
अपने काम से काम रखो
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(श्री. कृष्णमूर्ति)
मनुष्यों में सामान्य रूप से एक प्रवृत्ति यह पाई जाती है कि वे दूसरे के कामों में बहुत जल्दी हस्तक्षेप करने लगते हैं। पर यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो अन्य मनुष्य जो कुछ कहता, करता या विश्वास करता है, उससे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं, तुम्हें उसकी बात पूर्णतया उसी की इच्छा पर छोड़ देनी चाहिए। उसे अपने विचार, भाषण और कार्यों में स्वतन्त्र रहने का पूर्ण अधिकार है, जब तक कि उनके कारण दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं होता। तुम स्वयं अपने कार्यों में जिस प्रकार की स्वतन्त्रता की इच्छा करते हो वही दूसरों को भी देनी चाहिए।
वास्तव में किसी सज्जन व्यक्ति को कभी पराये कार्यों और विश्वासों में कोई हस्तक्षेप न करना चाहिये, जब तक उनके किन्हीं कार्यों से सर्वसाधारण की प्रत्यक्ष हानि न होती हो। यदि कोई मनुष्य ऐसा व्यवहार करता है, जिससे कि वह अपने पड़ौसियों के लिए दुखदायी बन जाता है, तो उसे उचित सम्मति देना कभी-कभी हमारा कर्तव्य हो जाता है, पर ऐसा मौका आने पर भी बात को बहुत नम्रता और सरलतापूर्वक प्रकट करना चाहिये।
इस सम्बन्ध में छोटे-मोटे देशों की बात छोड़ दीजिये स्वतन्त्रता के परम उपासक इंग्लैंड में लोगों को वास्तविक स्वाधीनता प्राप्त नहीं है। वे लोग भी प्रचलित रिवाजों और बाह्य शिष्टाचार के नियमों से इतने जकड़े रहते हैं कि न तो कोई अपनी रुचि के अनुसार वस्त्र धारण कर सकता है न कही आना जाना ही कर सकता है। उदाहरणार्थ अगर किसी को पुराने जमाने की ग्रीक फैशन की पोशाक अच्छी लगती है और वह उसे पहनकर सड़क पर निकल जाय तो लोगों की भीड़ उसे इस प्रकार घेर लेगी, मानो वह किसी अजायबघर से आया हो और उसका चलना-फिरना कठिन हो जायगा।
यह सच है कि जिस प्रणाली पर देश के सब मनुष्य चलते हैं, हम प्रत्येक को उसी पर चलाना चाहते हैं और इसे एक प्रकार की सामाजिक सेवा या देश की भलाई समझते हैं। पर हम यह विचार नहीं करते कि मनुष्य सहर्ष उतनी ही बात ग्रहण कर सकता है, जितनी बातों का ज्ञान उसके हृदय में भली प्रकार समा चुका है। ऐसे मनुष्य पर अगर हम अपनी मानी हुई उत्तम बाते भी बलात् लादने की चेष्टा करेंगे तो उससे लाभ की अपेक्षा हानि की संभावना ही अधिक है। अन्तःकरण की शक्ति बाहर से उत्पन्न नहीं की जा सकती, यह तो पूर्व अनुभवों के फलस्वरूप प्राप्त होती है। इसलिए अगर कोई मनुष्य आपकी इच्छित समस्त शिक्षा और उपदेश को ग्रहण कर लेता है, तो यह समझना चाहिये कि वह ज्ञान उसके अन्तर में पहले से ही विद्यमान था, इस बाहरी संदेश ने उसे केवल जाग्रत कर दिया। पर यदि कोई व्यक्ति बार-बार शिक्षा देने से भी किसी बात को न सीखे अथवा उसका विरोध करे तो हमको यही मान लेना चाहिये कि अभी उसकी पहुँच वहाँ तक नहीं है अथवा उसका मन दूसरे मार्ग पर जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में मतभेद के आधार पर लड़ना-झगड़ना बुद्धिमानी अथवा सभ्यता का लक्षण नहीं माना जा सकता।
अगर कोई व्यक्ति हमारे विचार से कोई बड़ी भूल कर रहा है तो तुम उसे एकान्त में अवसर ढूँढ़ कर यह बतला सकते हो कि आप ऐसा क्यों करते हैं? संभव है ऐसा करने से वह तुम्हारी बात पर विश्वास कर सके। किन्तु अनेक स्थानों पर तो ऐसा करना भी अनुचित रूप से हस्तक्षेप ही करना होगा। किसी तीसरे व्यक्ति के सामने तो उस बात की चर्चा हर्गिज नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वह उसकी निन्दा करना होगा, जो किसी सभ्य व्यक्ति को शोभा नहीं देता।