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Magazine - Year 1956 - Version 2

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भारतीय संस्कृति को एक संजीवन विद्या कहना चाहिए जिसे अपनाने पर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने की दिशा में अग्रसर होता है। जीवन की सम्पूर्ण गतिविधियों का संचालन जिस अन्तरंग दृष्टिकोण के आधार पर होता है, उस मानसिक मर्मस्थल को भय मार्ग पर लगाने की शक्ति संस्कृति के अतिरिक्त और किसी मार्ग से सम्भव नहीं। मनुष्य की पशुता का शमन करके उसे देवत्व की ओर अग्रसर करने में यद्यपि कई भौतिक साधन उपयुक्त होते हैं, पर देखा गया है कि उन साधनों की व्यवस्था में जितनी शक्ति लगती है, उसकी तुलना में लाभ बहुत ही कम होता है। पुलिस, कचहरी, कानून, सामाजिक बहिष्कार, लोक निन्दा, विरोध संघर्ष आदि कई मार्ग मनुष्य की कुमार्गगामिता पर बन्धन लगाने के लिए मौजूद हैं, पर देखा यह गया है कि इन सबकी परवाह न करके भी, सबक आँखों में धूल झोंककर भी लोग मनमानी करने में सफल होते रहते हैं और यह प्रतिबन्ध उसकी दूषित गतिविधि को रोकने में कुछ विशेष कारगर नहीं होते ।

मनुष्य की व्यक्ति गत तथा सामूहिक सुख- शान्ति सच्चरित्रता, सद्भावना और सहकारिता पर निर्भर है। इन तीनों महान् तत्वों का उद्गम अन्तरात्मा के जिस स्तर में उद्भूत होता है, उस स्थान को प्रभावित करके कुमार्ग से घृणा और सत्मार्ग में प्रेरणा उत्पन्न करने का कार्य जो औजार कर सकता है, उसी का नाम संस्कृति है। दूरदर्शी ऋषियों ने मनुष्य के अन्तस्थल में रहने वाले पाशविक तत्वों पर नियंत्रण करने और दैवी तत्वों को विकसित करने कि लिए हजारों लाखों वर्षों के प्रयोगों परिश्रमों के पश्चात् मनोवैज्ञानिक तथ्यों के सर्वांगीण समावेश के साथ एक महान् प्रक्रिया एवं परिपाटी की रचना की थी, जीवन को शान्तिपूर्ण रीति-नीति के साथ विकसित होते रहने की इस पद्धति को ही संस्कृति नाम दिया गया। चूँकि इसका प्रादुर्भाव विश्व के इतिहास में पहले-पहले भारत में हुआ इसलिए प्रथम आविष्कारक के नाम पर किसी अन्वेषण का नामकरण होने की प्रथा के आधार पर उस संजीवन विद्या का नाम भी “भारतीय” संस्कृति रखा गया। वस्तुतः यह मानव मात्र के लिए एक समान हितकारी विश्व संस्कृति ही है।

आज मनुष्य व्यक्ति गत रूप में अनेक उलझनों, अभावों,कष्टों चिन्ताओं, परेशानियों और आपत्तियों में फँसा हुआ है। विज्ञान, अर्थ-व्यवस्था और राजतन्त्र के विकास ने यद्यपि मनुष्य को अनेकों प्रकार के सुख-सुविधाओं के साधन प्रदान किये हैं, पर देखा यह जा रहा है कि तथा कथित ‘अविकसित’ जमाने की अपेक्षा आज के ‘विकसित’ जमाने का मनुष्य अधिक दुखी और परेशान है। उसकी आर्थिक,शारीरिक, पारिवारिक, मानसिक, सामाजिक सभी गुत्थियाँ बुरी तरह उलझी हुई हैं। आज शान्तिमय सन्तुष्ट जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति कहीं कोई बिरला ही मिलेगा।

सामूहिक जीवन में भी वही बात लागू होती है जो व्यक्ति गत जीवन में सामाजिक व्यवस्था, राजनीति, धर्म संस्थाओं, शासन तंत्र, सभा सोसाइटियां व्यापार, परस्पर व्यवहार निर्माण, चिकित्सा, शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में भरपूर भ्रष्टाचार पनप रहा है। इनकी आलोचनाएँ खूब होती हैं, एक दूसरे को दोष देने में खूब प्रयत्न करते हैं, इस प्रकार भावना, वाणी और लेखनी के द्वारा वह असन्तोष सर्वत्र प्रकट दीखता है, पर कोई मार्ग निकलता नहीं दीखता, सभी कोई इस वर्तमान स्थिति में दुखी और असन्तुष्ट हैं, यथा सम्भव कुछ उपाय भी करते हैं, पर कोई परिणाम होता दिखाई न पड़ने पर उलटी निराशा ही होती है। आज मनुष्य के व्यक्ति गत विचार और कार्य जिस प्रेरणा तथ्य के आधार पर अनुप्राणित होते हैं, उसके रहते हुए सुधार की कोई बड़ी आशा भी नहीं की जा सकती।

मानव-जीवन की अनेक समस्याओं और आवश्यकताओं को सरल बनाने के लिए अनेक वाह्य प्रयत्नों की आवश्यकता है, प्रसन्नता की बात है कि हमारे राजनैतिक कर्णधारी, अर्थशास्त्री, औद्योगिक, वैज्ञानिक, इंजीनियर, चिकित्सा शास्त्री, शिक्षा विशेषज्ञ, सामाजिक नेता अपने-अपने ढंग से बहुत कुछ कार्य कर रहे हैं, यह सब प्रयत्न प्रसन्नता और प्रगति के सूचक हैं, पर स्मरण रखने की बात है कि यह केवल आँशिक और एकाँगी उपचार हैं। यह सब प्रयत्न मिलकर भी एक बहुत सीमित मात्रा में ही सम्मुख उपस्थित समस्याओं के हल करने में समर्थ हो सकते हैं। कारण स्पष्ट है- मानव-जीवन की अन्तरंग गतिविधि गलत दिशा में चल पड़ने के कारण ही वाह्य जीवन की अनेकों समस्याओं तथा आपत्तियों का उद्भव होता है। वह न बदलें तो जड़ सूखते रहे और पत्ते सींचे जाते रहें जैसी स्थिति ही बनती है।अपराधी को पुलिस एक अपराध में दण्ड दिलाकर निवृत्त नहीं होती कि नई खुराफात करने की योजना बनाकर वह आगे की तैयारी कर लेता है। पुलिस कहाँ तक, कब तक उसे रोकेगी। कुमार्ग से रुकना और सन्मार्ग की ओर अग्रसर होना प्रधानतया इस बात पर निर्भर हैं कि मनुष्य किन भावनाओं, विचारधाराओं, आदर्शों और उद्देश्यों से अपने अन्तरंग में क्षेत्र में अनुप्राणित होता है।

विश्व में सर्वत्र, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सुख-शान्ति की स्थापना करने के लिए सर्वोपरि आवश्यकता यदि किसी बात की है तो यह है कि मानवीय अन्तःकरण के मर्म भाग तक उस प्रेरणा शक्ति का प्रवेश कराया जाय, जिसे विश्व संस्कृति, मानवीय संस्कृति या भारतीय संस्कृति आदि नामों से पुकारा जाता है। संसार की इस सर्वोपरि आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्राचीन काल में अनेक तत्ववेत्ता ऋषि अपना जीवन उत्सर्ग करते थे। उनके जीवन का एक ही लक्ष एवं कार्यक्रम रहता था, अपने आपका चरित्र इतना ऊंचा, उज्ज्वल और त्यागमय रखें, जिससे दूसरों को उनके व्यक्ति गत के प्रति समुचित आदर बुद्धि रहे और उस आदर बुद्धि की श्रद्धा की सुईदार पिचकारी में उच्च सांस्कृतिक तत्वज्ञान की दवा भरकर जन साधारण के भीतरी अन्तः प्रदेश में एक प्रकार का मार्मिक ‘इंजेक्शन’ लगाते थे और सामान्य कोटि के नर पशुओं को अपने उस ‘इंजेक्शन’ से काया पलट करके सच्चा मानव, महापुरुष, भू सुर बना देते थे। आज वह परम्परा शिथिल एवं अस्त-व्यस्त ही नहीं लुप्त प्रायः भी हो चली है। देश,धर्म जाति और विश्व की चिन्ता ओर सेवा करने वाले व्यक्ति इस तथ्य की आज उपेक्षा कर रहे हैं। ऋषि-जीवन बनाने और बिताने का कष्टसाध्य मार्ग कौन अपनाये? कीर्ति, प्रशंसा, नामवरी नेतागिरी जिसमें न मिले उस कार्य को कौन करे? दफ्तर में बैठकर योजना बनाने, व्यवस्था यन्त्र को चलाने या धुँआधार लेखनी वाणी की घुड़दौड़ को छोड़कर घर-घर अलख जगाने और दूसरों में अपना व्यक्ति त्व घुला देने का बेढंगा काम कौन स्वीकार करें? इस कठिनाई के कारण सस्ती वाह- वाही छोड़कर गहरे कष्टसाध्य ऋषि तुल्य प्रयत्न करने से जान बचाने की कमजोरी के कारण- वे अनेक प्रयत्न अधूरे, अपूर्ण और एकाकी ही बने हुए हैं जो भौतिक क्षेत्र के अनेक सुयोग्य कार्यकर्त्ताओं द्वारा बहुत श्रम और खर्च करके बड़ी तत्परतापूर्वक चलायें जा रहें हैं।

अब समय आ गया है कि वास्तविकता को समझा जाय और समस्याओं के उद्गम क्षेत्र- मानवीय अन्तरंग-मर्मस्थल में सतोगुणी परिवर्तन करने के लिये सांस्कृतिक सुधा-धारा अभिसिंचन अनुष्ठान का आरम्भ किया जाय। मानव- जीवन को कलंकित होने से बचाने को लिए, दिन-दिन बढ़ती ही चिन्ता, अशान्ति और वेदनाओं से त्राण पाने के लिए ऐसा सांस्कृतिक अभियान व्यापक रूप से आरंभ करना, आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। अन्यथा इसके अभाव में अनैतिकता से अव्यवस्थित मनुष्य प्रगति के सारे भौतिक प्रयत्नों पर पानी फेरकर उलटा उनसे दुख द्वेष की ही मात्रा बढ़ायेगा।

संस्कृति जीवन की सर्वांगीण- विशेष तक मानसिक, भावनात्मक एवं विश्वासों के क्षेत्र में सुव्यवस्था उत्पन्न करने वाली एक वैज्ञानिक पद्धति है। कृषि विद्या के नियमों के आधार पर जिस प्रकार खेती को सफल बनाना और बागवानी विद्या के द्वारा जिस प्रकार पेड़- पौधों को सुविकसित बनाना सम्भव है, उसी प्रकार मनुष्यों में मनुष्यता की फसल उत्पन्न करने के लिए जो पद्धति काम में लाई जाती है, उसे संस्कृति कहते हैं। अँग्रेजी में संस्कृति को ‘कलचर’ कहते हैं। कलचर का अर्थ ‘कृषि’ है, मानवीय अन्तःकरणों को जोत -बोकर सुख शान्ति के उपयुक्त फसल उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त करना ही इस कृषि का उद्देश्य है।

वस्तुतः सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर ही हमारा भविष्य निर्भर है। पेट ठीक हो तो ही नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजनों का कुछ मूल्य है, अन्यथा पेट का पाचन यन्त्र बिगड़ जाने पर अच्छा भोजन भी हानिकारक ही सिद्ध होगा। समाज की नैतिकता सुरक्षित रहे तो भौतिक उन्नति से सुख मिल सकता है, अन्यथा अपनी ग्रस्त मनुष्य जितने ही साधन सम्पन्न होंगे उतना ही अनर्थ करने को अधिक सक्षम एवं सफल बनते जावेंगे। नीतिवान गरीब भी आनंदमय जिन्दगी जी सकता है, पर अनीतिग्रस्त व्यक्ति कुबेर सा सम्पन्न होने पर भी अपने लिए तथा दूसरों के लिए केवल अनर्थ ही उत्पन्न कर सकता है।

युग परिवर्तन के इस संक्रान्ति काल में प्रभु प्रेरणा से प्रगति की अनेक प्रक्रियाएं संचरित हो रही हैं उन्हीं में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण, सर्वोपरि सर्व प्रधान प्रक्रिया सांस्कृतिक पुनरुत्थान की है। इस चेतना को उत्पन्न करने वाले ऐसे वैज्ञानिकों की आज भारी आवश्यकता अनुभव की जा रही है जो जड़ यन्त्रों को चलाने में नहीं, मानवीय अन्तरात्मा में दिव्य भावनाओं को तरंगित करने में उपयुक्त हो। आज ऋषि तत्व को सजग, सक्षम और सक्रिय बनाने की आवश्यकता है, जिससे अज्ञानान्धकार से आच्छादित अन्तःकरणों में उस दिव्य प्रकाश की झाँकी हो सके, जिसके कारण यह भारतभूमि किसी समय रत्न मणियों जैसे ज्योति शृंखला से सदा जगमगाती रहती थी।

सांस्कृतिक पुनरुत्थान योजना का श्रीगणेश युग बेला की इसी आवश्यकता और पुकार के आधार पर हुआ है। इसका मंगलाचरण शिलान्यास 15 मास से चल रहे विशद् गायत्री महायज्ञ में 125 हजार जप, 125 लाख हवन और 125 हजार ब्रह्मभोज के साथ आरम्भ हुआ है। मंगलाचरण शान्ति और सफलतापूर्वक हो चुका, आइए अब आगे को कदम बढ़ावे।

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