
जीवन का सम्मान
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पशु-पक्षी भी तो जीते हैं -- मानव ! जीवन-सम्मान करो। काँटों में पलता फूल, किन्तु,
मधु-सौरभ देता रहता है।
अपना जीवन दे-देकर धन,
वसुधा का अव्वल भरता है।
जीना सीखो, इस जीवन की --परहित हँस-हँस बलिदान करो॥
तिनके विपदा की झंझा में,
धीरज खोते हैं, रोते हैं।
रहते अविचल उन्नत-मस्तक,
वे सारयुक्त जो होते हैं।
विघ्नों में हृदय-शिरीष-कुसुम -- हे वीर! वज्र उपमान करो॥
कल-कल करती जीवन-सरिता,
संगीत मधुर, निश्छल गावे।
अरि के प्राणों की वीणा भी,
जिसको सुन झंकृत हो जावे।
अभिशाप दैव का नहीं, इसे -- विधि का अनुपम वरदान करो॥
सम्मान भोगते तुम सस्मित,
अपमान सहो तो हंस-हंसकर।
जयमाल पहनते प्रमुदित तो,
स्वीकार पराजय हो सादर।
पीयूष चाहता कौन नहीं -- तुम बढ़ो, गरल का पान करो॥
देखो मुड़कर न मरु स्थल को,
चढ़ जाओ, यदि है अचल खड़ा।
लहलहा उठेगा, सींचो तो,
आगे है, क्षेत्र विशाल पड़ा।
गिरि बनता कण-कण से, जीवन - क्षण-क्षण को जोड़ महान करो॥
पशु-पक्षी भी तो जीते हैं -- मानव-जीवन-सम्मान करो॥
(श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी, बी. ए., साहित्य-रत्न) *समाप्त*