर एक कन्या पाठशाला प्रारम्भिक और दो वर्ष में दिवाला निकाल बैठे। दूसरे सज्जन ने कई छोटे-मोटे कारखाने प्रारम्भ किए। एक महानुभाव ने एक डेयरी फिर चक्की, तिल पेलने की मशीन लगाई पर सभी में हानि उठाकर 30-35 हजार रुपया का ऋण परिवार पर डाल गये। एक बड़े रईस अफीम के व्यसन से सब कुछ गँवा बैठे। कई स्थानों पर पुत्र-पुत्रियों की शिक्षा उचित नहीं हुई और पिता के मरते ही पूरा परिवार नष्ट भ्रष्ट हो गया। एक जमींदार साहब ने घर की खेती की। नौकर रख कर जमीन की जुताई कराई किन्तु व्यय आय के अनुपात में इतना हो गया कि गाँठ की पूँजी भी नष्ट हो गई । एक सज्जन के इतने पुत्र-पुत्री हो गये कि बेचारे उनकी शिक्षा, देख−रेख तथा विवाह करते-करते नष्ट हो गये । हम एक ऐसे प्रतिष्ठित पूँजीपति को जानते हैं जो व्यसन-व्यभिचार में बहुत कुछ गँवा कर दर-दर के भिखारी बन गये और कर्ज के लिए सबके आगे हाथ फैलाये फिरते हैं।
सम्मिलित कुटुम्ब में ऋण क्यों होता है ?
1- आय-व्यय की कला से अनभिज्ञता प्रथम कारण है। जिससे परिवार नष्ट होते हैं। यह कला हमें अपने खर्च को सही रूप से व्यय करना, भविष्य के लिए कुछ संग्रह करना, बीमारी, विवाह, मृत्यु, मकान, मवेशी, जायदाद इत्यादि खरीदने की सुविधाएं प्रदान करती है।
2- स्वार्थपरता वह दुर्गुण है जिससे परिवार नष्ट होते हैं। हर व्यक्ति अपना सुख देखता है। बढ़ा चढ़ा कर व्यय करता है। झूँठी शान में रहता है या रुपया चुराकर रखता है। खुदगर्जी साक्षात राक्षस हैं। इससे कर्ज बढ़ता है।
3- व्यसन, व्यभिचार, विलासिता घर में प्रविष्ट होते ही खर्च बढ़ते जाते हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी जरूरत कम नहीं करना चाहता। प्रत्युत उसी शान से व्यय करता है। जहाँ आय से व्यय अधिक हुआ कर्ज बढ़ता है। शराब पीने वाले व्यक्ति हमेशा ऋण में रहते हैं। नशे में उन्हें अपने बजट पर नियंत्रण नहीं होता। व्यभिचार करने वाला देखते-देखते दर-दर ठोकरें खाने वाला भिखारी बन जाता है।
4- दान, यात्राएँ, विवाह, मृत्यु, भोजन, मुकदमें इन सभी में आय से अधिक खर्च हो जाता है और वह कर्ज मामूली व्यक्तियों से कभी नहीं उतर पाता। हिन्दुओं में विवाह समस्या और कन्याओं के विवाह में दहेज तथा गहनों का बनाना बेहद खर्चीले हैं। जिस व्यक्ति के चार कन्याएं हैं, उसे समृद्ध बनने में अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है।
5- अधिक बच्चे उत्पन्न करना नैतिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टिकोण से बुरा है। सारी आयु बच्चों में ही नष्ट हो जाती है। मरने के बाद बच्चे रोते फिरते हैं।
6- पुराना ऋण- जिन परिवारों पर पुराना ऋण चला आता है, वह कभी भी नहीं दिया जा पाता। सूद बढ़ता है। ऋणग्रस्त समझता है कि चूँकि तकाजा नहीं होता, उससे कर्ज न माँगा जायेगा। जब वह मूल से आगे बढ़ जाता है, तो घर नीलाम हो जाता है।
7- लंबी बीमारियां- यक्ष्मा, पुरानी बवासीर, दुर्बलता, पेट के रोग, दाँतों के रोग, हृदय के रोग, पागलपन इत्यादि लंबी बीमारियाँ है। इनमें चाहे-जितना खर्च करो, परिवार पनप ही नहीं पाता। वृद्धों की बीमारियाँ निरन्तर चलती रहती हैं। यदि कहीं कोई आपरेशन कराने का अवसर आ गया, तो वह बड़ा कष्ट-साध्य हो जाता है। पुनःपुनः बच्चों का होना बड़ा खतरनाक है। इसमें व्यय भी होता है और बड़ी बीमारियाँ, जैसे-प्रसूत, ज्वर, यक्ष्मा इत्यादि हो जाने का भय रहता है।
8-बच्चों की शिक्षा-आधुनिक षिक्षा पद्धति बड़ी खर्चीली है। यदि कोई अपने बच्चे को उच्चतम शिक्षा दिलाना चाहता है, तो उसे पुस्तकों, फीस, बौर्डिंग तथा आने जाने के बहुत से व्यय करने पड़ते हैं। विद्यार्थीगण लापरवाह, व्यसनी, फिजूल खर्च, दिखावा पसन्द, सिनेमा और फैशन परस्त होते हैं। माँ-बाप से खूब रुपया मँगाते हैं और कमाऊ बनकर पृथक गृहस्थी ले बैठते हैं, पिता को कर्जदार छोड़ जाते हैं।
व्यय पर आप की समृद्धि निर्भर है।
जितना आप-व्यय करते हैं, उस पर आप की समृद्धि निर्भर है। आप कितना कमाते हैं, यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना खर्च है। आप सौ रुपया कमाते और डेढ़ सौ खर्च करते हैं, तो आपके सौ रुपए किस काम के? बढ़े हुए पचास रुपयों के लिए आप या तो चोरी करेंगे, गाँठ काटेंगे, धोखा देंगे या अनीति की राह पर चलेंगे। आपका खर्च करना आपकी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा। चाहे आपकी आमदनी कुछ भी क्यों न हो।
आपके खर्च अधिक होने का अभिप्राय है कि आपकी आवश्यकताएँ बढ़ी हुई हैं। उनमें कुछ जरूरी और कुछ व्यर्थ की विलासितापूर्ण गंदी आदतें हैं। आय के अनुसार खर्च की योजना बनानी चाहिए।
यदि यह कहें कि कर्ज सबसे बुरी गुलामी है, तो अतिश्योक्ति न होगी। जो कर्ज लेता है, अपने गले में दस मन का पत्थर बाँध लेता है। उसी भार से वह निरन्तर क्षय को प्राप्त होता है।
होरेस ग्रीनले बड़े अनुभवी व्यक्ति हो गये हैं। आप कहा करते थे-”भूख, ठंड, चिथड़े, कठिन- कार्य, घृणा, मजबूरी और झिड़कियाँ बड़ी अप्रिय चीजें हैं, लेकिन कर्ज इन सभी से बुरा और दुःख देने वाला राक्षस है। कभी ऋण-ग्रस्त न होइये। यदि आपके पास चार आने हैं, और आप एक समय का भोजन भी नहीं खरीद सकते, तो भी ऋण न लीजिए। चने भून कर पेट की क्षुधा शाँत कीजिए। एक पैसे का भी कर्ज दूसरे दिन के लिए न रखिए अन्यथा आपको मीठी नींद का सुख प्राप्त न होगा।”
कौबडन ने कहा है कि संसार के मनुष्य दो भागों में विभाजित हो सकते हैं। 1-वे जिन्होंने मितव्ययता का अभ्यास डालकर अपनी आय में बचाया है। 2-वे जो अपनी आदतों में अनियन्त्रित रहे हैं और जिन्होंने खूब खुले हाथ खर्च किया है-मितव्ययी और फिजूल खर्च। बड़े-बड़े आलीशान भवन, पुल, कारखाने, जहाज और दुनिया में बड़े-बड़े कार्य जिनसे हमारी संस्कृति का विकास हुआ है और सुख की वृद्धि हुई है, प्रथम श्रेणी के व्यक्तियों द्वारा हुई है। जिन लोगों ने अपने हाथ में आये हुए रुपए का अपव्यय किया है, हमेशा मितव्ययी श्रेणी के गुलाम रहे हैं। प्रकृति का ऐसा ही नियम रहा है।
यदि आप व्यापार कर रहे हैं, तो दूसरी बात है अन्यथा ऋण न लीजिए। न कर्ज लीजिए, न दीजिए। यदि कर्ज लेंगे, तो कर्ज देने वाला आपको घृणा और हीनत्व की दृष्टि से देखेगा। यदि आप कर्ज देंगे, कर्ज का रुपया वापिस आना कठिन है। जब आप रुपया लेने जायेंगे, तो कर्जदार आपको राक्षस समझेगा। यदि आप किसी को रुपया देते ही हैं, तो वापस लेने की इच्छा त्याग दीजिए।
यदि रुपया धीरे-धीरे आता है, तो उसी अनुपात से खर्च करते रहिए। यदि कमाई अच्छी हो रही है, तो उसे अविवेक से खर्च न कर बैठिये प्रत्युत बीमारी, बुढ़ापे, विवाहों और संकट काल के लिए संग्रह करके रखिये। जैसे-जैसे आप बड़े होंगे, आपका कुटुम्ब रिश्तेदारी बढ़ेगी, स्वास्थ्य गिरेगा, वैसे-वैसे आपको अधिकाधिक रुपयों की आवश्यकता प्रतीत होगी। बहुत से व्यक्ति प्रारम्भ में बड़े सतर्क रहे, पर बड़े होकर सठिया गये और नष्ट हो गये।
अमीर बनने के लिए उतावले न बनिये। यद्यपि यह सत्य है कि हम में से प्रत्येक अमीर नहीं बन सकता किंतु नियंत्रण, ईमानदारी और मितव्ययता से हम गरीबी से बच सकते हैं और प्रतिष्ठित जीवन व्यतीत कर सकते हैं। गरीब वे लोग नहीं हैं जिनके पास कम है, प्रत्युत वे हैं, जो अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाकर बहुत अधिक वस्तुएँ चाहते हैं।
आपकी आवश्यकताएँ आसानी से पूरी हो सकती हैं। उनके लिए आपको डरने की जरूरत नहीं है। मनुष्य की आवश्यकताएँ-भोजन साधारण वस्तु और मकान आपको प्राप्त हो जाएंगे। आपको सावधान वहाँ रहना है, जहाँ आवश्यकताएँ छोड़ कर आराम और विलासिता के क्षेत्रों में प्रवेश करते हैं। विलासिता सबसे महंगी कुत्सित वस्तु है। जितने रुपए आप विलासिता-चटकीले वस्त्र, चटपटे खाने, आलीशान मकान, दिखावा, फैशन, सिगरेट, सिनेमा पाउडर और खुशबूदार तेल में व्यय करते है उतने से दो बच्चों की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध हो सकता है।
भविष्य के लिए बहुत बड़ी-बड़ी आशाएं न रखिए। जिन आशाओं से आप विहार करते हैं वे टूट फूट सकती हैं। रुपया नष्ट हो सकता है। संचित पूँजी, व्यापार खराब हो सकते है। बड़े-बड़े अनुभवी व्यापारी गलती कर बैठते हैं जीवन में बड़ी समझदारी और सम्हाल कर चलना हैं। जो कुछ आपके हाथ में है उस पर ही आपको निर्भर रहना चाहिए।
बनियों को देखिए। वे अपनी पूँजी को कैसे ध्यान, सतर्कता, मितव्ययता से सम्हालता है। एक-एक पैसा जोड़ता है। खर्च को कम से कम रखता है। मामूली खाना खाता है। व्यसनों से बचता है। पर रुपया बचाकर रखता है और समय पर दूसरों की सहायता करता है। कंजूस मत बनिये पर मितव्ययी अवश्य बनिये। बनिये की तरह हम और आप सभी व्यापार कर रहे हैं। हमें अनेक कर्त्तव्य पूर्ण करने होते हैं। हमारे पास एक घर की व्यवस्था का भार है। बाल-बच्चे सम्बन्धी और परिवार है। हमारी आमदनी आती है। उसे व्यय करना है। घर के नौकर हैं। जिन्हें वेतन देना है। बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करना है। हजारों छोटे-छोटे व्यय, बीमारियाँ, उत्तरदायित्व, छोटे बड़े उत्सव आते हैं। इन सब में आप अपने व्यय की कुशलता प्रदर्शित कर सकते हैं।
व्यापार की सफलता हमारी बुद्धि, ध्यान और एकाग्रता पर निर्भर हैं। हमारी योजनाएँ जितनी सफल और अनुभवपूर्ण होंगी, उतनी ही सफलता हमें प्राप्त होगी। हम अपने बजट को यदि ठीक तरह बना लिया करें और पूर्ण मनोयोग से उस पर दृढ़ रहें, तो संतुलित व्यय कर सकते हैं।
आप कहेंगे कि हमारी आमदनी ही इतनी कम है कि यों ही व्यय हो जाता है। बजट बना कर क्या करें? यह थोथी दलील है। यदि आपको दस रुपए प्रतिमास मिलते हैं, तब भी बजट बनाना चाहिए और उसे अपने कमरे में टाँग लेना चाहिए। बजट का मतलब यह है कि आप आवेश में आकर व्यय नहीं करते हैं, बल्कि सोच समझ कर बुद्धिमत्ता और पूर्ण विवेक से व्यय करते हैं। कम आमदनी भी आपको सुख और आनन्द देगी यदि नियंत्रण पूर्वक व्यय की जायेगी। अँग्रेजी कवि वडर्सवर्थ को केवल 30 बिलिंग प्रति सप्ताह मात्र प्राप्त होता था किन्तु इसी से वह प्रसन्न जीवन व्यतीत कर सके। यदि तुम्हारे भाग्य में अमीर होना नहीं लिखा, तो कम से कम गरीबी भी नहीं लिखी है, यह विश्वास रखिए। उत्तम स्वास्थ्य, गुलाब के फूल सा खिला हुआ चेहरा, प्रसन्नता और भलमनसाहत का व्यवहार-क्या किसी संपदा से कम हैं ?
रुपया क्या-क्या कर सकता है? इसको लोग बहुत बढ़ा चढ़ाकर देखते हैं। क्या हम उससे बहुत उत्तम भोजन खा सकते हैं? स्मरण रखिए, अमीर से अमीर भी भोजन साधारण ही करता है, सोना नहीं निगल सकता।
पारिवारिक व्यय के लिए कुछ सुझाव
सब कमाने वाले महानुभावों को संपूर्ण आय मुख्य व्यक्ति के पास जमा करनी चाहिए। वह पूरी आय का योग कर परिवार की आवश्यकताएँ नोट करता जाये और बजट तैयार करे। उसमें प्रत्येक छोटे कुटुम्ब को कुछ हाथ खर्च दें। यदि सम्भव हो तो यह जेब खर्च सबके लिए रखा जाये।
सर्व प्रथम स्थायी व्ययों-अनाज, पानी, रोशनी, लकड़ी, मिर्च-मसालों, दूध का विध्या रक्खा जाय। तत्पश्चात् वस्त्रों की योजना रहे, दृष्टिकोण यह रहे कि कम से कम सबको तन ढ़कने के लिए पर्याप्त वस्त्र मिल जायें। दफ्तर में काम करने वाले बाबू तथा विद्यार्थियों को कुछ विशेष वस्त्र बाहर के लिए अतिरिक्त प्रदान किए जा सकते हैं। वर्ष के प्रारम्भ में ही बिछौनों, दरियों, रजाइयों का प्रबन्ध कर लेना चाहिए। मकान का प्रश्न आजकल बहुत जटिल हो गया है किन्तु अपनी आय, मर्यादा, स्वास्थ्य की दृष्टि से मकान का चुनाव हो। यदि मकान घर का हो तो उसकी टूट फूट का प्रति वर्ष अच्छा इन्तजाम रहे।
फुटकर खर्च, जैसे बच्चों का अध्ययन, डॉक्टर की फीस, दवाइयाँ, देनदारी, टायलेट, मनोरंजन, नौकर, सफर इत्यादि का खर्च बहुत सम्हाल कर रक्खा जाये। विलासिता के व्यय से बड़ा सतर्क रहा जाये।
बीमा, विवाह-शादियों, मृत्यु, बीमारी, मकान, मुकदमेबाजी तथा परिवार पर आने वाले आकस्मिक खर्चों के लिए सावधानी से एक अलग खाता रखा जाये। जो लोग करा सकें, उन्हें बीमा अवश्य कराना चाहिए।
यदि परिवार का प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को संयमित करे और पूरे परिवार के लाभ को देखे। जिन परिवारों में एक विद्यार्थी को पढ़ाने के लिए सब अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को तिलाँजलि देते हैं, सामूहिक उन्नति में विश्वास करते हैं। वह उत्तरोत्तर विकसित होता है।