
युग भेद से मानव देह का अपकर्ष
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(श्री. नीरजाकान्त चौधरी)
यह तो प्रायः सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है कि कालचक्र अनादि है और इसमें प्रत्येक पदार्थ का उत्थान और पतन होता रहता है। पर हिन्दू शास्त्रों में इस परिवर्तन को एक निश्चित योजना पर आधारित बतलाया है और एक-एक काल खण्ड के चार भाग करके उनका नाम सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग कहा है। शास्त्रकारों का मत है कि सत्ययुग में सब पदार्थों और प्राणियों का उत्कर्ष होता है जो धीरे-धीरे पतन के मार्ग पर अग्रसर होता हुआ कलियुग में सबसे निम्न कोटि पर पहुँच जाता है। इस नियम का प्रभाव सब प्रकार के प्राणियों के शरीर पर भी पड़ता है। सत्युग में मानव शरीर आजकल की नाप से इक्कीस हाथ का होता था, त्रेता में चौदह, द्वापर में सात और कलि में साढ़े तीन हाथ का माना गया है।
विष्णु पुराण में लिखा है कि राजा शर्याति के वंशधर कुशस्थली के राजा रैवत बहुत अन्वेषण करने पर भी अपनी कन्या रेवती के योग्य पात्र न पा सके। अन्त में इस विषय में ब्रह्मा से जिज्ञासा करने के लिए वे अपनी कन्या को साथ लेकर ब्रह्मलोक गये। वहाँ वेद गान हो रहा था, अतएव उनको एक-दो घड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ी। तत्पश्चात् ब्रह्मा ने उनको बतलाया कि “जब तक तुम यहाँ प्रतीक्षा में रहे तब तक अनेक मानवीय युग समाप्त हो गये, क्योंकि ब्रह्मा का एक दिन अनेकों कल्प के बराबर होता है अब पृथ्वी पर तुम्हारा समकालीन कोई नहीं है इसलिए अब तुम वहाँ जाकर श्रीकृष्ण के भाई माया मानुष श्री बलदेवजी के साथ इसका विवाह कर दो पृथ्वी पर लौटने पर रेवती अन्य मनुष्यों की अपेक्षा तीन गुनी से भी अधिक लम्बी दिखलाई पड़ने लगी। तब-
उच्चप्रमाणामिति तामवेक्ष्य
स्वलाँगलाग्रेणा च तालकेतुः।
विनम्रायामास ततश्च सापि
वभूव सद्यो वनिता यथान्या॥
(विष्णु पुराण 4।1।38)
“ताल की ध्वजा वाले भगवान बलदेवजी ने उस रेवती को बहुत लम्बे शरीर वाली देखकर अपने हलास्त्र के द्वारा उसे निम्नाकार कर दिया। तब रेवती उस समय की अन्य कन्याओं के समान छोटे आकार वाली हो गई।”
सूर्य वंशी भक्तराज अम्बरीष के भाई और सम्राट मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द सत्युग में देवताओं के लिए असुरों से युद्ध करते-करते थक गये। देवताओं ने उनको वरदान दिया, जिसके प्रभाव से वे एक गुफा में दीर्घ निद्रा में सो गये। द्वापर में जब श्रीकृष्ण कालयवन को न मार सके तो उसे छल से उसी गुफा में ले गये, जहाँ मुचुकुन्द को ठोकर से मारा, पर उनकी दृष्टि पड़ते ही वह जलकर भस्म हो गया। मुचुकुन्द ने भगवान की स्तुति करके इच्छित वरदान प्राप्त किया। इसके बाद-
इत्युक्तः प्रणि प्रत्येशं जगतामच्युतं नृपः।
गुहा मुखाद्विनिष्क्रान्तः स ददर्शाल्पकान नरान्॥
ततः कलियुगं मत्वा प्राप्तं तप्तुँ नृपस्तयः।
नर नारायण स्थानं प्रययाँ गन्धमादनम।
(विष्णु पुराण 5।24।4-5)
“राजा मुचुकुन्द ने गुफा से बाहर आकर देखा कि दूसरे मनुष्य उसकी अपेक्षा बहुत छोटे आकार के हैं और समझा कि कलियुग आरम्भ हो गया है।”
महाभारत के वन पर्व में भी हनुमान-भीम संवाद में युग भेद से तेज, शक्ति और आकार के घटते जाने की बात आई है।
अनेक विदेशी विद्वानों ने पूर्व समय में मनुष्य देह की अत्यधिक उच्चता की बड़ी हँसी उड़ाई है। भारतीय शिक्षित वर्ग का भी ऐसा ही विश्वास हो चला है। पर अब अनेक ऐसे प्रमाण मिल रहे हैं, जिनसे उपयुक्त मत की पुष्टि होती है।
भारत में शवदाह की प्रथा सदा से चली आई है, इस कारण यहाँ प्राचीन कंकालों का प्राप्त हो सकना बहुत कठिन है। तथापि बीच-बीच में कहीं कंकाल मिल ही जाते हैं। सप्तम शताब्दी में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्युनसाँग भारत भ्रमण के लिए आया था। उसने कुरुक्षेत्र (धर्मक्षेत्र) का वर्णन करते हुए लिखा है कि “मृतदेह लकड़ी के समान स्तूपाकार हो गये हैं और इस प्राँत में सर्वत्र उनकी हड्डियाँ बिखरी हुई पाई जाती हैं। यह बहुत प्राचीन समय की बात है, क्योंकि हड्डियाँ बहुत बड़ी-बड़ी हैं।”
सन् 1941 ई. में कुरुक्षेत्र के समीप एक विलक्षण मनुष्य की खोपड़ी पाई गई थी, जो अब से बहुत बड़ी थी। लगभग 15 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश के सोहागपुर के निकट एक बहुत बड़े आकार का कंकाल पाया गया था सन् 1946 के लगभग अमरीका के कोलोण्डो मरुभूमि की गुफा में अनेकों 9 फीट लम्बे कंकाल पाय गए थे। अनुमान किया जाता है कि वह स्थान लगभग आठ हजार वर्ष पहले किसी प्राचीन जाति के राजवंश का समाधि स्थल था। इसी प्रकार डॉ. लीको ने केनियाँ की मैगजी झील में से कितने ही कंकाल प्राप्त किये थे, वे भी आजकल से बहुत बड़े थे। डॉ. लीको ने बतलाया है कि ये मनुष्य अब से एक लाख पच्चीस हजार वर्ष पहले वहाँ रहते थे। वे कंकाल अब पत्थरों में मिलकर पत्थर ही बन गये हैं। उनका अध्ययन करने से यह सिद्ध होता है कि ये लाखों वर्ष पुराने प्राणी खेती करते थे, वस्त्र पहनते थे और सीधे खड़े होकर चलते थे।
‘फान कोनिग्सवाल्ड’ ने द्वितीय महायुद्ध से पूर्व जावा द्वीप में खुदाई कराके कुछ कंकाल निकाले थे, जो प्राचीन ‘जावामैन’ की अपेक्षा भी बड़े और पूर्ववर्ती काल के थे। इन हड्डियों को लगभग 5 लाख वर्ष पुराना समझा गया था और इनकी खोपड़ी आजकल के मनुष्यों से लगभग दुगुनी थी। इसी समय चीन में प्राचीन समय के तीन दाँत मिले थे, जो आजकल के मनुष्य के दाँतों से दुगुने बड़े थे।
इन सब खोजों पर जब विचार किया जाता है तो हमको डार्विन के विकास-सिद्धान्त पर घोर सन्देह होने लगता है। भारतीय शास्त्रों का मत तो इस विकासवाद के सर्वथा विपरीत है। यद्यपि डार्विन ने भगवान को अस्वीकार नहीं किया, फिर भी उनके नवीन सिद्धाँत के संपर्क में आकर बहुत से लोग ईश्वर की सत्ता में सन्देह करने लगे हैं।
परमेश्वर सर्व शक्तिमान है। वे ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यस्त समस्त विशाल सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं। फिर वे क्या वानर के स्थान में मनुष्य की रचना नहीं कर सकते थे? दो वृक्ष के पत्ते--यही क्यों, घास के दो तिनके, कभी एक-से नहीं रचे गये। एक बूँद जल के बीच भी असंख्य जीव रहते हैं, जो केवल अनुवीक्षण यन्त्र की सहायता से देखे जा सकते हैं।
आर्य-शास्त्रों में मनुष्य का एक विशिष्ट स्थान है, क्योंकि चतुर्दश भुवन में एकमात्र पृथ्वी ही कर्म-क्षेत्र है और मानव-शरीर ही एकमात्र कर्म करने का साधन है। दूसरे सभी लोक भोग भूमियाँ हैं और दूसरे सारे शरीर ( यहाँ तक कि देव शरीर भी ) भोग शरीर है। उनमें तथा उनके द्वारा मुक्ति के उद्देश्य से कोई कर्म नहीं होते। अतएव मनुष्य भगवान की सृष्टि का श्रेष्ठ जीव है, नर-देह अत्यन्त दुर्लभ है। देवताओं को भी मुक्ति के लिए धराधाम में आकर मनुष्य-देह ग्रहण कर जन्म लेना पड़ता है।
आज जो अनुसन्धान हो रहे हैं, उनसे तथा पाश्चात्य अन्वेषकों के मत से भी निःसन्देह सिद्ध हो रहा है कि प्राचीन काल से मानव-देह क्रमशः छोटा होता आ रहा है तथा आज से दस लाख वर्ष पूर्व भी सभ्य मानव का पृथ्वी पर अस्तित्व था। इससे शास्त्रों में जो युग-भेद से क्रमशः सब विषयों में अवनति होने की बात लिखी है, वह सर्वथा सत्य सिद्ध होती है।