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Magazine - Year 1951 - Version 2

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गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता महान है।

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भारतवर्ष में विवाह-बंधन अत्यन्त पवित्र धार्मिक कृत्य माना गया है। इसमें अनेक उद्देश्यों की प्रतीति और महान् उत्तरदायित्वों की पूर्ति के साधन समाविष्ट हैं। भारत के प्राचीन मुनियों ने इसे मानव प्रकृति की उत्तम प्रवृत्तियों को स्वीकार करने, प्रकृति द्वारा आयोजित प्रजनन तथा सृष्टि विस्तार, सामाजिक सुव्यवस्था, सुदृढ़ नागरिक निर्माण और अन्त में निवृत्ति की चरम सीमा पर पहुँचने की व्यवस्था की है।

धर्मशास्त्र का प्रवचन है :-

“तथा तथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते।

अभिन्नेव प्रयुज्जानों ह्यास्मन्नेव प्रलीपते॥”

इस संसार के साथ हमारा संयोग है, इसी संसार में हमारा लय हो जायगा, तब हमें जिस समय जो कर्त्तव्य हो, वही करना अनिवार्य है। व्यक्तिगत सुविधा तथा असुविधा को लेकर कर्त्तव्य के पुण्य पथ से परिभ्रष्ट होना उचित नहीं। इसीलिए धर्म ने गृहस्थाश्रम को तपोभूमि कहकर उसकी महत्ता स्वीकार की है। यहाँ तक कि धर्म की दृष्टि में गृहस्थाश्रम ही चारों आश्रमों का मुख्य केन्द्र है। इस सम्बन्ध में योग शिविर वशिष्ठ का निर्देश देखिये-

“गृहस्थ एव जयते गृहस्थस्तप्यते तपः।

चतुर्णामाथ माणान्तु गृहस्थस्तु विशेष्यते॥”

अर्थात् - गृहस्थ ही वास्तविक रूप से वश करते हैं। गृहस्थ ही वास्तविक तपस्वी हैं- इसलिए चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही सबका शिरमौर है।

भारत धर्म के अनुसार गृहस्थाश्रम प्रकृत तपोभूमि है। इस काल में दो पवित्र आत्माओं का परस्पर सामंजस्य होता है तथा वे जीवन के युद्ध में प्रविष्ट होते हैं। उन्हें पग-पग पर उत्तरदायित्व, कठिनाइयाँ, साँसारिक संघर्ष, प्रतियोगिताओं में भाग लेना होता है। दोनों आत्माएं परस्पर सम्मिलित होकर एक दूसरे की सहायता करते हुए, तपस्या और साधना के मार्ग पर अग्रसर होती हैं।

प्रकृति के प्रजनन-क्रिया की सिद्धि के निमित्त जिस उद्दाय वासना को मानव-हृदय में प्रतिष्ठित किया है, उसकी उच्छृंखलता यौवन में आकर इतनी तीव्र हो उठती है, कि सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से उसका संयम आवश्यक है। भारतीय धर्म ने उस उद्दाय प्रवृत्ति को स्वीकार किया है तथा विश्व की संस्थिति और संपूर्णता के लिए, मनुष्य के विकास के लिए जरूरी माना है। अतएव प्रत्येक नागरिक को इस महायज्ञ में प्रवृत्त होने का आदेश प्रदान किया है।

गृहस्थाश्रम विषय-भोग की सामग्री नहीं है, स्वार्थमयी लालसा और पापमयी वासना का विकास मंदिर नहीं, वरन् दो आत्माओं के पारस्परिक सहवास द्वारा शुद्ध आत्म सुख, प्रेम और पुरुष का पवित्र प्रासाद है, वात्सल्य और त्याग की लीलाभूमि है, निर्माण प्राप्ति के लिए शान्ति कुटी है। विवाह से मनुष्य समाज का एक अंग बनता है, अपूर्णता से पूर्णता प्राप्त करता है, निर्बलता से सबलता की ओर अप्रसर होता है। उसे नये सम्बन्ध प्राप्त होते हैं, नये उत्तरदायित्व और नये आनंद प्राप्त होते हैं। भारतीय ऋषियों ने गृहस्थाश्रम को अनेक व्रत, नियम, अनुष्ठान, आतिथ्य-सत्कार इत्यादि पुण्य कर्त्तव्यों की लीला भूमि बनाकर उसकी महिमा को द्विगुणित किया है। उन्होंने पारिवारिक व्यवस्था में प्रेम और वात्सल्य तथा दूसरी और अपने से छोटे के लिए उन्हीं के हित में त्याग तथा तपस्या के द्वारा इसे तपोभूमि के समान पवित्र बना दिया है।

एक लेखक का विचार है- “इस तपो भूमि के पुण्य स्वरूप और पुण्य साधना का मधुर रहस्य जानने के लिए हम हिमालय की उस तुषार मंडित शिला पर चलें, जहाँ हिमालय की किशोरी पार्वती तपश्चर्या में निमग्न है। यही भारतीय गृहस्थाश्रम के मंगलमय स्वरूप का प्रथम दर्शन है। गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने से पूर्व रमणी को तपोमयी साधना में प्रवृत्त होना पड़ता है, क्योंकि जिस मंगलमय उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह अपने पवित्र सुँदर जीवन को

उत्सर्ग करती है, उसके लिए तपस्या और त्याग की परम आवश्यकता है। कुमार की उत्पत्ति तपस्या की सिद्धि का मधुर फल है, क्योंकि विश्व के परित्राण के लिए, देश के मंगल के लिए, समाज के अभ्युदय के लिए और मनुष्यता की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए ही कुमार के अवतार की आवश्यकता है। पुत्र या कन्या का जन्म भी धार्मिक महत्व रखता है। उसके साथ रमणीकी उत्कृष्ट सिद्धि भी सम्मिलित है।”

भारतीय वैवाहिक जीवन मंगलमय है। उसका प्रत्येक व्रत, नियम, अनुष्ठान, पूजन, चिन्तन इत्यादि विशेष महत्व रखता है। सतीत्व तथा एक पत्नीव्रत की पवित्रता से समुज्ज्वल, मातृत्व के मृदुल वात्सल्य से विभूषित, उत्तरदायित्वों के मनोरम भार से परिपूर्ण, प्रेम के प्रवाह से पूज्य भारतीय विवाहित जीवन त्याग को तेजोमय तीर्थ और पुण्य एवं कर्म की भूमि है। इसी के द्वारा स्त्रियों में स्त्रीत्व तथा पुरुषों में पुरुषत्व का विकास होता है। नर-नारी के मंगलमय चिर सम्मिलित के समय भारतीय समाज उन दोनों के प्रणय-सूत्र में आबद्ध करने के साथ ही साथ इस जन्म तथा मृत्यु के पश्चात् परलोक में भी परस्पर सहायता, सहानुभूति एवं स्नेहमय व्यापार के प्रतिज्ञा सूत्र में आबद्ध करता है।

हमारा हिन्दू धर्म जिस मंगलमयी साधना को लेकर सदा व्यस्त रहता है, वह है “प्रवृत्ति को निवृत्ति के पथ पर परिचालित करना।” हमारे यहाँ वासना की प्रवृत्ति को माना है, किंतु साथ ही साथ उसने इस प्रवृत्ति के परिष्कार, उन्नति करण और अन्ततः निवृत्ति में परिणत करना यह फल माना है। वैवाहिक जीवन हमारे जीवन की एक स्टेज है, जो भावी जीवन के निर्माण में सहायक है। हम सदा से यह मानते आये हैं कि असंस्कृत और उच्छृंखल प्रवृत्ति साधना और तपस्या के द्वारा परम शान्ति और त्यागमयी बनाई जा सकती है। विनाश की अपेक्षा वृत्तियों का सही मार्गों में बहाव, स्वार्थ और लालसा से निकल कर प्रेम और त्याग के मार्गों में उनका प्रवाह हमारे लिए विशेष महत्व रखता है।

आदि कवि से लेकर पण्डित राज जगन्नाथ ने अपने साहित्य में गृहस्थाश्रम का मनो मोदक रूप प्रतिष्ठित किया है। कौन ऐसा प्रान्त है जिसमें मातृत्व की मंगलमय मूर्ति, सतीत्व का त्याग और सौंदर्य और वात्सल्य की मन्दाकिनी प्रवाहित न हुई हो।

गृहस्थ में प्रविष्ट न होने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के मानसिक रोगों का शिकार बनता है। आयु कम रहती है, मानसिक भावनाएं विकसित नहीं हो पातीं, संसार के महत्वपूर्ण कार्यों में जी नहीं लगता, मनः पुनः पुनः सुँदर स्त्रियों के मानसचित्र बनाता और स्वप्नदोष उत्पन्न करता है। अविवाहित पुरुष की उत्पादन शक्ति क्षीण होती है। विवाह से उसे नया चाव, उत्साह, स्फूर्ति और प्रेरणा प्राप्त होती है। इसी प्रकार अविवाहित स्त्री कुढ़न, अनिद्रा, प्रमाद, चिंता, हिस्टीरिया, प्रजनन की गुप्त भावना, अतृप्ति, स्वार्थी और क्रोधी हो जाती है। विवाहित स्त्री का सौंदर्य बढ़ता है। शरीर के सब अंगों का नवीन ढंग से विकास होता है। मृदुल भावनाओं- दया, प्रेम, सहानुभूति, वात्सल्य, करुणा की अभिवृद्धि होती है।

डॉक्टर जेम्स स्टाक, रजिस्ट्रार जनरल आफ स्काटलैंड ने अपनी परिगणना द्वारा सिद्ध किया है कि कुँआरेपन से मनुष्य की आयु क्षीण होती है। विवाहित व्यक्तियों में से 80 और 20 वर्ष के मध्य 2407 व्यक्ति प्रतिवर्ष मरते हैं, किन्तु इसी अवस्था में कुँवारे एक लाख में से 1835 प्रतिवर्ष मरते हैं। 25 से 40 के मध्य में मरने वाले कुँआरों की मृत्यु अनुपात विवाहितों से दुगुना है बीमा कंपनियाँ अविवाहितों की अपेक्षा विवाहितों को पसंद करती हैं।

विवाह से पूर्णता की प्राप्ति।

पृथक-पृथक स्त्री और पुरुष अपूर्ण हैं। उनके गुण तथा स्वभाव भी अपने अंदर एक प्रकार की कमी, हीनता और किसी अदृश्य वस्तु की कामना करते हैं। जो गुण एक में नहीं है, दूसरों में उनकी मौजूदगी आकर्षण का विषय बनती है। स्त्री-पुरुष दोनों के स्वभावों का विश्लेषण देखिये-

स्त्री में चारुता, सहज ज्ञान पातिव्रत्य, कोमलता, सूक्ष्मता, भावुकता और लज्जा शीलता होती है। वे मानसिक संवेगों को तीव्रता से अनुभव करती हैं। वे स्नेह सरोवर की मीन हैं। उन्हें रूप लावण्य की अनुपम राशि प्रदान की गई है। शान्त प्रियता, सहनशीलता और धैर्य भी बहुत होता है। ये बातें बहुत कम करती हैं, पर सुनती बहुत अधिक हैं।

पुरुष पाशविक वृत्तियों, शक्ति, क्रोध, कार्य, दक्षता तथा “अहं” वादी है। क्रियाशीलता और प्रभुता प्रदर्शन उसके प्रमुख गुण हैं। पुरुष का मस्तिष्क पाशविक वृत्तियों के क्षेत्र में अत्यधिक बलवान है। प्रेम, क्रोध और प्रतिशोध के समय वह कुछ काल के निमित्त उदभ्रान्त-सा हो जाता है। प्रेम में शीघ्रता करता है। वह स्वभावतः, मजबूत, निर्णायक, प्रमाणिक, स्वाभिमानी, प्रचंड, दाता, उदार, कठिन परिश्रमी, बेलगाम, निग्रह हीन और युद्ध करने वाला है। उसका मन अस्थिर, चंचल, बेकाबू और एक विस्फोटक के समान है।

दोनों में स्वतंत्र यौन प्रभेद मिलते हैं। नर प्रेम करने में उन्मत्त, शीघ्र आवेगपूर्ण कामास्थिति में प्रचण्ड है। वह प्रेम से पूर्व स्त्री को हर प्रकार से अनुटक करने में सचेष्ट रहते हैं, तत्पश्चात प्रेमाराधना में लापरवाह से हो जाते हैं। पुरुष के प्रेम में प्रचण्डता है, किंतु वह शीघ्र ही ठण्डा हो जाने वाला ज्वालामुखी है। पुरुष के लिए प्रेम एक प्रकार का खेल है। इसके विपरीत स्त्री का संपूर्ण जीवन ही प्रेम से निर्मित हुआ है। वह प्रेम से ही जीती है और उसी से अपना भविष्य बनाती है। उसके आन्तरिक दृश्यों का विकास प्रेम के जल से ही होता है। सुप्रसिद्ध कवि शय वासना ने सत्य ही कहा है- “प्रेम स्त्री का संपूर्ण अस्तित्व है।”

स्त्री का प्रेम शान्त पर सहज प्रवाहित होने वाली सरिता की तरह गंभीर है। वह इन्द्रियों से प्रारंभ होकर आत्मिक ज्ञान की ओर अभिवृद्धि को प्राप्त होने वाला है। स्त्री एक बार प्रेम-दान देकर पुरुष को अपना सर्वस्व दान देती है। उसमें भक्तिभाव, पातिव्रत्य और आत्मिक ज्ञान अपेक्षाकृत अधिक है। हेवलाक ऐलिक ने सत्य ही निर्देश किया है- “पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में मौन क्षेत्र अधिक स्थूल और प्रसारित है, परन्तु उनमें वह उतने प्रधान भाव से व्यक्त नहीं होता। पुरुषों में काम-वासना की स्वाभाविक प्रवृत्ति शक्ति का एक अशान्त स्त्रोत है। वह उछल-उछल कर सब प्रकार की नालियों में बह जाता है।”

स्त्री प्रेम से शासन करना चाहती है। उसका प्रेम विकेन्द्रित होता है जिसमें उसके बच्चे, पति, भाई-बहिन इत्यादि सम्मिलित हैं। मातृत्व का भार उठाने पर उसका वात्सल्य विकसित होता है, करुणा, सहानुभूति, दया, प्रेम, नाना धाराओं में बहने लगता है। वह अपने बच्चे पर तो प्रेम न्यौछावर करती ही है, सभी बच्चों, पशु-पक्षियों तक को भावुक दृष्टि से निहारती है। स्त्री की भावनाएं तीव्र होती हैं। संवेग तथा भावना का उसके हृदय में राज है। सोच में डूबे रहना, प्रतीक्षा करना और सहजज्ञान-ये स्त्री के सनातन गुण हैं। वे अपने सहजज्ञान से पुरुष की साधारण और मौन आवश्यकताओं को पहले से ही भाँप लेती हैं और उसका प्रबंध करती हैं। दूसरों के मनोभावों को भाँपने तथा भविष्य में आने वाली विपत्तियों का अनुमान लगाने के लिए उन्हें विशेष गुप्त मनोवैज्ञानिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

डाँ. बरनार्ड डालेडर के अनुसार अधिकाँश स्त्री एक तीखी और गहरी दृष्टि से जान लेगी कि यह व्यक्ति कैसा है? धोखेबाज, बदमाश या सज्जन, नैतिक, बुद्धिमान। मूर्ख स्त्रियाँ दुराचारियों के वश में आ सकती हैं किंतु बुद्धिमती स्त्री बड़ी चतुर होती है। वह उसके चेहरे से अंदर के मनोभाव पढ़ सकती है। यदि आप अपना दुःख दर्द स्त्रियों के सामने वर्णन करें तो वे सहानुभूति प्रदर्शित करेंगी। वे पुरुषों की अपेक्षा अधिक भावुक हैं, अधिक प्रकार के मानसिक भावों का प्रकाश और अनुभव करती हैं। धार्मिक विचारों में वे पुराने संस्कारों से चिपकी रह जाने वाली हैं। स्त्री पुरुष की अपेक्षा अधिक व्यवहार कुशल है, अपने व्यवहार में अधिक उदार होती है, पुरुष के प्रेम पर सदा विचार किया करती है और उसके प्रशंसायुक्त प्रेम भरे वाक्य सुनने के लिए सदैव लालायित रहा करती है। संक्षेप में, पुरुष की अपेक्षा वह अधिक सहनशील, शान्ति, प्रतिमा, सम्पन्न, उदार एवं सहजज्ञान युक्त होती हैं।

विवाह में स्त्री पुरुष के उल्टे गुण एक दूसरे से मिल कर पूर्णता की सृष्टि करते हैं। दोनों का संयोग समाज का एक यूनिट बनाता है। यही यूनिट सम्मिलित रूप में समाज को आगे बढ़ाता है। न तो पुरुष स्त्री के बराबर है, न स्त्री पुरुषों के गुणों का अनुकरण कर अपने अंदर उन्हें उत्पन्न कर सकती है। सृष्टिकर्त्ता की रचना ऐसी है कि दो विभिन्न गुण वाले प्राणी भाईचारे और पारस्परिक साझेदारी से, एक दूसरे के स्वभाव और प्रकृति को समझकर सम्मिलित रूप से आगे बढ़ते हैं। स्त्री तथा पुरुष के गुण-दोष एवं प्रकृति एक स्थान पर मिलने से “मनुष्य” बनता है। यदि ये दोनों लिंगों के प्राणी एक दूसरे से पृथक रहेंगे, या लैंगिक प्रतियोगिताओं में उलझे रहेंगे, तो गृहस्थियों में पारस्परिक कहल की वृद्धि रहेंगी। समाज की समस्वरता नष्ट हो जायगी।

श्री सन्तराम जी ने लिखा है - “गृहस्थी एक साझे की दुकान है। इस दुकान के प्रधान साझेदार दो हैं - स्त्री और पुरुष। यह दुकान तभी बढ़ती फूलती है और लाभप्रद होती हैं जब ये दोनों साझेदार एक दूसरे के स्वभाव, प्रकृति, गुण, दोष, आवश्यकता और विशेषता को समझते हों। एक दूसरे का संपर्क बात न होने से उनका साझा भली भाँति नहीं चल सकता..... विज्ञान ने स्त्री और पुरुष की तुल्यता की घोषणा की है, न कि उनकी समानता की। बात केवल इतनी ही है कि स्त्री और पुरुष दोनों के संयोग से मनुष्य बनता है, ठीक उसी प्रकार जैसे धनात्मक और ऋणात्मक अणुवों के मिलने से विश्व बना है।”

विवाह के पश्चात पुरुष स्त्री को सुख के लिए तथा स्त्री को पति के आनन्द के निमित्त कुछ बलिदान करना पड़ता है। दोनों ही एक दूसरे को सुखी देखना चाहते हैं। अपने जीवन-मित्र के लिए अधिक से अधिक त्याग करने को प्रस्तुत रहते हैं। अतः स्वार्थ और संकुचिता नष्ट होकर उदारता और त्याग की भावनाएं जागृत होती हैं। जीवन का क्रम है “सुख की ओर अग्रसर होना।” इस त्याग का यह फल होता है कि दोनों ही सुखी रहते हैं। एक दूसरे के लिए सुख खोजने की प्रवृत्ति तथा उपकरण प्रस्तुत करने से अपने लिए सुख पाने का राज-पथ तैयार किया जाता है। इस प्रवृत्ति का जनक है कर्त्तव्यनिष्ठ गृहस्थ जीवन। गृहस्थ जीवन एक ऐसी पाठशाला है जिसमें स्त्री-पुरुष के स्वभाव एक होकर एक दूसरे की कमी पूर्ति करते हुए अधिक से अधिक सुख, समृद्धि और समाज हित के लिए अग्रसर होते हैं।

विवाहित स्त्री-पुरुष त्याग और आत्म-समर्पण की प्रतिमूर्ति हैं। पुरुष सिंह के समान बलशाली क्रोधी और तीव्र मनोविकारों का लड़ाकू जीव है। लेकिन अपनी पत्नी के समक्ष वह दयालु हो उठता है। जिस नारी को वह एक पराये घर से लाता है, अपने गृह की सम्पूर्ण व्यवस्था, गुप्त बातें उसे सौंप कर ठण्डी साँस लेता है। सब रुपया कमा कर उसी लक्ष्मी को अर्पण करता है। वह स्वयं अपने आप कुछ नहीं खाना चाहता। भूखा रह कर पत्नी के लिए अच्छी से अच्छी सामग्री प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार पत्नी स्वयं दुख उठाकर घर के कार्यों में लगकर पति को सुखी देखना चाहती है। वह अपना सुख, खान-पान, पहनावा इत्यादि पति के सुख पर उत्सर्ग कर देती है। यह पारस्परिक आत्म-समर्पण ही गृहस्थ जीवन का निर्माण करता है।

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