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Magazine - Year 1951 - Version 2

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सुखी और शान्तिमय गृहस्थ जीवन बनाने वाले गुण।

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आपका परिवार एक छोटा सा स्वर्ग है, जिसका निर्माण आपके हाथ में है। परिवार एक ऐसी लीला भूमि है जिसमें पारिवारिक प्रेम सहानुभूति, सम्वेदना, मधुरता अपना गुप्त विकास करते हैं। यह एक ऐसी साधना भूमि है जिसमें मनुष्य को निज कर्त्तव्यों तथा अधिकारों, उत्तरदायित्व एवं आनन्द का ज्ञान होता है। मनुष्य को इस भूतल पर जो सच्चा और अकृत्रिम सौम्य और दुःख से मुक्त सुख प्राप्त हो सकता है वह कुटुम्ब का सुख ही है।

कुटुम्ब की देवी स्त्री है। चाहे वह माता, भगिनी या पुत्री किसी भी रूप में क्यों न हो। उन्हीं के स्नेह से, हृदय की हरियाली, रस स्निग्ध वाणी और सौंदर्यशाली प्रेम से परिवार सुखी बनता है। वह स्त्री जिसका हृदय दया और प्रेम से उछलता है। परिवार का सबसे बड़ा सौभाग्य है। उसकी वाणी में सुधा की सी शीतलता और सेवा में जीवन प्रदायिनी शक्ति है। उसके प्रेम की परिधि का निरंतर विकास होता है। वह ऐसी शक्ति है, जिसका कभी क्षय नहीं होता और जिसका उत्साह एवं प्रेरणा परिवार में नित्य नवीन छटाएँ पूर्णता में नवीनता उत्पन्न कर मन को मोद, बुद्धि को प्रबोध और हृदय को संतोष प्रदान करता है।

हिन्दू भावना स्त्री के रूप में केवल अर्धांगिनी और सहधर्मिणी हो सकती है। अन्य कुछ नहीं। हिन्दू की दृष्टि में नारी केवल साथिन के रूप में या थोथी और उथली रोमाँटिक प्रेमिका नहीं दिखाई देती। इस वैचित्र्यमय जगत में नानात्व की अभिव्यंजना के साथ नारी को भी हम अनंत शक्ति-रूपिणी, अनंत रूप से शक्ति दायिनी स्नेहमयी जननी आशा कारिणी भगिनी कन्या और सखी के रूप में निहारते आये हैं।

हिन्दू परिवार में पुत्र क्षणिक आवेश में आकर स्वच्छन्द विहार के लिए परिवार का तिरस्कार नहीं करता। वरन् परिवार के उत्तरदायित्व को और भी दृढ़ता से वहन करता है। हिन्दू जीवन में पति उत्तरदायित्वों से भरा हुआ प्राणी है। अनेक विघ्नों के होते हुए भी उसका विवाहित जीवन मधुर होता है। यहाँ संयम, निष्ठा, आदर प्रतिष्ठा तथा जीवन-शक्ति को रोक रखने का सर्वत्र विधान रखा गया है। यदि यह संयम न हो तो विवाहित जीवन गरल-मय हो सकता है। हिंदू नारी को भोग-विलास की सामग्री नहीं, नियंत्रण प्रेरणा साधना विघ्न-बाधाओं में साथ देने वाली जीवन-संगनी के रूप में देखता है।

इन दैवी गुणों की वृद्धि कीजिए

पारिवारिक जीवन को मधुर बनाने वाला प्रमुख गुण निःस्वार्थ प्रेम है। यदि प्रेम की पवित्र रज्जु से परिवार के समस्त अवयक सुसंगठित रहें, एक दूसरे को मंगल कामना करते रहें, एक दूसरे को परस्पर सहयोग प्रदान करते रहें तो संपूर्ण सम्मिलित कुटुम्ब सुघड़ता से चलता रहेगा। परिवार एक पाठशाला है। एक शिक्षा संस्था है। जहाँ हम प्रेम का पाठ पढ़ते हैं।

अपने पारिवारिक सुख की वृद्धि के लिए यह स्वर्ण सूत्र स्मरण रखिए कि आप अपने स्वार्थों को पूरे परिवार के हित के लिए अर्पित करने को प्रस्तुत रहें। हम अपने सुख की इतनी परवाह न करें, जितनी, दूसरों की। हमारे व्यवहार में सर्वत्र शिष्टता रहे। यहाँ तक कि परिवार के साधारण सदस्यों के प्रति भी हमारे व्यवहार शिष्ट रहें। छोटों की प्रतिष्ठा करने वाले, उनका आत्म सम्मान बढ़ाने वाले उन्हें परिवार में अच्छा स्थान देकर समाज में प्रविष्ट कराने वाले भी हमीं हैं।

छोटे-बड़े भाई-बहिन घर के नौकर पशु पक्षी सभी से आप उदार रहें। प्रेम से अपना हृदय परिपूर्ण रखें। सबके प्रति स्नेहसिक्त, प्रसन्न रहें। आपको प्रसन्न देखकर घर भर प्रसन्नता से फूल उठेगा। प्रफुल्लता वह गुण है जो थके-हारे सदस्यों तक में नवोत्साह भर देता है।

मैं प्रायः कालेज से थका-हारा लौटता हूँ। घर आता हूँ तो हृदय प्रफुल्लित हो उठता है। बैठक में पत्नी, भाई, बच्चे जमा है। टेबल के ऊपर दूध, मिष्ठान्न, मेवा जमा हैं। बाबूजी के आने की प्रतीक्षा की जा रही है। मैं घर में आविष्ट होता हूँ। सबसे छोटी बालिका आकर मुझ से लिपट जाती है- “बाबूजी आ गए। बाबूजी आ गए” की मधुर ध्वनि मुझे अहलादित कर देती है। मैं जेब में से एक चाक का टुकड़ा निकाल कर नन्ही मृदुता को देता हूँ। वह उसी में तन्मय हो जाती है। मेरी पुस्तकें ले लेती है और हैट सिर पर पहन लेती है। सब उसका अभिनय देखकर हंस देते हैं। मैं खिलखिला कर हँस देता हूँ। एक नई प्रेरणा दिल और दिमाग को तरोताजा कर देती है। वह सम्मिलित लघु भोजन हम में नवजीवन संचार कर देता है।

आप अपने परिवार में खूब हँसिये, खेलिये, क्रीड़ा कीजिए। परिवार में ऐसे रम जाइए कि आपको बाहरीपन मालूम न हो। आत्मा तृप्त हो उठे। मैंने चुन-चुन कर अपने परिवार में मनोरंजन के भी नवीन ढंग अपनाये हैं। इनका उल्लेख अन्यत्र किया जा रहा है। लेकिन इन सबके मूल में जो वृत्ति है वह हँसी विनोद और विश्राम की है।

धर्म प्रवर्त्तक लूथर ने कहा है - “विचारपूर्ण विनोद मर्यादापूर्ण साहस वृद्ध और युवक के लिए उदासी की अच्छी दवा है।”

सरसता का अद्भुत प्रभाव

जिनका स्वभाव रूखा, दार्शनिक, चिन्तित है। उन्हें तुरन्त प्रसन्न करने का उद्योग एवं अभ्यास करना चाहिए। रूखापन जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है। कई आदमियों का स्वभाव बड़ा शुष्क, कठोर और अनुदार होता है। उनकी आत्मीयता का दायरा बड़ा संकुचित होता है। उस दायरे के बाहर के व्यक्तियों तथा पदार्थों में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती। पास-पड़ौस के व्यक्तियों तक में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं। किसी के हानि-लाभ उन्नति-अवनति, खुशी-रंज, अच्छाई-बुराई, तरक्की-तनज्जुली से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। ऐसे व्यक्ति प्रसन्नता में भी कंजूस ही रहते हैं। अपने रूखेपन के प्रत्युत्तर में दुनिया उन्हें बड़ी रूखी, नीरस, कर्कश, खुदगर्ज, कठोर और कुरूप प्रतीत होती है।

रूखापन परिवार के लिए रेत की तरह बेमजे है। तनिक विचार कीजिए, रूखी रोटी में क्या मजा है, रूखे बाल कैसे अस्निग्ध प्रतीत होते हैं, रूखी मशीन कैसी खड़खड़ चलती है, रूखे रेगिस्तान में कौन रहना पसंद करेगा?

प्राणी मात्र सरसता के लिए तरस रहा है। वह आपका प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा-प्रशंसा, उत्साह, आहाद चाहता है। पारिवारिक सौभाग्य के लिए सरसता और स्निग्धता की आवश्यकता है। मनुष्य का अन्तःकरण रसिक है। स्त्रियाँ स्वभाव से ही कवि हैं, भावुक हैं, सौंदर्य उपासक हैं, कलाप्रिय हैं, प्रेममय हैं। मानव-हृदय का यही गुण है, जो उसे पशु जगत् से ऊँचा उठाता है।

सहृदय बनिये। सहृदयता का अभिप्राय कोमलता, मधुरता, आर्द्रता है। सहृदयता व्यक्ति सबके दुःख में हिस्सा बँटाता है। प्रेम तथा उत्साह देकर नीरस हृदय खींचता है। जिसमें यह गुण नहीं है उन्हें हृदय होते हुए “हृदयहीन” कहा जाता है। हृदयहीन का अर्थ है “जड़ पशुओं से भी नीचा”। नीरस गृहस्वामी पूरे परिवार को दुखी बना देता है।

जिसने अपनी विचारधारा और भावनाओं को शुष्क, नीरस और कठोर बना रखा है, उसने अपनी आनन्द, प्रफुल्लता और प्रसन्नता के भण्डार को बन्द कर रखा है। वह जीवन का सच्चा रस प्राप्त करने से वंचित रहेगा। आनन्द स्त्रोत सरसता की अनुभूतियों में है।

परमात्मा को आनन्दमय निर्देश किया गया है। क्यों? क्योंकि वह कठोर और नियंत्रणप्रिय होते हुए भी सरस और प्रेम-मय है। श्रुत्रि कहती है- “रसोवैसः” अर्थात् परमात्मा रसमय है। परिवार में उसे प्रतिष्ठित करने के लिए वैसी ही लचीली, कोमल, स्निग्ध और सरस भावनाएँ विकसित करनी पड़ती हैं।

नियंत्रण आवश्यक है

जब हम आप से सरसता को विकसित करने का आग्रह करते हैं, तो हमारा अभिप्रायः यह नहीं है कि आप नियंत्रण को भी टूट जाने दें। हम नियन्त्रण के पक्षपाती हैं। नियंत्रण से आप नियमबद्ध, संयमी, अनुशासनबद्ध, आज्ञाकारी परिवार की उत्पत्ति करते हैं। परिवार के नियंत्रण में आप दृढ़ रहे, गलतियों पर डाटें-फटकारे, सजाए दें और पथभ्रष्ट को सन्मार्ग पर प्रतिष्ठित करें। परिवार की उन्नति के लिए आप कड़ा कदम उठा सकते हैं।

पर एक बात कदापि विस्मृत न कीजिए। आप अंततः हृदय को कोमल, द्रवित होने वाला, दयालु प्रेमी और सरस ही रखिए। संसार में जो सरलता का, सौंदर्य का अपार भण्डार भरा हुआ है उसे प्राप्त करना सीखिए। अपनी भावनाओं को जब आप कोमल बना लेते हैं, तो आपके चारों ओर आने वाले हृदयों में अमृत-सा झरता हुआ प्रतीत होता है। भोले भाले मीठी-मीठी बातें करते हुए बालक, प्रेम की प्रतिमाएँ-माता, भगिनी, पत्नी, अनुभव ज्ञान और शुभ कामनाओं के प्रतीक वृद्धजन-ये सब ईश्वर की ऐसी आनंदमय विभूतियाँ हैं, जिन्हें देखकर परिवार में मनुष्य का हृदय कमल के पुष्प के समान खिल जाना चाहिए।

परिवार एक पाठशाला है जो हमें आत्म-संयम, स्वसंस्कार, आत्मबल और निःस्वार्थ सेवा की अनमोल शिक्षाएँ देता है। प्रतिदिन हम परिवार की भलाई के लिए कुछ न कुछ करते रहें, अपना निरीक्षण खुद करें।

परिवार के प्रत्येक समझदार व्यक्ति को चाहिए कि प्रति रात को सावधानी के साथ अपने चरित्र का निरीक्षण करे। यह देखें कि आज मैंने कौनसा कार्य पशु के समान, कौन सा असुर के समान, कौन सा सत्पुरुष के समान और कौन सा देवता के समान किया है। यदि प्रत्येक व्यक्ति सहयोग और निःस्वार्थ सेवा की भावना से परिवार की सम्पन्नता में हाथ बंटायें, तो गृहस्थ सुख धाम बन सकता है।

‘हमें अधिकार दीजिए’- एक दूषित भावना

आए दिन इस बात का झगड़ा रहता है कि ‘हमें अधिकार दीजिए’। नवयुवक, नवयुवतियाँ तथा अन्य सदस्य अधिकारों की रट लगाये हैं। अधिकार माँगने की प्रवृत्ति दूषित स्वार्थ की भावना पर अवलम्बित है। वे दूसरों को कम देकर उनसे अधिक लेना चाहते हैं। यह स्वार्थमयी भावना जिस दिन अंकुरित होती है, परिवार से सुख और शान्ति की भावना का तो उसी दिन तिरोभाव हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य छोटे से अनुचित व्यवहार करता है और कहता है कि हमारा अधिकार है। सास बहू पर अनुचित अधिकार जमाती है। बड़ा भाई छोटे भाई पर दुर्व्यवहार करता है।

“अधिकार” माँगने वाला दूसरे से कुछ चाहता है, परंतु दूसरे को देने की बात विस्मृत कर बैठता है। उसे यह ज्ञान नहीं कि अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं। इस हाथ दीजिए, उस हाथ ले लीजिए। इस माँग और भूख की लड़ाई में ही गृहस्थ जीवन का सुख विदा होना आरम्भ हो जाता है।

प्रेम, समता, त्याग, समर्पण-ये ऐसी दैवी विभूतियाँ हैं जिनसे गृहस्थ स्वर्ग बनता है। वहाँ अधिकार नामक शब्द का प्रवेश निषेध है। वहाँ तो दूसरा शब्द “कर्त्तव्य” ही प्रवेश पा सकता है। परिवार के प्रत्येक सदस्य का उत्तरदायित्व है, कुछ न कुछ कर्त्तव्य है। वह अपना कर्त्तव्य करता चले। जो तुम्हारा अधिकार है वह तुम्हें अनायास ही प्राप्त हो जायेगा। लेकिन कर्त्तव्य की बात भूलकर केवल अधिकार की माँग लगाना नैतिक दृष्टिकोण से गर्हित है। समस्त बखेड़ों की इस जड़ को काट देना चाहिए।

संसार के सम्बन्धों को देखिए। दुनिया का सब कार्य स्वयं ही आदान-प्रदान से चल रहा है। जब कुछ दिया जाता है, तब तुरन्त ही कुछ मिल जाता है। देना बंद होते ही, मिलना बंद हो जाता है। अतः लेने की आकाँक्षा होने पर देने की भावना पहले बना लेना जरूरी होता है। अधिकार में केवल लेने की ही भावना भरी रहती है, त्याग, बलिदान, सेवा, सहानुभूति की नहीं। इसलिए पारस्परिक प्रेम का क्षय प्रारंभ होता है। जिस दिन वह अधिकार की लालसा गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट हो जाती है, गृहस्थ कलह का अखाड़ा बन जाता है। आज पढ़े लिखे मद्यान्ध नवयुवक इसी भावना को मन में भरे पृथक कुटुम्बों की आवाज बुलन्द करते हैं। अपने ही हाथों उन्होंने अपने सुख सुविधा को लात मार दी है।

अधिकार का अभिप्राय है-दूसरों को अपने आधीन रखना, अपने सुख का, भोग का यन्त्र, जब किसी भावना का प्रवाह एक ओर से चलना प्रारम्भ हो जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया दूसरी ओर से भी प्रारम्भ हो जाती है। तब एक दूसरे को भोग का यन्त्र बनाना चाहता है, तो दूसरा भी पहले को यन्त्र बनाने की धुन में लग जाता है।

इस कुचक्र से बचने का उपाय यही है कि परिवार का हर सदस्य अधिकार की अपेक्षा कर्त्तव्य पर अधिक ध्यान दे लेने की अपेक्षा देने का अधिक ध्यान रखे।

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