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Magazine - Year 1958 - Version 2

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पश्चिमी देशों में ईश्वरीय निष्ठा का प्रादुर्भाव

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(श्री. परिपूर्णानन्द वर्मा)

पिछले सौ डेढ़ सौ वर्षों से संसार में स्वार्थपरता की वृद्धि के साथ ही ईश्वर से विमुखता का भाव भी जोर पकड़ रहा था। अब कई बार ठोकरें खाने के बाद संसार को, विशेष से सबसे धनी और ऐश्वर्यशाली देशों को फिर से ईश्वर की याद आ रही है। केवल धन से ही सुख तथा शान्ति नहीं मिलती। इसके लिये चित्त की शुद्धता आवश्यक है। चित्त की शुद्धता बिना विवेक के संभव नहीं और विवेक धर्म तथा ईश्वर के ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है।

द्वितीय महायुद्ध की यातनाओं के बाद धन मद से चूर पश्चिमी समाज पुनः ईश्वर की ओर मुड़ रहा है। पर इसकी प्रतिक्रिया भी हो रही है। संयुक्त राज्य अमेरिका में कई लोग पैगम्बर और ईश्वर के पुत्र बनकर बैठ गये और करोड़ों रुपये उन पर चढ़ाये जा रहे हैं। इसके सिवाय अनेक बुद्धिवादी भी इस लहर की वृद्धि में योग दे रहे हैं। कनाडा के वैंकोवर नगर में अहिंसा प्रचार के लिए एक संस्था का निमार्ण हुआ है, इस संस्था ने अपने चार मौलिक सिद्धान्त बनाये हैं। इनमें पहला सिद्धान्त है, अहिंसा को परम धर्म मानना और दूसरा है विश्व शांति के लिये प्रयत्न करना। साथ ही ये लोग यह भी कहते हैं-

“हम चाहते हैं कि यह स्वीकार किया जाय कि वर्तमान आर्थिक प्रणाली निकम्मी साबित हो गई है।”

“हम चाहते है कि ऐसी सरकार बने जो वर्तमान विधान से उठकर समाज की सेवा तथा जनता की स्वाधीनता की रक्षा करे।”

संस्था का कथन है कि आज संसार संकट इस कारण है कि हम मुनाफाखोरों का मुनाफा गलत ढंग से बाँटते है या बँटने देते हैं। जिनको पीसकर मुनाफा होता है उन्हें कुछ नहीं मिलता। वर्तमान समय में द्रव्य की मर्यादा गलत है, भ्रमपूर्ण है। जब तक धन का महत्व कम न होगा, विश्व संकट बना रहेगा। विज्ञान को भी अपना योग्य स्थान ग्रहण करना होगा। वर्तमान विज्ञान हमें जानकारी हासिल करा सकता है, पर विवेक की प्राप्ति दार्शनिकता से ही होगी। हमको स्वीकार करना पड़ेगा कि हम सब के ऊपर भगवान है।

लोगों की समझ में यह बात आ गई है कि सब बुराइयों की जड़ अपने भीतर की आत्मा को न पहचानना है। उसी का ज्ञान करा देने से अन्य सब विकार दूर हो जायेंगे। इसलिये इंग्लैंड में कई आध्यात्कि चिकित्सा केन्द्र खोले गये हैं। एक केन्द्र का नाम है ‘एवलान हीलिगं सेंटर’ इसका ऑफिस लन्दन के ‘पैडिंगटन’ मौहल्ले में है। दूसरा ‘लारेंस हीलिंग सेंटर’ लन्दन के विम्बलडन मौहल्ले में हैं। पश्चिमी आस्ट्रेलिया के पर्थ नगर में श्री. कालविन अनविन यही काम कर रहे हैं। इन आध्यात्मिक केन्द्रों का उद्देश्य है, सत्य को कार्य रूप में परिणित करना। सत्य क्या है, इसका विश्लेषण करते हुये श्री. डब्यू. बी कारलाक ने कहा है कि यदि जीवन को सार्थक करना चाहते हो तो ईश्वर के अनुशासन का पालन करो। संसार से सैनिक शक्ति को समाप्त कर दो। विनाशक हथियारों को नष्ट कर दो। लोगों को आवश्यकतानुसार जमीन दो, काम दो। पेट भरने के लिए पशु वध बन्द करो। महत्वाकांक्षी तथा पदलोलुपों के हाथ में शासन नहीं रहना चाहिये, केवल सेवा के लिए भावना से काम करने वालो के हाथ में शासन अधिकार रहना चाहिये।

शिकागो (अमेरिका) के लुई लालवाकेक लिखते हैं- “यह नर-तन केवल उस परम पिता का प्रेरणा की ही परिणाम है, उसकी इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए है। सब धर्मों ने माना है कि परमात्मा सर्वव्यापक है। परम पिता अपना सब काम हमारे तुम्हारे जैसे साँसारिक जनों द्वारा ही कराता है।” इन लोगों का यह भी कहना है कि ईश्वर नहीं चाहता कि पशु वध हो तथा लोग पेट के लिए पशु हत्या किया करें। इसलिए पशु वध निरोधक यानी निरामिषभोजियों की संस्थाएं कायम होती जा रही हैं। ग्रेट ब्रिटेन के सरे नामक नगर में निरामियों की नव संस्थापित संस्था का नाम वेगन सोसाइटी है। लन्दन में वंकिघम स्ट्रीट पर पशु रक्षा समिति का प्रधान कार्यालय है। इसकी शाखाएँ देश भर में खुल रही हैं।

एक अंतर्राष्ट्रीय निरामिषभोजी संघ का भी निर्माण किया गया है, जिसके सभापति प्रो. डब्लू. ए. शिब्लो है। इस संघ की अमरीका शाखा के अध्यक्ष हैं डॉ. जेस समर्सर। इस संस्था की तरफ से एकाध विद्वान विभिन्न देशों में प्रचारार्थ भ्रमण करते रहते हैं। जापान में भी “शिनरी जिक्की काई” नामक आध्यात्मिक संस्था की स्थापना की गई है, जिसकी जन्मदाता श्रीमती “चियोको होजौं” दया, स्नेह, प्रेम, भक्ति, ईश्वर में निष्ठा आत्म चिन्तन तथा सात्विक भोजन पर लेखमाला प्रकाशित कर रही हैं और उनको जनता का काफी समर्थन प्राप्त हो रहा है।

योरोप और अमरीका के देश धन की पूजा करने वाले समझे जाते हैं। पर अब वहाँ के अनेक विचारक धन की लालसा की बुराई को समझने लगे हैं। बैंकोवर (कनाडा)की संस्था ने अपने वक्तव्य में कहा है कि उद्योग धंधों में मिलने वाला मुनाफा असली धन नहीं है। प्रजा के सुख के साधन ही वास्तविक धन है। लोगों ने धन की गलत व्याख्या करके संसार को पीड़ित बना रखा है। धनी का धन एक दिन निर्धन का हो जायगा। अर्जेन्टाइना के भूतपूर्व राष्ट्रपति पीरो ने एक बार कहा था “संसार के अनेक देश भूखे हैं। हमारे पास खाद्य सामग्री है। हम कब तक एक दूसरे का मिल जाना रोक सकेंगे? धन की दलाली करके मालदार बनने वालों ने शब्दों का भ्रष्टाचार करके अपने को बचा रखा है। आजकल मुनाफा, साख, बचत, बीमा, मिल्कियत, मूल्य, संपत्ति, कर, लागत, पूँजी आदि शब्दों का अर्थ जिस प्रकार तोड़-मरोड़ कर किया जा रहा है वही हमारी विपत्ति का कारण है।”

यार्क शायर (इंग्लैंड) के श्री. गिल टामस ने लिखा है जब तक संसार में से धन की सत्ता समाप्त न हो जायगी, तब तक वह सुखी नहीं हो सकता। मुझे भूख लगी है और आपके पास भोजन है, तो मेरी भूख दूर करना आपका धर्म है। संसार के सभी देशों की आवश्यकताओं का एक अनुमान पत्र (तखमीना) बना लेना चाहिये। फिर उनको पूरा करने के लिए हर एक देश के साधनों से काम लेना चाहिए। पूर्वकाल में संसार में एक प्रकार की चीजों का दूसरी प्रकार की चीजों से अदला-बदली किया जाता था। स्वार्थी शासकों ने इस असली मुद्रा को नष्ट करके सोने चाँदी की कृत्रिम मुद्रा चला दी। अब अगर हम शांति चाहते हैं तो पहले मुद्रा नामक पाप को समाप्त कर देना चाहिये। विनिमय के साधन प्राकृतिक होने चाहिये। रुपया, सोना, चाँदी यह सब मनुष्य को गड्ढे में ले जाता है। असली द्रव्य है स्नेह, परस्पर की आवश्यकताओं को वस्तु विनिमय द्वारा पूरा करना। जहाँ विनिमय का साधन स्वर्ण बनाया गया, मानव का पतन आरम्भ हो गया।

दक्षिण अफ्रीका के श्री. राल्फ माँटगोमरी ने भी इसी आशय की बाते कही हैं। मेक्सिको की एक सद्विचारों की महिला लिलिथ लारेन ने “आश्चर्यजनक मदिरा” नाम की पुस्तक लिखी है, जिसमें विज्ञान की सर्वश्रेष्ठता का खण्डन किया गया है। उसका कथन है कि विज्ञान के ऊपर परमात्मा है। वही सब कुछ करता धरता है। विज्ञान से ऊपर बुद्धि है। जिसने बुद्धि से काम नहीं लिया वह विज्ञान से लाभ नहीं उठा सकता। हेनरी जार्ज ने अपने एक लेख में कहा है यदि लोग अपने पराये का भाव भूल जाये तो संसार का बड़ा कल्याण होगा।

नई विचारधारा में शासकवर्ग की भौतिकवादिता के विरुद्ध बड़ा असन्तोष प्रकट किया जाता है। लोग चाहते हैं कि नये शासक हों, नई विचारधारा हो, ईश्वर तथा धर्म की भावना रग रेशे में भरी हो। कैलीफोर्निया के डब्यू. बी. कार्लक महोदय लिखते है-

“जन समूह को अधिकार लोलुप, महत्वाकाँक्षी, धूर्त तथा बेईमान लोगों ने शासन की बागडोर अपने हाथ में करके मूर्ख बना रखा है। ऐसी सरकारी बेईमानी को कायम रखने के लिए मजबूत सेना रखी जाती है। यह सेना अपनी हिंसा द्वारा मानव की स्वाधीनता का अपहरण करती है। मानव को परम दयालु परमात्मा से विमुख करा देती है, जिसने हमें पैदा किया है। भगवान ने मानव को अपनी शक्तियों का सदुपयोग करके जीवन का पूरा सुख भोगने के लिए ही रचा है।”

भारत का सदा से यही उपदेश रहा है और अब भी यही है। पश्चिम अपने धन की चकाचौंध में इसे भूल गया था, अब वह फिर रास्ते पर ही आ रहा है।

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