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Magazine - Year 1956 - Version 2

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भारतीय संस्कृति की कसौटी

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(श्री देवेन्द्र कुमार जैन एम0 ए0)

भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में इतने भ्राँत और परस्पर विरोधी विचार प्रचलित हैं कि जनसाधारण उसे समझ नहीं सकता और विद्वान समझना नहीं चाहते। एक के लिए वह समझ के बाहर की बात है और दूसरे के लिए प्रतिगामी विचारों की प्रतीक। भेदवादी, सांप्रदायिकता या प्रान्तीयता के आधार पर उसका बटवारा करते हैं और प्राचीनतावादी उसे ऋषिप्रणीत समझते हैं पर यथार्थ में संस्कृति का इन विचारों से मौलिक विरोध है, क्योंकि वह विरोध नहीं, समन्वय में हैं, जीवन से परे नहीं, जीवन में है, गत युग के संस्कारों का भज्नस्तूप नहीं किन्तु बहता पानी है, शास्त्रोक्त चिंतन की शुष्क भूमि नहीं, प्रत्युत,लोक-साधना की सरस भूमि है।

ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय संस्कृति विश्व या मानव-संस्कृति की ही एक कड़ी है, संस्कृत शब्द अंग्रेजी ‘कल्चर’ का अनुवाद है और कल्चर का ‘एग्रीकल्चरी’ (खेती) से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। क्योंकि संस्कृति का उदय सबसे पहले वहीं हुआ जहाँ खेती की सुविधा थी। इसलिए-आदिम मानवीय संस्कृति के उद्गम स्थल बड़ी-बड़ी नदियों के उपजाऊ काँटे ही थे। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह निर्विवाद है कि आजीविका की चिंता से मुक्त होने पर ही मनुष्य ने संस्कृति की बात सोची। धरती की सफाई से उसने मन की सफाई सीखी—उसने अनुभव किया कि धरती की तरह शरीर और मन में भी उपजाने की क्षमता है, ज्ञान की भी कुछ सहज वृत्तियां,सहज धर्म हैं, जैसे धरती में घास-फूस उगना, शरीर में नख केश का बढ़ना, मन में अच्छे-बुरे विचारों का उदय होना—यह उसके लिए मानो प्रकृति की कृति या देन हे जो आरम्भ में इसलिये अनिवार्य थी कि उससे मनुष्य आजीविका चलाता था, पर जब उसने अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा तो प्रकृति के इन सहज धर्मों का संस्कार करना शुरू कर दिया और इस प्रकार प्रकृति की कृति में अपना कृतित्व मिलाकर उसने सभ्यता और संस्कृति का सूत्रपात किया। शरीर-प्रसाधन की कला को सभ्यता कहते हैं और मन साधन कला को संस्कृति। संस्कृति वस्तुतः मन की खेती है। इन्हें हम क्रमश; कृषि सभ्यता और संस्कृति कहते हैं, एक से मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताओं दूसरी से सौकर्म की भावना और तीसरी से मानसिक चेतना की संतुष्टि होती है। हीनाधिक रूप से सभी देशों में इस प्रकार के प्रयत्न हुए हैं पर प्राकृतिक सुविधा होने से भारत में साँस्कृतिक प्रयोग कुछ अधिक हुए। अतएव विशेष भौगोलिक परिस्थिति और ऐतिहासिक परम्परा में मानवता के विकास के लिए जो अच्छे प्रयत्न हुए हैं— उनका आकलन ही भारतीय संस्कृति है,ये प्रयत्न जितने अँश में अविरोध भाव मानव-एकता का प्रकाशन करते हैं—उतने ही अंश में भारतीय संस्कृति महान् है। यही उसी सर्वश्रेष्ठता की कसौटी है। गुजराती भाषा में प्रसार करने की स्वीकृति दी है, इसके लिए मैं उनका परम कृतज्ञ हूँ। मैं अपने को बढ़ा भाग्यशाली समझता हूँ कि इनके आशीर्वाद से मुझे ऐसा अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ।

आपके ही आशीर्वाद तथा सहायता से मैं इनकी पुस्तकों का दोहन करके गुजराती भाषा में पुस्तकें छपा सका हूँ और भगवान की कृपा से मुझे इन पुस्तकों में भी अच्छी सफलता मिली है। आज तक छोटी-बड़ी सात-आठ पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं, जिनके नाम नीचे दिये जाते हैं:—(1) गायत्री चालीसा, (2) गायत्री परिचय, (3) गायत्री सहस्रनाम, (4) गायत्री स्तोत्र, (5) गायत्री मन्त्र सामर्थ्य, (6) गायत्री की सरल साधनाएं, (7) स्त्रियों को गायत्री अधिकार।

गुजरात भर में गायत्री साहित्य का प्रचार करने का शुभ अवसर मुझे पूज्य श्री आचार्य जी की कृपा से ही मिला है। मेरा पूर्ण विश्वास है कि ‘मा’ इस कार्य को पूरा करेगी। जो धर्म प्रेमी गुजराती भाषा में इस साहित्य का लाभ उठाना चाहें वे मुझसे पत्र व्यवहार कर सकते हैं।

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