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Magazine - Year 1951 - Version 2

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हमारा परिवार तथा भिन्न-भिन्न सम्बन्ध।

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परिवार एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें मुखिया, प्रेसीडेन्ट तथा परिवार के अन्य सज्जन प्रजा है। पिता-माता, पुत्र, बहिन, चचा-चाची, भाभी, नौकर इत्यादि सभी का इसमें सहयोग है। यदि सभी अपने सम्बन्ध आदर्श बनाने का प्रयत्न करें, तो हमारे समस्त झगड़े क्षण मात्र में दूर हो सकते हैं।

पिता और पुत्रः एक वृहत् आत्मा तथा उसके आत्माँश का सम्बन्ध वही हो सकता है, जो आदि प्रभु तथा पृथ्वीतल की अन्य आत्माओं में परस्पर हो सकता है। आज हम देखते हैं कि पिता पुत्र में कटुता है। इसका कारण पिता के पुत्र पर डाले गए दूषित संस्कार है। यदि पुत्र में दुर्गुण हैं, तो उसका उत्तरदायित्व पिता पर ही माना जायेगा। यदि वह कुछ भी दूरदर्शिता से कार्य लेता, तो पुत्र को किसी भी ढांचे में परिवर्तित कर सकता था। बिगड़े हुए पुत्रों के पिताओं में दोष है। उसका परिष्कार भी वहीं से होना उचित है। पहले पिता अपना सुधार करें। तत्पश्चात् पुत्रों से उन्नति की आशा करें।

पिता का उत्तरदायित्व सबसे अधिक है। वह परिवार का अधिष्ठाता है, आदेश कर्ता और संरक्षक है। उसके कर्त्तव्य सबसे अधिक हैं। वह परिवार की आर्थिक व्यवस्था करता है, बीमारी में दवा-दारु, कठिनाई में सहायता, कुटुम्ब की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। संपूर्ण कुटुम्ब उसी की बुद्धि, योजनाओं, योग्यताओं और पथप्रदर्शन पर निर्भर है।

क्या आप पिता हैं? यदि हैं तो आप पर उत्तरदायित्व का सबसे अधिक भार है। घर का प्रत्येक व्यक्ति आपसे पथप्रदर्शन की आशा करता है। संकट के समय सहायता, मानसिक क्लेश के समय सान्त्वना और शैमितय में प्रेरणात्मक उत्साह चाहता है। पिता बनना सबसे कठिन है क्योंकि इसमें छोटे-बड़े सभी को इस प्रकार संतुष्ट रखना पड़ता है कि किसी से कटुता भी न हो, और कार्य भी होता रहे। घर के सब झगड़े भी दूर होते चलें और किसी के मन में गाँठ भी न पड़े। परिवार के सब सदस्यों की आर्थिक आवश्यकताएं भी पूर्ण होती रहें, और कर्ज भी न हो, विवाह, उत्सव, यात्राएं, दान भी यथाशक्ति दिये जाते रहें।

पुत्रों को पिता से कितनी प्रेरणा और पथ प्रदर्शन हो सकता है, इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों के अनुभव देखिए। युवक कैक्सटन कहता है -

“मैं प्रायः औरों के साथ की लम्बी सैर, छोड़ क्रिकेट का खेल छोड़, मछली का शिकार छोड़ अपने पिता के साथ बाहर बगीचे की चाहर दीवारी के किनारे धीरे-धीरे टहलने जाता। ये कभी तो चुप रहते, कभी बीती बातों को सोचते हुए आगे की बातों की चिन्ता करते पर जिस समय वे अपनी विद्या के भंडार को खोलने लगते और मध्य में चुटकुले छोड़ते जाते, उस समय एक अपूर्व आनंद आ जाता था।” कैक्सटाइन थोड़ी-सी कठिनाई आ जाने पर पिता के पास जाता था और अपने हौंसलों और आशाओं को उसी के सामने कहता। वह उसे नई प्रेरणा से भर देता था।

डॉक्टर ब्राउन कहते हैं - “मेरी माता की मृत्यु के उपरान्त मैं उन्हीं के पास सोता था। उनका पलंग उनके पढ़ने के कमरे में रहता था, जिसमें एक बहुत छोटा-सा आतिशदान भी था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि किस प्रकार वे उन मोटी बेढंगी जर्मन भाषा की पुस्तकों को उठाते थे और उनसे चारों ओर से घिर कर उनमें गड़ जाते थे। पर कभी-कभी ऐसा होता कि बहुत रात गये या सवेरा होते-होते मेरी नींद टूटती और मैं देखता कि आग बुझ गई है, उजाला खिड़की के रास्ते से कुछ-कुछ आ रहा है, उनका सुन्दर गम्भीर मुख झुका हुआ है और उनकी दृष्टि उन्हीं पुस्तकों की ओर गड़ी हुई है। मेरी आहट सुनकर वे मुझे मेरी माँ का रखा हुआ नाम लेकर पुकारते और बिस्तर पर आकर मेरे गरम शरीर को छाती से लगाकर सो रहते।” इस वृतान्त से हमें उस स्नेह और विश्वास का आदर्श मिलता है, जो पिता पुत्र में होना चाहिए।

आज के युग में पिता-पुत्र में जो कड़ुवाहट आ गया है वह नितान्त संकुचिता है। पुत्र अपने अधिकार माँगता है। किन्तु कर्त्तव्यों के प्रति मुख मोड़ता है। जमीन, जायदाद में हिस्सा माँगता है, किन्तु वृद्ध पिता के आत्म सम्मान, स्वास्थ्य, उत्तरदायित्व, इच्छाओं पर तुषारापात करता है। पुत्र ने परिवार के बंधन थिथिल कर दिए हैं। घर-घर में व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा अनुशासन विरोध का कुचक्र फैल रहा है। यह प्रत्येक दृष्टि से निन्दनीय एवं त्याज्य है।

पुत्र पिता से क्या क्या सीखता है?

पिता-पुत्र का सम्बन्ध बड़ा विचित्र है। पिता को पुत्र के मनोविकारों की अच्छी जानकारी होती है। उसका पुत्र के साथ तीन प्रकार का सम्बन्ध होता है। (1) पथप्रदर्शक का, (2) तत्वचिन्तक का, (3) मित्र का।

पिता के संरक्षण पर पुत्र निरंतर कुछ न कुछ सीखता है। पिता को चाहिए कि बड़ी सावधानी से जीवन में आने वाले प्रलोभन, कठिनाइयाँ, तथा अन्य आवश्यक जानकारी का परिचय वह पुत्र को करा दे। बड़ा होने पर पुत्र के साथ वही व्यवहार किया जाय, जो मित्र के साथ होता है। पिता-पुत्र के अच्छे सम्बन्धों का गुर यही है कि ज्यों-ज्यों पुत्र बड़ा होता जाय, त्यों-त्यों पिता उस पर अनुशासन कम करता जाय, मित्र बनाने का उपक्रम करें, महत्वपूर्ण बातों में उससे सलाह ले, उसकी राय लेकर रुपया व्यय करे, और उस पर यह धाक जमा दे कि वह उसका पूर्ण विश्वास करता है। पिता पुत्र के स्नेह में यद्यपि मृदुलता कम रहती है, पर विश्वास की मात्रा अधिक रहती है, यद्यपि आलम्बन का मृदुल भाव कम रहता है, पर समता की बुद्धि विशेष रहती है।

बुद्धिमान तथा सुशील पिता से जितना हम सीख सकते हैं उतना सैकड़ों शिक्षकों से नहीं। पिता सबसे बढ़कर हितैषी, शिक्षक है, जिसके पाठ हम न केवल मुख से, वरन्, उसके कार्यकलाप-आचार व्यवहार, चरित्र नैतिकता सबसे ग्रहण करते हैं। उसके धैर्य, आत्मनिग्रह, कोमल स्वभाव, सम्भावनाओं की तीव्रता, शिष्टता, पवित्रता और धर्म परायणता आदि गुण का स्थायी प्रभाव पुत्र पर प्रतिपल पड़ता है।

मुझे स्वयं अपने पिता के पथप्रदर्शन का अनुभव है। मैं जब प्रारम्भिक दिनों का स्मरण करता हूँ, तो मुझे उन्हीं के गुण अपने व्यक्तित्व में विकसित मिलते हैं। तीस वर्ष पूर्व जब मैं एक अबोध बालक था, जमींदार पिता के साथ अपने गाँव के भीषण जंगलों में रहा। उन्हीं के साथ सोना, प्रातः जागरण, भजन, पूजा फिर दौड़ और अध्ययन, दूर-दूर की सैर, प्रकृति के अंचल में तैरता हुआ अनुभव मेरे दिल दिमाग में है। कभी मैं देखता देर रात्रि में पिताजी बैठे पुस्तक पढ़ रहे हैं, पेंसिल से निशान लगाते जाते हैं, झट-झट पुस्तकों का रसास्वादन करते जाते हैं। उनकी कापियाँ, लिखने का ढंग, प्रोफेसरी-सभी कुछ मेरे मस्तिष्क में एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया से घुस गया है। मैं आज बौद्धिक और नैतिक चिंतन के क्षेत्र में जहाँ तक पहुँचा हूँ, उन्हीं के पद चिन्हों पर चल कर हो सका है। उनकी आदतें और विश्वास हमारे प्रत्येक परिवार के सदस्य में प्रविष्ट हो गये हैं।

पिता का जीवन एक खुली पुस्तक है, जिसका प्रत्येक पृष्ठ खुला रहना चाहिए, जिसकी एक-एक पंक्ति और अक्षर घर के छोटे व्यक्ति पढ़ सकें और जीवन में उतार सकें। पिता के धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कारों का सबसे अधिक प्रभाव पुत्र पुत्री के आध्यात्मिक जीवन पर पड़ता है। हम उन संस्कारों, मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं द्वारा विनिर्मित हुए हैं, जिनका अलक्षित प्रभाव हमारे माता-पिता हमारे ऊपर छोड़ गये हैं।

माता का प्रभाव :-

माता स्नेह की साक्षात प्रतिमूर्ति है। उसकी भावनाओं तथा दूध पिलाते समय की आकांक्षाओं से हमारे मनोजगत का निर्माण हुआ करता है। माता बचपन में बालक को जैसी कहानियाँ, आपबीती, चुटकुले या और बातें सुनाया करती हैं, वे बालक के अंतःप्रदेश में प्रवेश करके ग्रन्थियों का निर्माण करते हैं। माता की लोरियों विशेष प्रभावशाली होती हैं। बालक अर्द्धनिद्रा में निमग्न है। माता लोरी गा-गा कर उसे सुला रही है। यह एक प्रकार की आत्मप्रेरणा है, जो धीरे-धीरे उसके बनते हुए गुप्त मन पर प्रभाव डाल रही है। इसी से उसका मानसिक संस्थान बनता है। माता की पूजा एक आध्यात्मिक साधन है जिससे मन को शान्ति प्राप्त होती है। माता भी पुत्र को उन्हीं अंशों तक दबाती है, जहाँ तक उसके “अहं” पर ठेस न पड़े। वह पुत्र के लिए महान त्याग को प्रस्तुत रहती है। फिर पुत्र के लिए जो कर दे, थोड़ा ही गिना जायेगा।

पं. रामचन्द्र शुक्ल का मत श्रेष्ठ है। आप लिखते हैं। - “पुत्र को माता-पिता के व्यय का, उससे अधिक अनुभव का, उसके उन दुखों का जिन्हें उसने उनके लिए उठाया है, सर्वदा ध्यान रखना चाहिए। पुत्र को पिता के स्वाभाविक बड़प्पन को स्नेह पूर्वक खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए। बहुत से पत्र ऐसे होते हैं, जो बिलकुल बुरे, बे कहे और स्नेह शून्य तो नहीं होते, पर वे अपने पिता के साथ मान मर्यादा का भाव छोड़ इस प्रकार के हेल मेल का व्यवहार रखते हैं मानो उनका गहरा सगी हो। वे उससे चलती बाजार बोली में बात चीत करते हैं और वे उसके प्रति इतना सम्मान भी नहीं दिखाते जितना एक बिना जाने सुने आदमी के प्रति दिखलाते हैं। यह बेअदबी तिरस्कार से भी बुरी है।’

भाई-भाई का व्यवहार सरस करने के अमूल्य उपाय

भाई-भाई के झगड़ों के कारण एक ही घर में दीवार खिंच जाती है और थोड़ी सी बात में झगड़ा बढ़ सकता है। भाइयों में पारस्परिक कटुता के कारण प्रायः ये होते हैं - (1) जायदाद का बटवारा, (2) पिता का एक पर अधिक स्नेह दूसरे का तिरस्कार, (3) एक भाई का अधिक पढ़ लिख सम्पन्न होना, दूसरे की हीनता, (4) मिथ्या गर्व और अपने बड़प्पन की मिथ्या भावना, (5) अशिष्ट व्यवहार, (6) एक भाई की कुसंगति, सिगरेट या व्यभिचार इत्यादि दुर्गुण (7) उनकी पत्नियों का मन परस्पर न मिलना।

उपरोक्त कारणों में कोई भी उपस्थिति होने पर बड़े भाई को पूर्ण शान्ति और विवेक से छोटे की मनोवृत्ति पर देखभाल, सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिए। कभी-कभी तनिक से विवेक बुद्धि और शाँति से बड़े काम बनते हैं। गर्मा-गर्मी में आने से अपशब्द उठते हैं, बड़े भाई को आत्म सम्मान एवं प्रतिष्ठा की हानि होती है। यदि एक दूसरे लिए थोड़ा सा त्याग कर दिया जाय, तो अनेक झगड़े तय हो सकते हैं।

जायदाद के बटवारे के मामले में किसी बाहरी सज्जन को डालकर उचित बटवारा कराना और जितना मिले उसी में प्रत्येक को संतोष रखना चाहिए। यदि हम थोड़ा सा त्याग करने को प्रस्तुत रहें, तो कोई कठिनाई आ ही नहीं सकती। यदि पिता एक पुत्र पर अधिक तथा दूसरे पर कम प्रेम प्रकट करते हैं, तो भी व्यग्र होने का कोई कारण नहीं है। पिता के हृदय में सबके प्रति समान प्रेम है। चाहे वे प्रकट एक पर ही करें, वह प्रत्येक पुत्र-पुत्री को समभाव से प्रेम करते हैं। इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने से हम अनेक कलुषित और अनर्थकारी विचारों से बच सकते हैं।

झगड़ा कराने में पत्नियों का विशेष हाथ रहता है। उनमें ईर्ष्या का दुर्गुण बहुत मात्रा में होता है। यदि पत्नियों को शिक्षा दी जावे और कुशलता से स्त्री स्वभाव की इस कमजोरी का ज्ञान करा दिया जावे, तो अनेक झगड़े प्रारंभ ही न हों। एक अच्छा नियम यह है कि पत्नी की बातों में न आया जाय और गलतफहमी से बचा जाय। यदि कोई गलतफहमी आ जाय तो शान्ति से उसे दूर करना उचित है। उसे हृदय में रखना पाप की मूल है। बाहर वालों के कहने में कदापि न आना चाहिए।

भाई से आपकी आत्मा और रक्त का सम्बन्ध है। दोनों में उसी आत्मा का अंश है, उसी रक्त से उनके शरीर, मन तथा भावनाओं का निर्माण हुआ है। उसमें कटुता का तत्व किसी तीसरे के षडयंत्र से होता है। समाज में ऐसे व्यक्तियों की न्यूनता नहीं है, जो परस्पर युद्ध करा दे। अतः उनसे बड़े सावधान रहें।

भाई आपका सबसे बड़ा मित्र और हितैषी है। बड़ा भाई पिता तुल्य गिना जाता है। छोटा भाई आड़े समय अवश्य काम आता है। सेवा करता है। एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। यदि दो भाई मिल जुलकर अग्रसर हों तो संसार में निर्विघ्न चल सकते हैं। एक दूसरे के आड़े समय पर काम आ सकते हैं, आर्थिक सहायता कर सकते हैं, और एक के मरने पर दूसरे के कुटुम्ब का पालन पोषण कर सकते हैं। वे भाई धन्य हैं जो मिलजुल कर चलते हैं।

छोटा भाई आप में पथप्रदर्शक, हितैषी एवं संरक्षक की प्रतिच्छाया देखता है। उसके लिए आपको वही त्याग और बलिदान करने चाहिए जो एक पिता अपने पुत्र के लिए करता है। पिता की मृत्यु के पश्चात ज्येष्ठ पुत्र के ऊपर संपूर्ण उत्तरदायित्व आ जाता है।

सन्तान के साथ हमारा व्यवहार :-

ईश्वर ने जो संतान तुम्हें दी है, वह अनेक जन्मों के वरदान और उपहार स्वरूप प्राप्त हुई है। उसे परमेश्वर का अनुग्रह समझ कर ग्रहण करना चाहिए। संतान के प्रति सच्चा और निष्कपट प्रेम करना चाहिए। यह अनुचित लाड़ या झूठा स्नेह न हो जो तुम्हारी स्वार्थपरता और मूर्खता से उत्पन्न होता है और उनके जीवन को नष्ट करता है।

तुम यह कभी न भूलो कि तुम्हारे गृह में पदार्पण करने वाले तुम्हारे आत्म स्वरूप ये बालक भावी नागरिक हैं, जो समाज और देश का निर्माण करने वाले है। ईश्वर की और से तुम्हारा यह कर्त्तव्य है कि उनकी सुशिक्षा, शिष्टता तथा परिष्कार की समस्या में हम पर्याप्त दिलचस्पी लें।

तुम अपनी संतान को केवल जीवन के सुख और इच्छा पूर्ति मात्र की ही शिक्षा न दो, वरन् उनको धार्मिक जीवन, सदाचार और कर्त्तव्य पालन, आध्यात्मिक जीवन की भी शिक्षा-प्रदान करो। इस स्वार्थमय समय में ऐसे माता-पिता विशेषतः धनवानों में बिरले ही मिलेंगे, जो संतान की शिक्षा के भार को, जो उनके ऊपर है, ठीक-ठीक परिमाण में तोल सकें।

जैसा वातावरण तुम्हारे घर का है, उसी साँचे में ढलकर तुम्हारी संतानों का मानसिक संस्थान, आदतें, साँस्कृतिक स्तर का निर्माण होगा। जबकि तुम अपने भाइयों के प्रति दयालु, उदार और संयमी नहीं हो, तो अपनी सन्तान से क्या आशा करते हो कि वे तुम्हारे प्रति प्रेम दिखलाएंगे। जब तुम अपना मन विषय-वासना, आमोद-प्रमोद तथा कुत्सित इच्छाओं से नहीं रोक सकते, तो भला वे क्यों न कामुक और इन्द्रिय लोलुप होंगे। यदि तुम माँस, मद्य या अन्य अभक्ष्य पदार्थों का उपयोग करते हो, तो वे भला किस प्रकार अपनी प्राकृतिक पवित्रता और दूध जैसी निष्कलंकता को दूर रख सकेंगे। यदि तुम अपनी अश्लील और निर्लज्ज आदतों, गन्दी गालियों, अशिष्ट व्यवहारों को नहीं छोड़ते, तो भला तुम्हारे बालक किस प्रकार गन्दी आदतें छोड़ सकेंगे।

तुम्हारे शब्द, व्यवहार, दैनिक कार्य, सोना, उठना-बैठना ऐसे साँचे हैं, जिनमें उनकी मुलायम प्रकृति और आदतें ढाली जाती हैं। वे तुम्हारी प्रत्येक सूक्ष्म बात देखते और उनको अनुकरण करते हैं। तुम उनके सामने एक मॉडल, एक नमूने या आदर्श हो, जिसके समीप वे पहुँच रहे हैं। इसलिए यह तुम्हीं पर निर्भर है कि तुम्हारी सन्तान मनुष्य हो या मनुष्याकृति वाले पशु।

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