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Magazine - Year 1956 - Version 2

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राष्ट्र एवं साँस्कृतिक उत्थान का उपाय

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(श्री स्वामी शरणानन्द जी)

माँ-बाप की गोद में बच्चों का वास्तविक विकास सम्भव नहीं है, क्योंकि माँ-बाप से तो प्यार मिलता है, किन्तु न्याय नहीं, और नौकरों के द्वारा भय मिलता है, प्यार नहीं। बालकों का यथेष्ट विकास तभी सम्भव है, जब उसका पालन प्यार और न्याय पूर्वक किया जावे।

जब तुम समाज के बालक बालिकाओं का अपने बच्चे की भाँति पालन करोगे तो तुम उन के ऋण से मुक्त हो जाओगे, जिन्होंने तुम्हारा पालन किया था और तुम्हारी प्रेम और न्याय सहित सेवा से बालकों का विकास भी होगा। इससे तुम्हारा स्वार्थ भाव भी मिटता चला जायगा। इससे जितेंद्रियता प्राप्त होती है। जितेंद्रिय व्यक्ति सत्य की खोज में तत्पर होकर अपना भी विकास करते रहता है। केवल वस्तुओं के आधार पर जीवन व्यतीत करना मनुष्य के रूप में पशु होना है। वस्तुओं से अतीत जो तत्व है, उसके प्राप्त करने पर ही तुम सच्ची स्वतन्त्र व्यक्तियों का निर्माण नहीं हो, उस समाज का विकास एक सीमा तक ही होता है।

यह कार्य कभी राष्ट्र शासक ने नहीं कर पाया, क्योंकि नौकरी वृत्ति रखने के कारण उससे वास्तविक सेवा नहीं हो पाती। जो बेचारा स्वयं उपभोग में ग्रसित है, वह सेवा नहीं कर सकता। सेवा वही कर सकता है, जिसका जीवन भिक्षा के आधार पर निर्भर हो और वह अर्थ एवं काम की वासनाओं से मुक्त हो। न्याय की दृष्टि से संग्रहित-सम्पत्ति पर केवल तीन वर्ग के व्यक्तियों का अधिकार है-1-बालक-2-रोगी तथा 3- विरक्त का। बालक और रोगी अर्थोपार्जन करने में असमर्थ हैं और-विरक्त-सेवा करने वाले को अर्थोपार्जन के लिये समय नहीं है। उपार्जित अर्थ के आधार पर जीवन बिताने वाला उपभोग ग्रसित मनुष्य, समाज से अभिन्न और निरभिमानी नहीं हो पाता है। अभिन्नता के बिना सच्चा समाजवादी और निरभिमानता के बिना छिपी हुई शक्ति का विकास नहीं हो पाता। यह निर्विवाद सिद्ध है।

वर्तमान सुधारवादी तो किसी एक पार्टी का प्रतिनिधि बनकर द्वेष तथा स्वार्थ के आधार पर संगठन बना, पशुबल को उपार्जित कर किसी के विनाश से होगा, भला उसका परिणाम विकास कैसे हो सकेगा? अभी वे बेचारे ऊपर से तो स्वतन्त्र हो गये हैं, किन्तु भीतर से पश्चिमी सभ्यता में आबद्ध हैं, उन्हें कोई मार्ग नहीं दिखाई देता। मस्तिष्क की दासता से वे अभी मुक्त नहीं हैं। वाह्य चमत्कारों से उनकी बुद्धि चकाचौंध में फँस गयी है। पद का अभिमान शुद्ध विचार को उत्पन्न होने नहीं देता।

त्याग और प्रेम के आधार पर स्वार्थ युक्त जन-समाज, संगठित होने में भय करता है, परन्तु प्राकृतिक विधान के अनुसार जो संगठन, त्याग और सेवा के आधार पर नहीं है, वह अवश्य मिट जावेगा। यह परम सत्य है देश के बच्चे, रोगी, संग्रह की हुई सम्पत्ति तथा सेवक—इन चारों का संगठन ही सच्चा संगठन है।

सिक्के से वस्तुओं का, वस्तु से व्यक्ति का, व्यक्ति से विवेक का, और विवेक से, परिवर्तन से अतीत नित्य जीवन का महत्व अधिक है!

सिक्के की दासता ने वस्तुओं का उपार्जन नहीं होने दिया, जिसके कारण भोजन की सामग्री कम हो गयी। स्वास्थ्यवर्द्धकता के अभाव में रोगों की वृद्धि हो रही है। आज वेजीटेबल मिल के लिये तो सम्पत्ति है, किन्तु डेयरी फार्म के लिये नहीं। पूँजी पतियों की इस भूल ने मानव के स्वास्थ्य को खा लिया है। वे ऊपर से अहिंसा के गीत गाते हैं, किन्तु पशुओं को न खाकर मनुष्यों को खा जाते हैं, यदि पूँजीपति धर्मशून्य राजनीतिक नेताओं के अत्याचारों से बचना चाहते हैं, तो उनको संग्रह की हुई सम्पत्ति स्वेच्छापूर्वक बाल मन्दिर और सुश्रूषा-आश्रम के बनाने में लगा देना चाहिये अर्थात् अपनी सम्पत्ति सच्चे सेवकों के हाथ में दे देनी चाहिये। नहीं तो सुधार के गीत गा कर समाज साम्यवादी और समाज तन्त्रवादी डाकुओं की भाँति छीन लेंगे अथवा विधान बदलकर पूँजीवाद मिटा देंगे। इतना ही नहीं, हिन्दू और मुसलमान अपने को मुसलमान न कह सकेगा और न वस्तु से व्यक्ति का मूल्य अधिक होगा क्योंकि पार्टी का प्रतिनिधि बन कर जो कार्य किया जायगा, उससे केवल पार्टी ही सुदृढ़ होगी। व्यक्ति का निर्माण न होगा। व्यक्तियों के निर्माण के बिना सचाई, ईमानदारी और निष्पक्षता का प्रादुर्भाव नहीं होता और न स्वार्थ-भावना मिटती है।

जिस देश के पूँजीपति और विद्वान विषयासक्त हो जाते हैं, उस देश की राष्ट्रीयता दूषित हो जाती है, क्योंकि राष्ट्र का निर्माण और विकास विद्वानों और पूँजीपतियों पर ही निर्भर होता है। जिस प्रकार बुद्धि और प्राण के आधार पर ही शरीर की सारी व्यवस्था चलती है, उसी प्रकार विद्वान और पूँजीपति ही राष्ट्र की व्यवस्था के कर्णधार होते हैं। शरीर में जो स्थान बुद्धि का है, राष्ट्र में वही स्थान विद्वानों का है और शरीर के प्राण की स्थिति में राष्ट्र के पूँजीपति स्थित हैं। दोनों वर्गों के सुधार से ही सारे राष्ट्र का सुधार और उत्थान सम्भव है।

निःस्वार्थ भाव से मानव समाज की सेवा करने वाले विद्वानों के द्वारा ही शासक मंडल का निर्वाचन होना चाहिये। चुने हुए विद्वानों में जो वीतराग पुरुष हो अर्थात् जिनका मोह नष्ट हो गया हो, उन्हीं को विधान बनाने का अधिकार होना चाहिये। क्योंकि मोह युक्त प्राणी प्राकृतिक विधान को समझने में असमर्थ होता है और इस विधान को बिना समझे पक्षपातशून्य विधान नहीं बन सकता राष्ट्र का कर्त्तव्य तो केवल वीतराग पुरुष द्वारा बनाये विधानों का पालन करना है। भारतीय संस्कृति की शिक्षा धर्मात्मा सेवक के द्वारा ही हो सकती है अतः पूँजीपति और विद्वानों को एक मत से संगठित होकर राष्ट्र के साँस्कृतिक उत्थान के लिये काम करना चाहिये, नहीं तो सुधार की आँधी में संग्रह किया हुआ धन भी लुट जावेगा। ऐसा नहीं होने से भारतीय संस्कृति और-पूञ्जी दोनों ही नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगी।

आज की निर्वाचन पद्धति में सच्चाई नहीं है। इने-गिने व्यक्ति प्रचार के द्वारा जनता को अपने पक्ष में करके जनता के बहाने अपने मन की बात करते हैं। वास्तव में वे जनता के प्रतिनिधि नहीं होते। “इस्लाम खतरे में” कह कर मुसलमान जनता को भड़का कर, हिन्दू धर्म के गीत गा कर हिन्दू जनता को भड़का कर, किसानों की बात कह कर किसानों को भड़का कर अपने पक्ष में ले लिया की अपने मन की बात और नाम जनता का ले लिया। पर सेवा करने वाला व्यक्ति जनता का स्वाभाविक और सच्चा प्रतिनिधि होता है। उस में न तो पद का लालच होता है, न पक्षपात और न स्वार्थ। ऐसा व्यक्ति उसी का निर्वाचन करेगा जो वास्तव में जनता का सच्चा सेवक और ईमानदार होगा। जिसने स्वयं सेवा नहीं की है, उसे राष्ट्रीय-निर्वाचन का अधिकार देना प्राकृतिक विधान के विरुद्ध है। जब सारी जनता सचाई जानने में समर्थ हो जायगी, तब राष्ट्रीय-निर्वाचन की आवश्यकता ही क्या रहेगी? अतः प्राकृतिक विधान के अनुसार सेवा करने वालों का चुना हुआ राष्ट्र शासक मण्डल हो और-वीतराग पुरुषों का बनाया हुआ राष्ट्रीय-संविधान हो तभी समाज में और-सर्वत्र न्याय और शान्ति की स्थापना हो सकती है।

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