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Magazine - Year 1956 - Version 2

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वैयक्तिक सेवा

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First 11 13 Last
(स्व॰ लाला हरदयालजी)

जी प्राचीन समय से ही हमारी यह मान्यता रही है कि निरुपाय, असहाय एवं अपाहिज व्यक्ति को यदि कहीं से किसी व्यक्ति द्वारा आर्थिक सहायता मिल जाती है तो वह जीवनपर्यन्त उस परोपकारी व्यक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते नहीं थकता। परन्तु यदि इसी प्रकार के असमर्थ व्यक्ति को किसी की निजी सेवा का लाभ प्राप्त होता है तो वह उसके उस सत्कार्य को स्मरण करते समय एक अनिर्वचनीय आनन्द और चैन की साँस लेता है और कह उठता है कि निजी सेवा की भावना और प्रयोग के सामने मर्त्यलोक के सभी साधन सभी सामग्री व्यर्थ हैं। भुक्तभोगी के द्वारा संतोष और सुख का अनुभव करने की यह भावना झोंपड़ियों से लेकर राजप्रासादों तक अपनी अमिट छाप लगा देती है! मित्र द्वारा सेवा पाकर मित्र अपने को धन्य मानता है, राजा द्वारा सेवा पाकर रंक अपने को बड़भागी समझता है, यहाँ तक कि अपने पुत्र की सेवा पाकर माता अपना जीवन और दूध सफल मानती है।

हमारे हाथों की सेवा, हमारा समय, काम-धाम सब उन लोगों के लिए होने चाहिए, जिन्हें इनकी आवश्यकता है ऐसे लोगों की कहीं ढूंढ़ने नहीं जाना है। वे तो प्रत्येक गाँव की गलियों, प्रत्येक नगर के कूचों एवं प्रत्येक आबादी में मिलेंगे। हमें यह नहीं देखना है कि हम किनकी सेवा करें और किनको पड़े रहने और सड़ते रहने दें। हमें जाति पाँति, प्राँतीयता, राष्ट्रीयता या धार्मिकता से ऊपर उठकर अपनी सेवाएँ अर्पण करनी होंगी। जहाँ कष्ट में फँसे लोग होंगे, वहीं सेवा की आवश्यकता पड़ती है और वही उसकी वास्तविक मूल्य आँका जाता है।

इस प्रकार का सेवा-भाव न कानून देखता है न विधान, न संस्थाएं देखती हैं न संघ। यह स्वतंत्र और अबाध है। यह उदार आशय वाले व्यक्तियों से हृदय से निकल कर दीन-दुखियों की झोंपड़ियों तक जा पहुँचता है। यदि हम इस अस्त्र का प्रयोग करं तो हम अपने चारों ओर फैले हुए विषैले वातावरण से, कठिनाइयों तथा अड़चनों से छुटकारा पा सकते हैं।

राजनैतिक और आर्थिक समितियाँ राष्ट्र के निर्माण में प्रशंसनीय भाग लेती हैं, परन्तु उनके उपायों का सुखद परिणाम महीनों अथवा वर्षों बाद देख पड़ता है। आवश्यकता आज है, पर प्रबन्ध होते होने सप्ताह और मास बीत जायेंगे। यह बात व्यक्ति गत सेवा का लाभ पाने वाले और देने वाले के साथ नहीं है। सेवाभाव मन में उठा और तत्काल ही पीड़ित को लाभ पहुँचा। यहाँ घन्टों दिनों और सप्ताहों की आवश्यकता ही नहीं। आप राह चलते-चलते किसी भिखारी को पैसा दे देते हैं और वह इसी प्रकार कई लोगों से एक- एक पैसा पाकर कुछ आने इकट्ठे कर लेता है और पेट भर लेता है। पैसा उसे मिला कि उसका पेट भरा। यदि कोई राजनैतिक संस्था बड़ी प्रगतिशील होने का दम भरे और सभी भिखारियों की रोटी का सवाल हल करने पर तुल जाय तो वर्षों लग जायेंगे। सारा समय योजनाएं बनाने और रद्द करते बीत जायगा और लाभ एक भिखारी का भी न होगा। यदि सभी लोग इस बात का संकल्प कर ले कि वे जिसे भी कष्ट में देखेंगे उसे पहुंचाएंगे तो सारे व्यर्थ के संगठन तितर-बितर हो जाएं और समाज का ढीली चाल वाला छकड़ा रेलगाड़ी की भाँति सुव्यवस्थित रूप से द्रुतगामी हो जाय।

आज की परिस्थितियां सुझाती हैं कि भविष्य में अभी वर्षों तक अशाँति और उपद्रवों का बोलबाला रहेगा। बेजा दबाव, जबरदस्ती और विश्वासघात का ही दबदबा रहेगा। तब ऐसी परिस्थितियों में क्या कानून और राजनीति काम आएगी? अन्धकार के उन दुर्दिनों में प्रेमपूर्ण सेवाभाव ही काम दें सकेगा और यही महौषधि जनसमाज को विनष्ट होने से बचा सकेगी।

जनतंत्र गिरेगा और उठेगा। जनता और वर्गों के सभ्यता और बर्बरता के संघर्षों के बीच उसका बार-बार उत्थान और पतन होगा। अत्याचारी शासन निरंकुश बन जायगा, और मानवता हाय-हाय करती हुई कराह उठेगी। तब असहाय और सताए हुए प्राणियों की रक्षा केवल सेवा-भावी स्त्री-पुरुषों द्वारा ही होगी। उन्हीं द्वारा त्रस्त जनता का कल्याण होगा।

जिस व्यक्ति के जीवन में सेवा भाव का समावेश नहीं हुआ, जिसने दूसरों को पीड़ा से मुक्त नहीं किया, उसका जीवन अपूर्ण कहा जाएगा। चाहे वाह विद्वान हो कलाविद हो अथवा कुशल राजनीतिज्ञ एवं लेखक या कवि हो; यदि उसने निराश, पराश्रित, परमुखापेक्षी और तिरस्कृत प्राणियों को स्वयं सहायता नहीं पहुँचाई तो उसका जीवन खोखला है। वह मानव कहलाने का कदापि अधिकारी नहीं।

पूछा जाता है कि आखिर किया क्या जाय? करने के लिए कामों की कभी कमी नहीं रही है। हाँ कोई न करना चाहे तो दूसरी बात है। देश में अपाहिजों और लुँजों की कमी नहीं है। अंधे, बहरे,गूंगे बहरे आदि जो शारीरिक अभावों से लाचार हैं, उनको आपकी आवश्यकता है- आपके धन की नहीं। आप उस दुख और निराशा का अनुभव तक नहीं लगा सकते, जिसके लाखों प्राणी दया और क्षमा के लिए घिघियाया करते हैं। आप अंधे को ही लीजिए। आप स्वयं प्रातःकालीन अरुणाभा और सायंकालीन नदी-तट का आनन्द लेते हैं। चित्रकारी, वास्तुकला आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं, नन्हें-नन्हें बालकों के निखरे सौंदर्य व चपलता को देखकर उन पर अपना हृदय उड़ेलते हैं और हिमालय की सुषुम्ना और ताज की मनोरमा छटा का लाभ उठाते हैं। यही नहीं, आप एक बार किसी दर्शनीय वस्तु को देख लेते हैं तो जीवन-पर्यन्त उसे भूलते नहीं और मन ही -मन उस अतीत के चित्र का रस लेते रहते हैं। परन्तु अन्धे के लिए इन भव्य प्राकृतिक दर्शनों का, अद्भुत इमारतों का, बाल- सुलभ चपलता आदि का क्या मूल्य? ऐसे- ऐसे व्यक्ति पड़े हैं जिन्होंने अपनी पत्नी और पुत्रादि का मुख नहीं देख पाया और अंधे हो गए। आप यदि परिवार वाले हैं तो उन अभागों के संताप और क्षोभ का अनुभव कर सकते हैं। कहा भी गया है कि “ मृत्यु का आह्वान करना सरल है; परन्तु जीवितावस्था में प्रज्ञा चक्षु बनकर रहना असहनीय है।” तब आपका कर्त्तव्य हो जाता है कि दिन में,सप्ताह में, मास में, कम से कम एक बार किसी अंधे के पास जाकर उसका सुख-दुःख पूछें उसे कुछ समझायें, कुछ पढ़कर सुनायें, उसकी पत्र लिखा दें। केवल इसी बात से संतोष न कर लें कि आप ने अंधाश्रम को कोष में कुछ रकम दी है। उन बेचारों को धन से अधिक आपकी सहानुभूति, आपकी उदारता और सेवा की जरूरत है। एक बार उसे रास्ता पार करा दोगे तो उमर भर याद रखेगा। मैंने एक बार एक दुकान के कुछ अंधों से पूछा कि मैं उनके किस काम आ सकता हूँ? उनका सीधा उत्तर था-” दुकान पर काम करते समय आप हमें कोई मनोरंजक पुस्तक पढ़कर सुनाया करें।”

गूँगों की दशा तो और भी खराब है। बात-चीत करने से, अपने मन का भाव प्रकट करने से, दूसरों के भावों को समझने तथा सामाजिक चहल-पहल से उन्हें दूर रहना पड़ता है। उनके पास जाइए, लिखकर बात कीजिए, ओठों से पढ़ना सिखाइए।

जरा उनकी दशा का ध्यान कीजिए जो हाथों या पैरों से लुँज है अथवा दोनों अभावों से पीड़ित हैं। बिना हाथ वाला कब तक जिन्दा रह सकता है? बिना पैरों वाला कब तक एक स्थान पर बैठे? अपना काम चला सकता है? ऐसे-ऐसे अपाहिजों को केवल दूसरों की सहायता का ही आसरा है। आपकी आवश्यकता उन्हें इसलिए है कि आप उन्हें उठाएं, बैठाएं जीनों पर चढ़ाएं-उतारें, सड़क पार कराएं, कपड़े पहिना दें, अथवा उनका भोजन पका दें। जो कुछ भी आप उनके लिए करेंगे वही थोड़ा है।

जो बहुधा आधि-व्याधियों से पीड़ित होकर चारपाई पकड़ लेते हैं और इतने अशक्त हो जाते हैं कि स्वयं उठकर न पानी पी सकते हैं न डाक्टर के यहाँ जा सकते हैं, न उसे फोन द्वारा ही बुला सकते हैं, उन्हें समय पर पथ्य चाहिए, समय पर दवा चाहिए, बुखार नपवाना है, गरम पानी से स्नान करना है। यहाँ तक कि कभी-कभी उन्हें रात-रात भर उलझन-सी रहती है। न स्वयं सो पाते हैं, न पास बैठे व्यक्ति को सोने देते हैं। इस प्रकार के रोगियों को आपकी सहानुभूति,दिलासा देने की क्षमता, प्रेम और सेवा चाहिए। हो सकता है कि उनकी खातिर आपको रात-भर सोने को न मिले। हो सकता है कि आपके नियमित एवं व्यवस्थित जीवन में व्यतिक्रम उठ खड़े हों। सारा कार्यक्रम ही उलट जाय; पर इस पर भी आपको संतोष होगा कि आप विश्व का एक अमूल्य बचा रहे हैं उसकी रखवाली कर रहे हैं या ऐसा कार्य कर रहें हैं जो सैकड़ों रुपये देकर भी प्राप्त नहीं किया जा सकता।

आप पूछ सकते हैं कि व्यक्तियों के साथ कैसा व्यवहार किया जाय जो तपैदिक, खुजली, खसरा, हैजा, ताऊन आदि छूत की बीमारियाँ से पीड़ित हैं? इसका उत्तर केवल यह है कि आप सावधानी बरतें और सतर्कता से ऐसे रोगियों की सहायता करें। आप जिस प्रकार अपने प्रियजनों, संबंधियों आदि को इस प्रकार की बीमारियों से बचाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं वैसे ही दूसरों के लिए भी रहें। ऐसे वातावरण में जाने से आप डरेंगे। पर डर काहे का? मरेंगे दूसरों की सेवा करते हुए इज्जत के साथ; जियेंगे तो दूसरों को प्रसन्न देख कर इज्जत के साथ।

गरीबों की दुनिया के जीव भी कातर दृष्टि से देखते हुए आपके सामने खड़े हैं। कुछ ऐसे हैं जिनके गरीब माँ-बाप उन्हें अकेला- अशिक्षित छोड़कर चल बसे। कुछ ऐसे हैं जिन्हें चार रोटियों के बजाय एक ही रोटी मिलती है। कुछ ऐसे हैं, जिन्हें चौबीस घंटों में एक बार ही भोजन मिलता है। कुछ की यही नहीं मालूम कि ‘भरपेट भोजन’ क्या होता है। किसी का पति मर गया, किसी का युवा पुत्र मर गया। कुछ अकाल-पीड़ित हैं कुछ बाढ़- पीड़ित हैं। वे उजड़ गये हैं- सब कुछ खो बैठे हैं। उन्हें सहारा चाहिए— सुव्यवस्था चाहिए।

आप दयालु हैं अतः आप सेवा के अधिकारियों को अपनी सेवाएँ अर्पण करते हैं; परन्तु न्याय भी आप से कहता है कि विश्व में सम्पत्ति का उचित बटवारा नहीं होता है; उत्पादन में सबका उचित भाग नहीं रखा जाता। आपके पास भी आपकी आवश्यकताओं से अधिक है। परन्तु जितना भाग आपके पास अधिक है, वह उन लोगों की गाढ़ी कमाई है जिन्हें उनका उचित हिस्सा भी नहीं दिया गया। शीघ्र ही उन्हें उनका हिस्सा दे दीजिए अन्यथा आपका चित्त हमेशा आपसे यही कहता रहेगा कि आप डाकू हैं, चोर हैं, उठाईगीर हैं। आप उन्हें केवल धन ही न दें; उन्हें धन की कम, बल्कि भोजन, वस्त्र,ईंधन आदि की नितान्त आवश्यकता होती है।

वे साथ-ही-साथ असभ्य, भीरु, आत्म-सम्मान की भावना से रहित और मानवता से अपरिचित होते हैं। उन्हें ये पाठ भी पढ़ाने हैं। उन्हें समान का कलंक कहा जाता है अथवा बढ़ती हुई आबादी का अनावश्यक भाग कहा जाता है। उन्हें समझाइए कि वे आपके से ही आदर पाने योग्य प्राणी हैं और उन्हें हीन भाव नहीं प्रदर्शित करना चाहिए। साथ ही आप अपने पैसों में से कुछ निश्चित कटौती काटकर अनाथालयों, अस्पतालों आदि को देते रहें और समय मिलने पर स्वयं जाकर पीड़ितों की देखभाल करें।आपको एक काम और करना चाहिए। वह यह कि महापुरुषों तथा त्यागमयी देवियाँ के जीवन-चरित्र पढ़कर अपनी उदार वृत्ति और सहानुभूति जन्य परोपकार की भावना को सतत् जाग्रत रखें। आपके ऐसा करने पर ही समाज की कथित कोढ़ धुलकर अलग हो जायगा और समाज का दमकता हुआ स्वर्ण-शरीर निखर आयेगा और यही होगा आपकी बुद्धि, सम्पत्ति और निजी सेवा का आशातीत प्रसाद जिसे पाकर आप स्वदेश पर गर्व करेंगे और देश आप जैसे सच्चे नागरिकों पर अभिमान करेगा।

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