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Magazine - Year 1956 - Version 2

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आप हर समय प्रसन्न रहा कीजिए

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First 4 6 Last
(श्री॰ लालजीरामजी शुल्क, एम॰ ए॰, बी॰ टी॰)

प्रसन्नता किसको प्यारी नहीं है। कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जो प्रसन्न न होना चाहता हो। कौन ऐसा व्यक्ति होगा,जो प्रसन्न मनुष्य के समीप न ठहरना चाहता हो। हम सभी बालक को प्यार करते हैं। क्यों? इसीलिये न कि बालक उस प्रसन्नता में रहता है, जो हमें दुर्लभ है। खिला हुआ फूल सबको प्यारा है और मुरझाये हुए फूल का सभी तिरस्कार करते हैं। रोते हुए मनुष्य से सबका जी ऊब जाता है; हँसते हुए का सभी स्वागत करते हैं। उससे किसी का जी नहीं ऊबता। जिसका मन प्रसन्न नहीं उसके पास कुछ नहीं और जिसका मन प्रसन्न है, उसके पास सब कुछ है।

प्रसन्नता शक्ति की परिचायिका है। जिस मनुष्य के अन्दर आध्यात्मिक शक्ति है, वही प्रसन्न रह सकता है। प्रसन्नता स्वयं उस शक्ति की उत्पादिका भी है। जो मनुष्य जितना प्रसन्न रहता है, वह अपना आध्यात्मिक बल उतना ही बढ़ा लेता है। इतना ही नहीं, वह अपनी शारीरिक शक्ति की भी वृद्धि कर लेता है। मन प्रसन्न रहने पर शरीर की अमृत पैदा करने वाली ग्रन्थियाँ अपना काम भली प्रकार से करती हैं और शरीर में उन पदार्थों का प्रवाह जारी रखती हैं, जिनसे शरीर अक्षय बना रहता है और बढ़ता है। बिरला ही प्रसन्नचित्त मनुष्य रोगी मिलेगा।

प्रसन्नता मानसिक तप से प्राप्त की जाती है। बालक की प्रसन्नता प्रकृति-दत्त है। पर उसकी प्रसन्नता सहज ही भंग भी हो जाती है। प्रौढ़ मनुष्यों की प्रसन्नता पुरुषार्थ से उपलब्ध होती है। यह साधना से आती है यह प्रसन्नता प्रतिकूल परिस्थितियों से नष्ट नहीं होती। प्रौढ़ लोगों की प्रसन्नता ही वास्तविक प्रसन्नता है; क्योंकि वह स्थायी रहती है। इस प्रसन्नता को हम सभी लाभकर सकते हैं। इसके लिये हमें आध्यात्मिक शक्ति बढ़ानी पड़ेगी।

आध्यात्मिक शक्ति की वृद्धि उस शक्ति के बढ़ाने के उपायों को काम में लाने से हो सकती है। जिस प्रकार शरीर की शक्ति स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का पालन करने से बढ़ सकती है, उसी तरह मन की शक्ति भी आध्यात्मिक जीवन सम्बन्धी नियमों के पालन से बढ़ती है। संसार के सभी धर्म ग्रन्थों ने इस आध्यात्मिक शक्ति के बढ़ाने के उपाय बताये हैं। भारतीयों ने तो इस विषय का एक विज्ञान ही निर्माण कर दिया है।

आध्यात्मिक शक्ति के सञ्चय के चार उपाय योगवासिष्ठकार ने बताये हैं। वे ये हैं—शम, सत्संग, सन्तोष और विचार। मन का अनेक प्रकार से नियमन करना ही शम है, सात्त्विक उपवास, इन्द्रियनिग्रह आदि शम के ही अंतर्गत हैं। सत्संग से कुवृत्तियाँ निवृत्त होती है और सुप्रवृत्तियाँ सबल होती हैं तथा अनेक प्रकार के सद्विचार मन में उठते हैं, जो हमारे मन को काबू में लाने में सहायता करते हैं। दूसरे व्यक्तियों का आध्यात्मिक बल हमें अपने आपको सँभालने में गुप्त रूप से सहायता देता है और ज्ञान में हमारी रुचि बढ़ाता है। सन्तोष से हमारी शक्तियों का अपव्यय रुकता है। विचार के द्वारा हम भले-बुरे, सत्-असत् की पहचान करते हैं। मनुष्य विचार के द्वारा अपने आपको ऊँचा उठाकर परमपद को प्राप्त कर लेता है। पशुओं और बालकों में विचार करने की योग्यता नहीं हैं, अतएव वे परमपद की प्राप्ति नहीं कर सकते।

यदि हम एक ही शब्द में आध्यात्मिक उन्नति का उपाय बताना चाहे तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि साँसारिक विषयों में मनका जाना रोकने से आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है और साँसारिक विषयों में उसके बेरोकटोक जाने से उसकी शक्ति घटती है। भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं—

ध्यायतो विषयान् पुँसः संगस्तेषूपजायते। संगात् संजायते कामःकामात् क्रोधोऽभिजायते॥ क्रोधाद्भवति सम्मोहःसम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥

(गीता 2 । 62-63)

अर्थात् विषयों में रमण करना ही मनुष्य के लिये घातक है। प्रत्येक ऐसे विषय को मन से हटाते रहना चाहिये, जो प्रसन्नता में बाधक हो। अपनी हानि पर देर तक नहीं सोचना चाहिये। हानि की भावना प्रसन्नता का नाश कर देती है। इससे हमारी आध्यात्मिक शक्ति का भी ह्रास होता है। सब प्रकार की घटनाओं के अच्छे पहलू पर विचार करने से मन की प्रसन्नता बनी रहती है। संसार की प्रत्येक घटना के दो पहलू होते हैं। जिस मनुष्य का मन घटना के बुरे पहलू की ओर चला जाता है, वह अपनी प्रसन्नता को अपने ही हाथों नष्ट कर डालता है। इसके विपरीत जिसका मन अच्छे पहलू पर चला जाता है, वह अपने आपको प्रसन्न बनाये रखता है। प्रत्येक प्रकार की हानि से मनुष्य का कुछ न कुछ लाभ होता है और प्रत्येक लाभ से कुछ न कुछ हानि होती ही है। हानिकारक घटनाओं में लाभ को ढूँढ़ निकालना बुद्धिमानी का काम है। यदि कोई लाभ प्रत्यक्ष न दिखायी दे तो हमें यह समझना यह बड़े गौरव की बात है कि उन्होंने आधुनिक विज्ञान के विकासवाद सिद्धाँत को अब से हजारों वर्ष पूर्व समझकर उसके वास्तविक स्वरूप का निरूपण ऐसी सरल रीति से घर दिया था कि वैसा अभी तक आधुनिक विद्वान नहीं कर सके हैं। यह दूसरी बात है कि बाद में उसे जन साधारण के लिए बोधगम्य और मनोरंजक बनाने के लिए कुछ व्यक्तियों ने उसमें अनेक असम्भव या कहानी किस्सों की सौ बातों का समावेश कर दिया।

पुराणों के मतानुसार अवतारों की संख्या दस मानी गई है—मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि। इनमें पिछले पाँच तो मनुष्य शरीर धारी थे और इतिहासज्ञ भी किसी हद तक उनका अस्तित्व स्वीकार करते हैं। पर पहले पाँच ऐसे हैं कि उनके विषय में एक साधारण पाठक को संदेह होता है कि वे केवल कहानी किस्से की तरह हैं या उनके वर्णन में कोई सचाई भी है। आगे चलकर हम इसी विषय पर प्रकाश डालना चाहते हैं।

इसे तो प्रायः सभी विद्वान स्वीकार करते हैं कि यह विश्व पहले एक अव्यक्त पदार्थ के रूप में था जिससे आकाश, की उत्पत्ति और उससे क्रमशः वायु, अग्नि, जल पृथ्वी का रूपांतर होता गया। सभी पुराण ग्रंथों में यही सृष्टिक्रम बतलाया गया है कि “जगद्गुरुपुरुषोत्तम के समीप स्थित हुई प्रकृति जब क्षोभ (चंचलता) को प्राप्त हुई, तो उससे महत्त्व का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे समष्टि-बुद्धि भी कहते हैं। फिर उस महत्तत्व से अहंकार उत्पन्न हुआ। अहंकार से सूक्ष्म तन्मात्रायें और एकादश इन्द्रियाँ प्रकट हुई। तत्पश्चात तन्मात्राओं से पञ्च महाभूत प्रकट हुए जो इस स्थूल जगत के कारण हैं। नारदजी! उन भूतों के नाम हैं—आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। ये क्रमशः एक-एक के कारण होते हैं।” आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक भी सृष्टि के आदि की खोज करते हुए ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुँचे हैं।

जब हम उपरोक्त सृष्टि-क्रम पर विचार करते हैं तो ज्ञान होते हैं कि अग्नितत्व तक तो किसी प्रकार के स्थूल शरीरधारी जीवों का प्रश्न उठ ही नहीं सकता। पर जल में प्राणियों की उत्पत्ति सम्भव है। इसलिए विकासवादी विद्वानों ने सबसे पहले मछलियों के उत्पन्न होने की ही कल्पना की है। उनका कहना है कि जब परिवर्तन होते होते हमारी पृथ्वी का वातावरण जीवधारियों के रह सकने लायक स्थिति में आ गया तो जल में एक कोषीय बहुत छोटे जीव पैदा हुए, जो धीरे धीरे मछलियों और फिर बड़ी मछलियों के रूप में बदलते चले गये। इस प्रकार पृथ्वी पर चैतन्य जीवन का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव मछली के रूप में हुआ, जिसमें ‘मत्स्यावतार’ की संज्ञा देना सर्वथा तर्क-संगत है। पुराणों में कहा गया है कि आरम्भ में ब्रह्माजी को एक बहुत छोटी सी मछली दिखायी पड़ी। उन्होंने उसे कमण्डल में डाल दिया तो वह कमंडल के बराबर हो गई। तब उन्होंने उसे तालाब में डाल दिया तो वह तालाब के बराबर बन गई। फिर उसे नदी में डाला गया तो उसका आकार नदी के बराबर हो गया। तब उसे समुद्र में डाला गया और वह समुद्र में विशालकाय हो गई। वैज्ञानिकों का भी मत है कि मत्स्य-युग में समस्त संसार मछली मय ही था क्योंकि जल के सिवाय दूसरे तत्व का अस्तित्व ही नहीं था और समयानुसार उन मछलियों का आकार भी बढ़ते बढ़ते पर्वतों के समान हो गया था। आजकल भी ह्वेल आदि मछलियां चार-चार हजार मन की अर्थात् हाथी से बीस पच्चीस गुनी तक भारी पाई जाती है। अतएव उस मत्स्य-युग में अगर सबसे बड़ी मछलियों का आकार लाख दो लाख मन तक भी पहुँच गया हो तो आश्चर्य की बात नहीं।

करोड़ों वर्ष तक परिवर्तन होते होते जल में मिट्टी जमने लगी और पृथ्वी का आविर्भाव होने लगा। उस समय पृथ्वी भाग बहुत नगण्य था, अधिकाँश भाग समुद्र का ही था। इसलिये उस परिस्थिति में ऐसे जीवों का आविर्भाव होने लगा जो मुख्यतः तो जल में ही रहते थे, पर कभी-कभी स्थल पर भी आ 10 सकते थे और खुली हवा में भी साँस ले सकते थे। यही जीव कछुआ या कच्छप जातीय था। जैसे जैसे पृथ्वी का भाग बढ़ता गया और जल से ऊँचा होता गया ऐसे जीवों की संख्या बढ़ती गई। यह जीव शरीर संगठन में मछलियों से उच्चतर था क्योंकि वह जल और स्थल दोनों जगह जीवन धारण करने में समर्थ था। यही कच्छपावतार था।

जब जल में से पृथ्वी का भाग पर्याप्त परिमाण में निकल आया और जल से इतना ऊँचा हो गया कि उस पर समुद्र की लहरों का आना रुक गया तो मिट्टी से तरह-तरह की तीसरी श्रेणी की वनस्पतियाँ उत्पन्न होने लगीं। तब पृथ्वी पर ऐसे जीवों का आविर्भाव हुआ जो वनस्पतियों को खाकर स्थल पर भली प्रकार जीवन निर्वाह कर सकते हैं और जल के भीतर जाने की जिनको कोई आवश्यकता नहीं। आरम्भ में यह जीव शूकर जातीय ही थे क्योंकि समुद्र से दूर हो जाने पर भी जल की अधिकता के प्रभाव से पृथ्वी का ज्यादा भाग दलदल के रूप में था और शूकर ही ऐसा प्राणी है जो स्थल का जीव होते हुये भी दलदल और कीचड़ में भली प्रकार रह सकता है। इस प्रकार जीव-जगत में विभिन्न अंगों से युक्त प्राणियों का आविर्भाव होकर विकास की शृंखला में एक नई कड़ी जोड़ी गई जिसे वराह अवतार की संज्ञा दी जा सकती है।

करोड़ों वर्षों तक स्थल का भाग बढ़ता गया और उसमें पर्वतों तथा जंगलों की वृद्धि होती रही। जब आहार की तरह तरह की सामग्री उत्पन्न हुई तो उसके अनुकूल तरह-तरह के चतुष्पद तथा अन्य प्रकार के जीव जन्तु भी बढ़ने लगे और कुछ समय में उनकी हजारों-लाखों किस्में हो गई। यद्यपि ये जीव एक दूसरे से बहुत भिन्नता रखने वाले थे पर वे थे पशुजगत के प्राणी ही। उनमें आहार, निद्रा, भय, मैथुन की प्रवृत्तियाँ तो काफी विकसित हो गई थीं, पर बुद्धि या ज्ञान का अस्तित्व उनमें न था, जिसके आधार पर ही मनुष्य और पशु का पृथक्करण किया जाता है।

जैसे जैसे पशुओं की संख्या बढ़ती गई उनमें जीवन-संघर्ष बढ़ता गया। शक्ति शाली पशु अपने से निर्बलों को मार कर खाने लगे या सुविधापूर्वक आहार मिल सकने योग्य स्थानों से उनको भगाने लगे। इससे निर्बलों को आत्मरक्षार्थ जीवन निर्वाह के अन्य साधनों की खोज करनी पड़ती थी। इस प्रकार जीवन-संघर्ष के परिणाम स्वरूप में सामान्य बुद्धि का विकास होने लगा और लाखों वर्षों की प्रगति के पश्चात् दुनिया में ऐसे प्राणियों का आविर्भाव हुआ जिनमें बुद्धि का अंश काफी बढ़ गया, पर मनुष्योचित ज्ञान का उनमें अभाव ही था। ऐसे प्राणियों को जो पशु और मनुष्य के बीच में थे हम न तो पशु कह सकते हैं और न मनुष्य। वे आधे पशु और आधे मनुष्य माने जा सकते हैं। आजकल उनके उदाहरण स्वरूप गोरिल्ला, औरंगउटंग आदि बनमानुष जातियाँ बतलाई जा सकती हैं। संसार में ऐसे आधे पशु तथा आधे मानव गुण और आकृति वाले प्राणियों के आविर्भाव को यदि ‘नर-सिंह’ के नाम से पुकारा जाय तो कोई अनुचित बात नहीं है। परिवर्तन और विकास का काल चक्र जीव-जगत को इस चौथी सीढ़ी पर आकर रुक नहीं गया, वरन् परिवर्तन के नियमानुसार बराबर अग्रसर होता गया। पृथ्वी के जलवायु और पैदावार में भी बहुत अन्तर पड़ने लगा और उसी के अनुसार प्राणियों की स्थिति भी बदलती रही। एकबार ज्ञान का अंकुर उग आने पर उसकी वृद्धि भी अनिवार्य थी। धीरे-धीरे वनमानुष की जानकारी बढ़ती गई और कुछ लाख वर्ष बाद ऐसा समय आया, जब कि मनुष्य कहलाने योग्य प्राणियों का जगत में आविर्भाव हो गया। इससे यह आशय निकालना कि मनुष्य बन्दर या वनमानुषों की ‘संतान’ है ठीक न होगा, जैसा कि अनेक मंदबुद्धि मजाक उड़ाने की दृष्टि से कहा करते हैं। वरन् इसका मतलब इतना ही है कि वनमानुषों के पश्चात् जीव जगत की पाँचवीं श्रेणी का आविर्भाव हुआ, वह कहाँ से और कैसे हुआ, इसे ठीक ठीक जान सकने का अब कोई उपाय नहीं है। सब अपने अपने अनुमान से काम लेते हैं।

पर प्रारम्भ में इस जीव की मानवीय शक्तियों बहुत ही सीमित और अप्रस्फुटित दशा में थीं, जैसी कि हम अब भी बहुत पिछड़े हुये जंगली लोगों में पाते हैं। आकर से वे मनुष्य अवश्य दिखलाई पड़ते हैं और शिकार आदि कार्यों में थोड़ी बहुत बुद्धिमत्ता संगठन शक्ति का परिचय भी देती हैं, पर उनमें न तो सामाजिक होती है और न कोई अन्य उच्च श्रेणी का मानवीय गुण ही। इसलिये मानवता तथा बुद्धि की दृष्टि से वे बहुत छोटी श्रेणी के माने जाते हैं और उनको वामन (बौना) कहना अनुपयुक्त नहीं।

इस प्रकार भूमंडल पर प्रथम जीवधारी-मछली से लेकर मनुष्य तक के आविर्भाव की ये घटनायें विकास शृंखला की पाँच स्पष्ट कड़ियाँ हैं। अथवा प्राणी की प्रगति की पाँच सीढ़ियाँ मानी जा सकती हैं। इनमें से प्रत्येक जीव अपने पूर्ववर्ती जीव की अपेक्षा अधिक इन्द्रिय जन्य योग्यता रखने वाला था, और कार्यक्षम था। इन पाँच सीढ़ियों या दर्जों को यदि हम जीवात्मा का एक नये रूप में परिवर्तन या एक नया अवतार कह दें तो हमारी सम्मति में इसमें कोई अत्युक्ति नहीं है।

जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं, वामन अवतार एक जी मनुष्य के रूप में तो पहुँच गया पर ज्ञान और संस्कृति की दृष्टि से उसका विकास अभी शेष था। अगले पाँच अवतार-परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि मानवीय सभ्यता के पाँच विभिन्न युगों के परिचायक हैं। इनमें से प्रत्येक को अपने युग का अगुआ भी कह सकते हैं। इस समय ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो हिन्दुओं के पुराणों को लड़कों की कहानियों से बढ़ कर मानने को तैयार नहीं, पर जब वे देखेंगे कि पुराण कारों ने पाँचों अवतारों के तथ्य को कहानी के रूप में लिखते हुए भी जीव-विकास की शृंखला का ठीक उसी क्रम से वर्णन किया है जैसा वैज्ञानिकों ने गत दो सौ वर्ष के भी तर लगाया हैं, तो उनको अपनी भूल अवश्य स्वीकार करनी पड़ेगी।

हम ऊपर कह चुके हैं कि वामन-युग का मनुष्य मानवीय शक्तियों की दृष्टि से बहुत अविकसित था। जैसे-जैसे समय बीतता गया जीवन-संघर्ष तथा अन्य परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप वह प्रगति-पथ पर अग्रसर होने लगा पर किसी सामाजिक व्यवस्था के अभाव से वह प्रायः पशुओं के साहचर्य में ही रहने को बाध्य था ओर उसकी दृष्टि में सब से अधिक मूल्य शारीरिक शक्ति का ही था जिसके द्वारा वह पशुओं और अन्य मनुष्यों के आक्रमण से आत्मरक्षा कर सके और दूसरों का मुकाबला करके आहार पा सके। इस दृष्टि से उस समय मनुष्य का सबसे बड़ा काम अपनी शारीरिक शक्ति तथा हथियारों की ताकत बढ़ाना था। इसी उद्देश्य से बाद में मनुष्य छोटे-छोटे समूहों में संगठित होकर भी कार्य करने इस प्रकार मनुष्यों में सदा रक्त पात होता रहता था और किसी का जीवन सुरक्षित न था। ऐसी दशा में किसी सुदृढ़ सामाजिक संगठन और सभ्यता की वृद्धि की आशा करना तो व्यर्थ ही था। उस समय किसी ऐसी विशेष शक्ति की आवश्यकता थी जो केवल पाशविक शक्ति में विश्वास रखने वाले और चाहे जिस पर अकारण ही आक्रमण कर देने वाले युद्ध-प्रिय मनुष्यों को दवा कर समाज में शांति स्थापित करे। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही परशुराम जी का अवतार हुआ, जिन्होंने रक्त-पिपासु लोगों के विरुद्ध कठिन कुठार उठाया और अनेक बार उनका नाश करके शाँति-प्रिय लोगों को समाज का संचालक बनाया। इस प्रकार परशुराम जी ने समाज में अशान्ति फैलाने वाले तत्वों को निर्मूल करके समाज के संगठित होने का मार्ग प्रशस्त कर दिया जो उस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता थी।

समाज में शान्ति स्थापित होने पर इस बात की आवश्यकता हुई कि उसमें हितकारी और उपयोगी नियमों का प्रचार किया जाय, जिससे सब कोई सुख पूर्वक रह सके और उन्नति-मार्ग में अग्रसर हो सकें 12 इस कार्य की पूर्ति मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के द्वारा हुई। उन्होंने देश की सब शक्तियों का एकीकरण करके एक देश व्यापी सुसंगठित शासन व्यवस्था कायम की जिसमें चारों वर्ण के लोग अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करे हुए सभ्यता और संस्कृति की वृद्धि करने लगे। उनका कार्य इतना विशाल ओर महान था कि वह किसी एक क्या सैकड़ों मनुष्यों द्वारा पूरा हो सकना भी सम्भव नहीं जान पड़ता था। सच पूछा जाय तो आज का हिन्दू समाज उन्हीं के दिखाये मार्ग तथा आदर्शों पर चल कर संसार में अपना अस्तित्व सार्थक कर रहा है। यही कारण है कि दश अवतारों में से भी हिन्दू समाज में सबसे अधिक पूजा और मान आज भी भगवान राम को ही प्राप्त है।

इसके बाद श्रीकृष्णावतार का युग आया। उस समय तक भगवान रामचन्द्र द्वारा प्रजा के कल्याण का मुख्य ध्यान रखने वाले लोक-प्रिय राज्य का संगठन छिन्न-भिन्न हो गया था और उसके स्थान में बड़े बड़े साम्राज्य स्थापित हो गये थे जो अपनी स्वार्थसिद्धि और महत्वाकाँक्षा की पूर्ति के लिये परस्पर संघर्ष करते रहते थे। इन युद्धों के कारण प्रजा पर करों का भार बेतरह बढ़ता जाता था और सेना द्वारा लूटमार होने से भी उसकी बड़ी दुर्दशा थी। पाँचाल (पंजाब), कुरु (मेरठ); मगध (बिहार); शौरसेन (मथुरा) आदि ऐसे ही साम्राज्य थे, जो अपने राज्य-विस्तार के लिये बड़े-बड़े युद्ध-अभियान किया करते थे। इन साम्राज्य वादियों ने प्रजा की स्वतंत्रता का अपहरण कर लिया था और उसकी दशा दासों या गुलामों की सी होती जाती थी। जो कोई उनके विरुद्ध मुँह खोलने का साहस करता था, उसी के मस्तक पर उनका भयंकर दण्ड-प्रहार होता था। दानवीय प्रकृति के इन नृशंस साम्राज्यवादियों के अत्याचारों से प्रजा जब त्राहि-त्राहि कर उठी तब भगवान कृष्ण का अवतार हुआ।

श्रीकृष्ण ने सबसे पहले तो अपनी ही शक्ति और संगठन विषयक योग्यता से क्रूरकर्मी सम्राट कंस का विध्वंस किया। फिर कूटनीति का आश्रय लेकर उन्होंने इन साम्राज्यों का एक-एक करके विनाश कर दिया और महाभारत के संग्राम में तो उनकी शक्ति को ऐसा छिन्न-भिन्न करा दिया कि बहुत समय के लिये साम्राज्यों का नाम निशान मिट गया और प्रजा शक्ति अभ्युदय का मार्ग खुल गया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने अपनी यह घोषणा पूर्णतया चरितार्थ कर दिखाई:—

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥

कृष्णावतार का दूसरा मुख्य उद्देश्य कला और सौंदर्य का प्रसार भी था। जिसके बिना मनुष्य भली प्रकार से जीवन निर्वाह और लोक व्यवहार करता हुआ भी बिना सींग और पूँछ का पशु, माना जाता है! संभवतः कृष्णजी की मुरली और रास-लीला उनकी कला-प्रियता तथा उसके प्रचारक होने का ही प्रतीक है।

भगवान कृष्ण के बाद गौतम बुद्ध को हिन्दू धर्म में नौवाँ अवतार मान लिया गया है। यह तो सहज ही में अनुमान किया जा सकता है कि हिन्दू-बौद्ध विरोध का समन्वय करने के लिये ‘वेद विरोधी’ कहे जाने वाले बुद्ध भगवान को भी अवतारों में गिन लिया गया है। पर इस का केवल यही एक कारण नहीं हो सकता। सामयिक विरोध के होते हुये भी हिन्दू शास्त्रकारों ने भारतीय संस्कृति के लिये किये गये बुद्ध जी के महान कार्य का सच्चा मूल्याँकन किया। यदि मानवता के विकास की दृष्टि से देखा जाय तो बुद्धदेव ने अहिंसा और करुणा का विश्व व्यापी प्रचार करके मानवीय संस्कृति में एक नई और उच्च सीढ़ी जोड़ी। कला और सौंदर्य-प्रेम मनुष्य का भूषण अवश्य हैं, पर अहिंसा और करुणा दैवी सम्पत्ति हैं और इनसे मनुष्य भौतिक क्षेत्र से निकल कर आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने योग्य बनता है। ये मनुष्य को देवत्व और मुक्ति की 13 ओर ले जाने वाले गुण हैं। जन-समुदाय को इन की व्यापक और व्यवहारिक शिक्षा देने वाला अवतार या जगद्गुरु के सिवा और कौन हो सकता है?

दसवाँ अवतार कल्कि माना गया है जो शास्त्रकारों के अनुसार दूर भविष्य में होगा। संभव है भौतिक विज्ञान और यंत्रीकरण (मशीनों) की अति होने पर वर्तमान सभ्यता के चकनाचूर होने की जो संभावना प्रकट की जा रही है, उसके बाद मानवता को किसी नई दिशा में ले जाने का कार्य कल्कि अवतार द्वारा ही सम्पन्न हो।

इस प्रकार पाठक देखेंगे कि पुराणकारों ने संसार में जीवों की उत्पत्ति और उनके क्रमशः विकास के विवरण को किस प्रकार मनोरंजक और अनपढ़ जनसमूह के लिये भी कहानी किस्सों की तरह बोधगम्य कथाओं के रूप में प्रकट करके कितना महत्व का काम किया है। पुराणों में और भी इसी तरह के सैकड़ों गूढ़ तत्त्व कथाओं के रूप में वर्णित है, जिनकी व्याख्या हिन्दू धर्म के अनेक विद्वान कर चुके हैं। समय आने पर पाठकों की जानकारी के लिये उन्हें भी इसी प्रकार लेख रूप में प्रकट किया जायगा।

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