
पारिवारिक-प्रजातन्त्र के सुख तथा आनन्द।
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सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा कितनी लाभदायक एवं उपयोगी है, इसका विवेचन किया जा चुका है। इसकी इतनी उपयोगिता देखकर ही समाज में इसका प्रचलन हुआ था। अब भी कोई व्यक्ति अपने परिवार से पृथक होने की माँग करता है तो वह स्वार्थी समझा जाता है। जो लोग शामिल रहते हैं वे उदार दृष्टिकोण के सतोगुण प्रधान समझे जाते हैं।
उपरोक्त तथ्य के होते हुए भी आज हम देखते हैं कि सम्मिलित परिवारों में क्लेश, कलह, मनोमालिन्य, ईर्ष्या, द्वेष, आपाधापी, दुराव एवं कपट का बोलबाला है। घर में जो अधिक कमाता है, जो अधिक चतुर है, जिसकी चलती है वह अपने तथा स्त्री पुत्रों के स्वार्थ साधन को, प्रधानता देता है और परिवार के अन्य सदस्यों की उपेक्षा करता है। बड़े छोटों पर रौब गाँठते उन्हें उचित अनुचित तरीके से दबाते हैं। छोटे-बड़ों का समुचित आदर नहीं करते। उनकी कर्कशता के प्रतिरोध में अपमान जनक शब्द कहते तथा अवज्ञा करते हैं। कोई काम से जी चुराता है, किसी को अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। खान-पान, आदर-सम्मान, कपड़े-जेवर, श्रम-विश्राम, आना-जाना, मनोरंजन, जेबखर्च, बीमारी, चिकित्सा आदि में जब असमानता का व्यवहार होता है तो ईर्ष्या के अंकुर मन में उठते हैं। यह जब बराबर पनपते रहते हैं, बराबर उनमें पानी लगता रहता है, एक के बाद दूसरी घटनाएँ इन अंकुरों को पुष्ट करने के लिए उपस्थित होती रहती हैं तो मनोमालिन्य की जड़े मजबूत हो जाती हैं और नारंगी की तरह बाहर से एक दीखते हुए भी भीतर ही भीतर उस परिवार में पृथकता मजबूत हो जाती है। ऐसे परिवार उन सब लाभों से वंचित रह जाते हैं जो कि सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा में मिलने चाहिए। असंतुष्ट सम्मिलित परिवारों की स्थिति कई बार तो पृथक-पृथक रहने की अपेक्षा भी अधिक बुरी हो जाती है।
पारिवारिक कलह, असंतोष और मनोमालिन्य का कारण व्यवस्था क्रम में गड़बड़ी है। परिवार एक राज्य है। इसकी व्यवस्था, प्रणाली शासन पद्धति भी राज्य व्यवस्था के ढंग पर ही होनी चाहिए। प्राचीन काल में राजतंत्र का सिद्धाँत उपयोग भी था और सर्वप्रिय भी। पर आज समय बहुत बदल गया है। साँसारिक, सामाजिक, मानसिक परिस्थितियों में भारी हेर फेर हो गया है। इसलिए राजतंत्र के स्थान पर प्रजातंत्र को पसंद किया गया है। इंग्लैण्ड आदि देशों में जहाँ राजतन्त्र कायम है वहाँ भी प्रजा का हित ही प्रधान है। प्रजातन्त्र के तीन प्रमुख सिद्धान्त हैं। (1) जनता द्वारा शासन, (2) जनता के हित के लिए शासन (3) हर नागरिक के अधिकार की रक्षा। इसी आधार पर हमें पारिवारिक प्रजातन्त्र की स्थापना करनी चाहिए। वैधानिक प्रधान घर का मुखिया रहेगा पर गृह नीति के संचालक में परिवार के सदस्य का समुचित हाथ रखना चाहिए। घर के लोगों की नित्य नहीं तो प्रति सप्ताह एक बैठक अवश्य होनी चाहिए, जिसमें विचार विनिमय के लिए सबको अवसर मिले। इस बैठक में निम्न विषयों पर चर्चा की जावें। (1) हर सदस्य अपनी कठिनाई इच्छा तथा आवश्यकता बतावें। (2) गृह नीति में जो दोष हों या दूसरे सदस्य जो भूल कर रहे हों उसे बतावें। (3) पारिवारिक उन्नति के लिए जो सुझाव हों उन्हें रखें, (4) घर से बाहर की व्यापारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक समस्याओं पर विचार प्रकट करें। बैठक में घर का प्रधान एक-एक करके घर के हर सदस्य से यह चारों प्रश्न पूछें और बिना किसी संकोच के, निर्भयतापूर्वक किन्तु नम्रता और प्रेम मिश्रित वाणी में अपनी-अपनी बात विस्तार पूर्वक कहने के लिए हर सदस्य को अवसर दिया जाये। पर्दा प्रथा के कारण जो नव-वधुएं अपने विचार खुद नहीं प्रकट करना चाहती हैं वे किसी दूसरे के द्वारा अपनी बात कहलवा सकती हैं।
फूट और लड़ाई का अधिक आधार गलत फहमी पर निर्भर रहता है। जब आपस में विचार परिवर्तन होता रहता है तो बहुत सी गलतफहमी दूर होती रहती हैं और किसी ने जो भूल की थी वह सुधार लेता है। इस प्रकार इन बैठकों से लड़ाई झगड़े का आधार भाग तो अपने आप नष्ट हो जाता है। शेष बातों के सम्बन्ध में अपनी विचार विनिमय से ऐसे मार्ग ढूंढ़े जा सकते हैं जिनसे कठिनाइयाँ कम रहें और सुविधाएं बढ़ें।
अब घर का हर सदस्य यह समझता है कि गृह व्यवस्था में मेरा भी हाथ तथा अधिकार है। मेरे स्वार्थ भी समान रूप से सुरक्षित हैं, तो फिर कोई कारण नहीं कि वह सम्मिलित रहने के इतने लाभों को छोड़कर पृथकता की कठिनाई और जिम्मेदारी को अपने ऊपर लादना चाहे। यदि समानता, सम्मान, सुहृदयता और स्वार्थ रक्षा की चतुर्विधि व्यवस्था हर सदस्य के लिए बरती जाये तो परिवार सुदृढ़ आधार पर खड़े रहेंगे और अलग होने की आवश्यकता न पड़ेगी।
घर में सब लोग एक दूसरे का उचित सम्मान करें। कोई किसी के स्वाभिमान पर चोट न पहुँचावे। रोगी, बालक, वृद्ध या किसी विशेष स्थिति की बात छोड़कर भोजन के सम्बन्ध में समानता बरती जाये। स्वास्थ्य, आयु और योग्यता के अनुसार सबके काम बंटे हुए हों। न कोई निठल्ला रहें और न किसी को अत्यधिक श्रम करना पड़े। अपनी स्थिति के अनुसार थोड़ा-थोड़ा जेबखर्च भी हर एक को मिलता रहे जिसे स्वेच्छापूर्वक खर्च कर सकें। एक दूसरे की गतिविधि पर ध्यान रखें। समानता का अर्थ बालक और वृद्ध को समान मात्रा में भोजन देना या लड़की और नववधू को बराबर कपड़े जेवर बनवाना नहीं है। अपनी-अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप सबको चीजें दी जाये। आवश्यकता के अनुकूल वस्तुएं देना ही समानता का वास्तविक तात्पर्य है यदि रोगी को फल मिलते हैं तो निरोगी का भी वही माँगना यह समानता नहीं है। घर की आर्थिक स्थिति का, आय व्यय का ब्यौरा घर के समस्त बालिगों को मालूम रहना चाहिए।
इस प्रकार पारिवारिक प्रजातंत्र की स्थापना से गृह शासन भली प्रकार चल सकता है। सब की विचारधारा का सम्बन्ध होने से उत्तम गृह नीति बन सकती है। जब परिवार अधिक बढ़ने लगे या स्वभावों में असाधारण अंतर होने से किसी की पटरी न बैठती हो तो “प्रान्तीय स्वाधीनता” दी जानी चाहिए। केन्द्रीय सरकार के अधीन, गृह स्वामी की देख रेख में, अलग छोटे उप-परिवार भी बनाये जा सकते हैं। लड़-झगड़कर अलग होने की अपेक्षा, सहमति, स्वीकृति और संरक्षता में पृथक होना कहीं अच्छा है। स्त्रियों का संघर्ष चौका-चूल्हा अलग कर देने या काम बाँट देने से दूर हो जाता है। पुरुषों का संघर्ष कार्य क्षेत्र की पृथकता से मिट जाता है।
संकीर्ण, अनुदार, तुच्छ, दृष्टिकोण के कारण घर में संघर्ष होते हैं। अपने निजी स्वार्थों की परवाह न करके घर के अन्य सदस्यों के हित का समुचित ध्यान रखा जाये, आपस में प्रेम, सहानुभूति, सेवा, सहायता एवं समानता का उदार धार्मिक दृष्टिकोण रखा जाये तो परिवार का प्रजातन्त्र बड़ी अच्छी तरह चल सकता है। यह प्रजातंत्र घर में शान्ति रख सकता है, सुव्यवस्था रख सकता है। शत्रुओं को परास्त कर सकता है, अपनी प्रतिष्ठा बढ़ा सकता है और घर के हर एक व्यक्ति को सुरक्षा, सुविधा, निश्चिन्तता, प्रसन्नता तथा सम्पन्नता प्रदान कर सकता है। ऐसे प्रजातंत्र की प्रजा अपनी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति की ओर निरन्तर अग्रसर हो सकती है।
आइए! हम लोग अपने घरों में पारिवारिक प्रजातंत्र की स्थापना करके गृह-स्वराज्य का उपभोग करें।