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Magazine - Year 1958 - Version 2

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समाज की न्यायानुकूल व्यवस्था कैसे हो?

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(श्री. बुद्धदेवजी विद्यालंकार)

इस समय मानव समाज में जो हलचल और असन्तोष का भाव भयंकर रूप से दिखलाई पड़ रहा है, उसका मुख्य कारण जीवनोपयोगी सामग्री के बँटवारे की विषमता है। आज संसार की यह दशा है कि एक देश में लाखों व्यक्ति दाने-दाने को तरस कर भूखों मर जाते है। और दूसरे में लाखों मन खाद्य पदार्थ सड़कर नष्ट कर डाला जाता है। दो देशों की बात छोड़ दीजिये, बंगाल के दुर्भिक्ष जैसे घोर आपत्तिकाल में उसी प्रदेश के अनेक व्यापारियों तथा सरकार के गोदामों में लाखों मन चावल, गेहूँ पड़ा सड़ता रहा और पास ही लोग भूख से तड़प-तड़प कर मरते रहे, जिनकी संख्या कुछ महीनों में ही 30-40 लाख तक पहुंच गई। इसलिये यह कहना पड़ता है। कि वर्तमान समय में जो अनगिनती मनुष्य अन्न और वस्त्र की कमी से पीड़ित हैं, उसका कारण इन वस्तुओं का अभाव नहीं है वरन् यह है कि शासन और समाज उनके बँटवारे की ठीक-ठीक व्यवस्था नहीं कर सके हैं। इसके परिणामस्वरूप वे वस्तुएँ एक स्थान पर तो आवश्यकता से अधिक इकट्ठी होकर सड़ाँद उत्पन्न करती हैं और दूसरे स्थान पर बहुत कम पहुँचकर लोगों को कुत्ते-बिल्ली की तरह रोटी का टुकड़ा ढूँढ़ते फिरने के लिये विवश करती है।

इसके पहले कि पदार्थों के ठीक बँटवारे के तरीके पर विचार किया जाय, हम यह जान लेना आवश्यक समझते हैं कि हमको किन पदार्थों का बँटवारा करना है। इन पदार्थों को हम दो हिस्सों में बाँट सकते है। (1) आलम्बन पदार्थ, (2) अनुबन्ध पदार्थ। आलम्बन पदार्थ वे हैं, जिनके बिना हमारी जीवन यात्रा असम्भव है। ऐसे पदार्थ मुख्य रूप से चार हैं- (1) ज्ञान, (2) आहार, (3) परिच्छाद (वस्त्र तथा घर) (4) चिकित्सा। ये चारों पदार्थ ऐसे हैं, जिनकी आवश्यकता प्रत्येक मनुष्य को अनिवार्य रूप से है और प्रत्येक मनुष्य को, जो जान बूझकर श्रम करने से इन्कार न करे, ये आवश्यकतानुसार मिलने चाहिये। जो व्यक्ति श्रम करने से इन्कार करे उसे भी कोई न कोई समाजोपयोगी कार्य करने के लिए बाध्य करना चाहिये न कि इन पदार्थों से वंचित करना चाहिये, क्योंकि इन पदार्थों- खास कर अन्य और वस्त्र के बिना किसी का काम नहीं चल सकता और जो लोग इनको सीधी तरह से प्राप्त न कर सकेंगे वे अनुचित उपायों से जैसे चोरी, ठगी आदि से काम चलायेंगे।

‘अनुबन्ध पदार्थ’ वे हैं, जिनके बिना हमारा जीवन निर्वाह हो सकता है, जैसे उच्चकोटि का संगीत, बढ़िया चित्र कला, अति स्वादयुक्त भोजन आदि। यह पदार्थ भी यथा संभव सबको मिल सकें तो अच्छा है। परन्तु इनके बँटवारे में किसी कारणवश कुछ प्रतिबन्धों (रुकावटों) की आवश्यकता हो तो वे लगाये जा सकते हैं। क्योंकि यदि ये सबको प्राप्त न हो, तब भी समाज का काम चल सकता है। दूसरी बात यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति की रुचि इनमें से सब पदार्थों की तरफ होती भी नहीं। उदाहरण कि लिये करोड़ों व्यक्ति ऐसे हैं, जिनके लिये किसी संसार प्रसिद्ध चित्रकार की कला सिवाय निरर्थक लकीरों के और कुछ नहीं जान पड़ती। इसी प्रकार उच्च संगीत के सम्बन्ध में बहुसंख्यक व्यक्तियों का ज्ञान भैंस के आगे बीन बजाने के समान ही होता है। यही बात उच्चकोटि की अन्य कला कृतियों के सम्बन्ध में लागू हो सकती है।

अब हमको एक ऐसी प्रचलित कसौटी मिल गई, जिससे हम किसी समाज में प्रचलित व्यवस्था के भले बुरे होने की जाँच कर सकते हैं। जिस समाज व्यवस्था में आलम्बन पदार्थों से कोई परिश्रमी व्यक्ति वंचित न रहे और जिसमें अनुबन्ध पदार्थ भी यथासंभव सब तक पहुँचाये जा सकते हों, वहाँ व्यवस्था समाज के लिये आदर्श है। वेद में भी ऐसी ही व्यवस्था का आदेश दिया गया है। उसमें परमात्मा के अनेक गुणों को बताते हुये यह भी कहा है।

विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम॥यजुः 30।4॥

अर्थात् हम मनुष्यों की ठीक परख कर सकने वाले तथा प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा कर सकने में समर्थ, विविध प्रकार का ज्ञानवर्द्धक धन यथायोग्य सब में बाँटने वाले, सविता (परमात्मा अथवा उसके गुण को धारण करने वाले राजा ) को पुकारते हैं।

अब हम इस समस्या को हल कर सकते हैं कि संसार में वस्तुओं पर किसी मनुष्य का कहाँ तक अधिकार है? जिस बँटवारे का परिणाम ऊपर वर्णन किये वेद के आदेश के अधिक से अधिक समीप पहुँचता हो वही सबसे श्रेष्ठ है। पर आजकल लाखों व्यक्ति श्रम करने की इच्छा रखते हुये भी नौकरी या मजदूरी नहीं पाते और लाखों अधिक परिश्रम करने पर भी पदार्थों की कमी से, उचित भोजन, वस्त्र तक से वंचित रहते हैं। इससे स्पष्ट प्रकट होता है। कि वर्तमान काल में बँटवारे की जो प्रथा प्रचलित है वह दोषयुक्त अथवा त्रुटिपूर्ण है।

इस समय दुनिया में मुख्य रूप से बँटवारे के दो सिद्धान्त प्रचलित हैं। एक को हम जन्माधिकारवाद कह सकते हैं और दूसरे को श्रमाधिकारवाद।

(1) जन्माधिकारवादियों का कहना है कि परमात्मा ने जिस मनुष्य को जिस कुल में जन्म दे दिया है, उसे उस कुल में जन्म लेने के कारण अपने पिता तथा अन्य पूर्वजों की सम्पत्ति का उपभोग करने का जन्म सिद्ध अधिकार है। यही सिद्धान्त संसार के अधिकाँश देशों में प्रचलित है, यद्यपि यह कहा जा सकता है कि भारतवासियों ने इस विचारधारा को पुनर्जन्म तथा भाग्यवाद का संयोग करके पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया है। यहाँ राजा से लेकर मेहतर तक के अधिकार और कर्तव्य अटल और अपरिवर्तनीय हैं।

इस जन्माधिकारवाद के विषय में क्या कहा जाय? इस समय संसार में जो अनेक अन्यायपूर्ण विषमताएं तथा दुःख दिखाई पड़ रहे हैं उनका मूल कारण यही है। मनुष्य को उन्नति को ओर ले जाने वाली दो शक्तियाँ होती हैं एक भय तथा दूसरा उत्साह। इन दोनों का गला घोटने का इससे बढ़कर और कोई मार्ग नहीं हो सकता। विशेषतः भय का तो इसमें लोप ही हो जाता है। जब टाटा और बिड़ला जैसे धन कुबेरों के पुत्रों को इस बात का भय न हो कि किसी अवस्था में उनकी सम्पत्ति छीनी भी जा सकती है, और कल्लू चमार को यह उत्साह न हो कि वह भी समाज में कभी बड़ी पदवी पा सकता है तो उन्नति कैसे हो सकती है? इस व्यवस्था के हानिकार परिणाम इतने स्पष्ट हैं कि उनका विस्तार से वर्णन करना आवश्यक है। आज श्रमजीवी समुदाय की ओर से जो भयंकर क्राँति का झंडा खड़ा किया गया है उसका मूल कारण यही अन्याय है। जो व्यक्ति स्वयं परिश्रम करके अपनी बुद्धिमानी, समय सूचकता, संगठन शक्ति तथा कार्यकर्ताओं के साथ मधुर व्यवहार के ऊँचे पद पर पहुँचा है तथा जिसने अपनी पैदा की हुई सम्पत्ति में से दूसरों की भलाई और समाज के उपकार के लिए लाखों, करोड़ों रुपया दान भी किया है। उसकी सम्पत्ति तो कुछ कट्टर पंथियों को छोड़कर, जनसाधारण को नहीं भी अखरती। पर यह बात अधिकाँश लोगों को अखरती है। अनुचित प्रतीत होती है कि इतनी बड़ी पूँजी बिन योग्यता की परीक्षा के उस पूँजीपति के पुत्र को दी जाय, और वह उसका चाहे जैसा भी दुरुपयोग करता रहे तो भी वह उसी के अधिकार में पड़ी रहे।

इसके उत्तर में बहुत से लोग विधाता का विधान कर्मफल, भाग्य अथवा ईश्वर की आज्ञा का नाम ले देते हैं। सच पूछा जाय तो ईश्वर के सबसे बड़े शत्रु उसके यह भाग्यवादी भक्त ही हैं। वे यह भूल जाते हैं कि जिस भगवान ने हमको विशेष अवस्थाओं में जन्म दिया है उसी ने हमको अपनी शक्तियों का उचित उपयोग करने का आदेश भी तो दिया है। उसने हमको हाथ, पैर, आँख, नाक, कान और सबसे बढ़कर मस्तिष्क ये जो अमूल्य साधन प्रदान किये हैं इनका अभिप्राय भाग्य के साथ लड़कर उस पर विजय प्राप्त करना ही है। भगवान ने कहा है।

द्वष्या दूषिरसि हेत्या हेतिरसि मेन्या मेनरसि आप्नुहि श्रेयाँसम। अति समम् क्राम॥

अथर्व. 2।11।1

अर्थात् तू शस्त्रों को काटने वाला शस्त्र है, तू दूषणों को दूषित कर देने वाली महाशक्ति है, तू चिन्ताओं का पहले से चिन्तन करने वाला अनागत विधाता है। उठ जो तेरे साथ की पंक्ति में है उन्हें पीछे छोड़ और जो अगली पंक्ति में हैं, उनमें जा मिल।

इतना ही नहीं भगवान ने पुरुषार्थ के लिए और भी स्पष्ट शब्दों में कहा है-

कृतम्मे दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहितः।

अथर्व. 7।50।8

अर्थात् “हे मनुष्य सदा याद रख कि पुरुषार्थ मेरे दाहिने हाथ में रहता है और विजय बाएँ हाथ में रहती है।”

इस प्रकार भय तथा उत्साह दोनों में बाधक होने के कारण जन्माधिकारवाद धर्म विरुद्ध है। उसके द्वारा संसार सुखी नहीं हो सकता।

दूसरी ओर “श्रमाधिकारवादियों” का कहना है कि जिस किसी ने किसी पदार्थ को उत्पन्न करने में श्रम किया है, उसका उस पर अधिकार है। यह कुछ अंशों में सत्य है, पर अनेक बाते इसमें अपवाद भी हो सकती हैं। जैसे कोई मनुष्य अपनी श्रम की कमाई को स्वयं खर्च न करके किसी विद्वान या परोपकारी व्यक्ति को दे दे। उस अवस्था में उनको वह रुपया बिना परिश्रम के ही मिलेगा। इसी प्रकार अनेक मनुष्य मन्दिरों, पुस्तकालयों, सेवा संस्थाओं के संचालकों को हजारों लाखों रुपया दे डालते हैं। ऐसे धन के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि उसके कमाने में परिश्रम तो एक व्यक्ति ने किया और उसका उपभोग सर्वथा अनजान मनुष्यों ने किया। इस प्रकार श्रमाधिकार का सिद्धान्त पूर्ण रूप से तर्क संगत नहीं है।

श्रमाधिकारवाद पर विचार करते हुये साम्यवाद का प्रश्न भी उपस्थित हो जाता है। साम्यवाद के अनुयायी कहते हैं कि सम्पत्ति पर सब लोगों का समान रूप से अधिकार है, इसलिये किसी को कम या ज्यादा सम्पत्ति न मिलनी चाहिए। इस सिद्धान्त के विरुद्ध सबसे मुख्य दलील यह है कि संसार में सब मनुष्यों की क्षमता एक सी नहीं है, इसलिये उनके अधिकार भी एक से नहीं हो सकते। न सब मनुष्यों की भूख एक सी है, न श्रम शक्ति एक सी है, न योग्यता एक सी है। ये चीजें न मात्रा में एक बराबर हैं न श्रेष्ठता की निगाह से एक सी हैं। इस सम्बन्ध में वेद का कथन है।

समौ चिद्धस्तौ न समं विवष्टिः सम्मातरा चिन्न समं दुहाते॥ यमयोश्चिन्न समा वीर्याणि ज्ञाती चित सन्तौ न समं पृणीत्नः।

ऋग. 10।117।9

अर्थात्- “दोनों हाथ एक से दिखते हैं, पर इनकी क्रिया शक्ति एक सी नहीं है, एक माँ से पैदा होने वाली एक सी गौएँ एक समान दूध नहीं देती, दो जुड़वा भाइयों की शक्तियाँ भी एक सी नहीं होती, एक ही वंश के दो व्यक्ति एक समान दान नहीं करते।”

इन विभिन्न सिद्धान्तों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सम्पत्ति का बँटवारा आवश्यकता, रुचि तथा योग्यता के अनुसार होना चाहिए तथा सम्पत्ति पर सबसे अधिक अधिकार उसका रहना चाहिये, जो उसका सदुपयोग करे, उससे अन्य व्यक्तियों का हित साधन करे। जो उसका दुरुपयोग करे उसका अधिकार छीन लेना चाहिये।

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