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Magazine - Year 1956 - Version 2

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वर्तमान समय में ब्राह्मणों का कर्तव्य

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(श्री अनन्त शयनम् आयंगर, अध्यक्ष भारतीय लोकसभा)

मैं गत कुछ वर्षों से गम्भीरता पूर्वक इस विषय पर विचार कर रहा हूँ कि आज की वर्तमान स्थिति में ब्राह्मणों का क्या कर्तव्य होना चाहिए? भारतीय सभ्यता के आधार पर वाह भौतिकत्व त्याग तथा सेवा है। अतः यह उचित ही था कि ब्राह्मणों को प्राचीन समय में उच्च स्थान दिया गया।

सच्चा ब्राह्मण वह है, जो ब्रह्म वेत्ता हो अर्थात् ब्रह्मज्ञान तथा साक्षात बुद्ध को अर्थात् ब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त कर लिया हो। पुरातन काल के ब्राह्मण, ब्रह्मविद्या का अध्ययन भी करते थे तथा उसका अध्यापन भी करते थे। उनके विचार में ब्रह्मविद्या सबसे ऊँची विद्या थी तथा अन्य सम्पूर्ण ज्ञान उसके अधीन थे। कठोपनिषद् में एक प्रश्न पूछा गया है कि जब ज्ञान प्राप्त किया गया हो तो शेष सब कुछ मालूम हो जाता है। उन लोगों ने इस रहस्य को समझ लिया था कि सम्पूर्ण विश्व एक है तथा अपरिवर्तनशील भीतरी सत्ता विद्यमान है। यह संपूर्ण विश्व की आत्मा है। शेष सब वस्तुएं उसी के अंग है।

इस ज्ञान प्राप्ति ने ही उन्हें पूर्ण जीवन व्यतीत करने तथा समत्व प्राप्त करने का सामर्थ्य प्रदान किया। इस ज्ञान ने ही मानव कार्यों में उनके आचार-व्यवहार को प्रभावित किया और उन्हें श्रेष्ठ रूप प्रदान किया था। उन्होंने विश्व तथा मानवता को भगवान् और सेवा का रूप समझा तथा उसकी पूजा की

यतः प्रवृत्तिर्भूतानाँ येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्च सिद्धिं विन्दति मानव॥

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विश्वरूप दिखलाया, जब अर्जुन ने उनसे अपना वास्तविक रूप दिखाने के लिये कहा था। हमें प्रतिदिन के जीवन में प्रत्येक वस्तु में भगवान् की सत्ता स्वीकार करनी चाहिये, तथा सब जीवों को उसी की छाया समझना चाहिये—कहा भी है—

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगो परमो मतः॥

मनुष्यों में कोई बड़ा अथवा छोटा नहीं है। यदि सब जीव भगवान् के एक ही शरीर के अंग हैं तो एक अंग का दूसरे अंग से भेद नहीं किया जा सकता।

प्राचीन काल में छुआछूत की प्रथा का जो भी कारण रहा हो, परन्तु आज इसका व्यवहार अपराध माना जाता है। कानून की दृष्टि से यह ऐसा ही है, किन्तु इसे व्यवहार रूप में (अच्छी प्रकार से) समझ लेना चाहिए।

विद्या-विनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हास्तेनि। शुनि चैव श्वपाके च परिडताः समदर्शिनः॥

सच्चे ज्ञान का वर्णन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है—

सर्वभूतेषु येनैकम् भावमव्ययमीक्षते। अविभक्तं विभक्ते षु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।

समत्व का व्यवहार करना चाहिये। अब ब्राह्मणों को जहाँ भी वे हैं, यह अपना कर्तव्य समझना चाहिए कि वे देहातों में जायें तथा जनता के हृदय में हरिजनों के प्रति वास्तविक परिवर्तन करें।

ज्ञान तब तक पूर्ण नहीं है, जब तक उस पर अनुष्ठान नहीं किया जाता। गीता में ज्ञान का वर्णन अहिंसा, सत्य, अक्रोध आदि के रूप में किया गया है। केवल व्यक्ति गत पवित्रता मनुष्य को उसकी मुक्ति की ओर नहीं ले जाती । इस पर आचरण भी करना चाहिए तथा इसके साथ सेवा की भावना भी आवश्यक है। गीता के 12 वें अध्याय में कहा है—भगवान् का सच्चा भक्त वह है जो भगवान् में निरन्तर ध्यान रखता है तथा अपनी आत्मा को विश्व-भावना में लगा कर भगवान से प्रेरणा शक्ति प्राप्त करके ऐसे संसार में प्रवेश करता है। जिसमें प्रेम के साथ-साथ सेवा की भावना भी है।

श्रीरामचन्द्र अपने बलिदानों के कारण ही अवतार बन सके। अपने राजतिलक के अवसर पर उन्होंने अपने भाई के पक्ष में अपना राज्य त्याग दिया था।

जातीय एकता समय की माँग है। पहले से ही अनेक मतभेदों (दृष्टान्त रूप में छुआछूत और वर्गगत भेदों की कट्टरता) कारण बहुत से लोग हिन्दुओं से अलग हो गये। यदि यही मनोवृत्ति अब भी जारी रही तो हमारे देश में और बहुत से पाकिस्तान बन जायेंगे।

वर्णों की व्यवस्था का मूल कारण समाज के कार्यों को सुविधा से पूर्ण करने के लिए ही वर्गीकरण किया जाना था, जिससे सहयोगी समाज का निर्माण किया जा सके। प्रतियोगिता ही एकमात्र कानून रह गया था। हमारे पूर्वजों ने अनुभव किया कि प्रतियोगिता के स्थान पर मानव-सम्बन्धों में सहयोग की स्थापना अवश्य की जानी चाहिये।

सम्मिलित कुटुम्ब एक समाजवादी इकाई है तथा एक देहात भी—जो कार्य करने के लिए संगठित किया गया था समाजवादी राज्य की एक बड़ी इकाई थी। किन्तु धीरे-धीरे यह विशेषता जाती रही तथा इसका स्थान उन नई सभ्यताओं ने ले लिया जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया। उन संस्थाओं को बचाने के लिए वर्ण-व्यवस्था की कोमलता ने कठोरता का रूप धारण कर लिया। जीवन में उदरपूर्ति के पुराने ढंग इस समय परिवर्तित हो चुके हैं। संस्कृत के अध्ययन की उपेक्षा होती है तथा ब्राह्मणों ने उदरपूर्ति के लिए अन्य बहुत से उपाय अपना लिये हैं, जिनसे वे अपने शरीर तथा आत्मा को एक स्थान पर केन्द्रित कर सके। बदली हुई परिस्थितियों में ब्राह्मणों का क्या दर्जा है अथवा उनका अपने तथा समाज के प्रति क्या कर्तव्य है? यह तो निश्चित ही है कि वह जीवन में अपनी उदरपूर्ति के लिए कोई भी मार्ग अपनाये, फिर भी वह जाति के लिए निःस्वार्थ सेवा तो कर ही सकता है। वह एक सच्चा पुरोहित बन सकता है, यदि वह अपने जीवन को सरल बना ले बलिदान करने के लिए तत्पर रहे तथा दूसरों की सेवा के लिए अपने आपको प्रवृत्त कर दे। जो भी कार्य वह करे वह सेवा तथा त्याग भाव की भावना से किया जा सकता है। वह सदैव शान्ति के लिए कार्य कर सकता है। समय आ गया है जब प्रत्येक व्यक्ति को सब वर्णों के कार्य करने हैं। प्रत्येक को ज्ञान की प्राप्ति करनी है तथा अध्ययन करना है। सब को क्षत्रिय के रूप में अपने देश के लिए संघर्ष करना है, राष्ट्र के उत्पादन में वृद्धि करनी है तथा आर्थिक विकास में योग देने के साथ-साथ मानवता की सेवा भी करनी है। जब संसार की सब जातियों ने युद्ध में एक दूसरे के साथ लड़ना आरम्भ कर दिया है, तब ऐसी स्थिति में केवल कुछ क्षत्रिय यह कार्य पूर्ण नहीं कर सकते और न केवल कुछ ब्राह्मण ही शिक्षा की समस्या को हल कर सकते हैं।

इसलिये प्रत्येक को सब कार्य आज की आवश्यकतानुसार करने होंगे। अलग रहने की भावना को छोड़ना होगा। पुराने दिनों में ब्राह्मण एक सच्चा पुरोहित होता था। पुरोहित शब्द एक आदर सूचक भावना का शब्द समझा जाता था तथा हमारे पूर्वज पुरोहित होने में गर्व अनुभव करते थे। वह व्यक्ति जो जाति तथा समाज के कल्याण के लिए विचार करता है तथा तदनुसार कार्यवाही करता है, वह पुरोहित है तथा वह उनका सखा, विचारक तथा पथप्रदर्शक बनता है।

इस देश के आर्थिक पुनर्निर्माण की समस्याओं की ओर भी आप सब का ध्यान निरन्तर आकर्षित होना चाहिए। हिन्दू तथा अन्य जातियों का एकमात्र भेद यह है कि हिन्दू अपने सब कार्य भगवान् के प्रति बलिदान की भावना से करता है। आप तब तक आदर प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक आप सरल जीवन नहीं व्यतीत करते। आप ज्ञान की प्राप्ति न छोड़िए तथा सदैव सादा जीवन व्यतीत कीजिए। अन्य व्यक्तियों को भी ब्राह्मणों में सम्मिलित करना चाहिए। व्यवसाय इन ऊपर के भेदों का प्रतिरूप मात्र है। बहुत से अन्य व्यक्तियों को ब्राह्मणों में सम्मिलित किया जाना है। यही वह मार्ग है जिसके द्वारा पुराने दिनों में ग्रीक तथा अन्य लोग हिन्दुओं में सम्मिलित किये गये थे। विश्वामित्र क्षत्रिय होते हुए भी तपस्या के कारण ब्राह्मण बने। तथाकथित शूद्र वास्तव में शूद्र नहीं। जो भी भूमि पर कृषि कार्य करता है, वह वैश्य है।

हमारी सभ्यता तथा धर्म से सम्बन्ध रखने वाले सब ग्रन्थ संस्कृत में हैं अतः प्रत्येक हिन्दू को संस्कृत पढ़नी चाहिये, जिससे वह आर्य जीवन व्यतीत कर सके। संस्कारों को वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार अपनाया जाना चाहिए तथा जप-यज्ञ के स्थान पर द्रव्य-यज्ञ को स्थान प्राप्त होना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में प्रत्येक मनुष्य को पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए तथा उसे अन्य लोगों के लिए एक दृष्टान्त बनना चाहिए।

हमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए पूजा की समान पद्धति बनानी है तथा सबको गायत्री की शिक्षा देनी है। पुरोहितों के लिए संस्कृत की शिक्षा अपेक्षित है जिससे वे अर्थों को समझाकर पुरोहित का कार्य सम्पन्न कर सकें। प्रसिद्ध विद्वानों को ही मठाधीश का स्थान मिलना चाहिए। मठों को विद्या (ज्ञान) का पीठ (स्थान) बनाना चाहिए।

आध्यात्मिकता को पुनः स्थान प्राप्त होना तथा जीवन की उस आर्य पद्धति की पुनः स्थापना किया जाना जिसका आधार सेवा तथा बलिदान पर हो आवश्यक है सामाजिक मूल्य भी सेवा पर आधारित हो जिससे मनुष्य का भाईचारा (साहचर्य) फिर से स्थापित किया जा सके तथा प्रत्येक व्यक्ति के आचार व्यवहार में उन्नति तथा प्रगति हो सके। तभी संसार में स्थायी शान्ति स्थापित होगी।

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