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Magazine - Year 1958 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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वैदिक-युग की आदर्श नारियाँ

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(श्रीमती रामकुमारी शर्मा)

‘सखे सप्तपदा भव’ विवाह विधि का यह छोटा-सा मन्त्र हमें आर्य नर और नारी के समस्त जीवन व्यापी सम्बन्ध के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। वैदिक आर्य जीवन के किसी भी अंश की सफल कल्पना नारी को विलग रखकर नहीं की जा सकती। इहलोक में वह गृहिणी है ही परलोक की कल्पना भी नारी के बिना नहीं हो सकती। प्रत्येक देवता के साथ, यदि उसे यज्ञ भाग लेना है, तो उसकी सहचरी का आना आवश्यक है। यह अपवाद नहीं, नियम है। बिना पत्नी के वह यज्ञ नहीं कर सकता (और उस समय के आर्य के लिए यज्ञ के बिना एक पग भी चलना असंभव था) न देवता ही बिना पत्नियों के यज्ञ भाग ग्रहण कर सकते थे। यह तो रही पारलौकिक विषय की बात। जहाँ तक लौकिक जीवन का संबंध है वैदिक कवि नारी से मधुर और उदार दूसरी कल्पना नहीं जानता। गृहस्थ जीवन आरंभ करने वाले दम्पत्ति के लिए उपस्थित गुरुजनों और पुरोहित के पास इससे बड़ा कोई आशीर्वाद नहीं है कि तुम दोनों एक दूसरे का हृदय विजित कर आज से एक हो जाओ। वास्तव में उस दिन से पत्नी सहधर्मचारिणी ही होती थी। वह सुख-दुख में गृहस्वामी का आश्रयस्थल थी।

वेदों में हमें नारी के कन्या, पत्नी, माता और ऋषि रूप में दर्शन होते हैं। कन्या, जो बाद में आर्य परिवार के लिए अभिशाप बना दी गयी, वैदिक परिवार के स्नेह का धन थी—परिवार के कल्याण और सौख्य की अधिष्ठात्री, पिता के दोनों लोकों की आशा, जननी की सहज अनुगता, सहचरी, भाई के पौरुष की मर्यादा, बहिनों की प्रिय सखा और परिवार की ज्योति थी। उसकी शिक्षा-दीक्षा युग के ही समान थी। कन्या और पुत्र दोनों का ही आचार्य प्रधानतः पिता था। उपनयन के बाद भाई बहिन दोनों गार्हपत्य अग्नि के पावन वातावरण में वेद और वेदाँगों की, शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा पाते थे। किन्तु कन्याओं के विषय में कुछ समय बाद एक प्रकार का विभाजन अवश्य हो जाता था—सद्योबध्या (जो जल्दी विवाह करना चाहती हो) और ब्रह्मवादिनी (जो ऋषि बनने की कामना रखती हो)। सद्योबध्या कुछ काल के बाद माता के साथ गृह-कार्य की शिक्षा ग्रहण करने लगती और मनोनुकूल प्रणयी मिलने पर विवाह कर लेती थी। वेदों में हमें बालविवाह का कहीं कोई संकेत नहीं मिलता बल्कि विरोधी प्रमाणों का बाहुल्य है। ब्रह्मवादिनी कन्याओं की शिक्षा काफी लम्बे समय तक चलती रहती थी, यद्यपि बाद में इनके विवाह में भी कोई बाधा नहीं थी। ऋग्वैदिक ऋषि घोषा को हम काफी बड़ी अवस्था में विवाह करते पाते हैं। शिक्षा और विवाह के बीच के दिनों में कन्या के कर्त्तव्य बहुमुखी थे। वह माँ की अभिन्न सहचरी हो कर घर के संचालन में हाथ बंटाती थी। इतना ही नहीं कुछ काम तो उसी के थे जैसे गायों का दोहन, लालन-पालन, दही मक्खन और घी तैयार करना। इसके सिवा कपास-ऊन और रेशम से वस्त्र तैयार करना, उनकी सिलाई-रंगाई और उसके बाद न टूट सकने वाली सुइयों से ऊन पर सोने, चाँदी और रेशम के तारों से कढ़ाई, चटाइयाँ तैयार करना, पानी भरना, अरणियों से आग जलाना, देवताओं को अर्पित करने के लिए सोमरस प्रस्तुत करना आदि उसके अगणित कार्यों में कुछ हैं। यह तो रही कर्तव्यों की बात। किन्तु केवल कर्त्तव्य ही उसके हिस्से में नहीं था। विवाह के समय पैतृक संपत्ति का एक उपयुक्त अंश उसे दहेज में दिया जाता था जिसकी एकमात्र स्वामिनी वही होती थी या उसका पति। अन्य कोई व्यक्ति उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके एक कण का भी उपयोग नहीं कर सकता था। उसका उपभोग या दान उसकी इच्छा पर निर्भर था। अगर दुर्भाग्य से भाई न हो तो परिवार की संपत्ति की एक मात्र उत्तराधिकारिणी वह होती थी। भाई होते हुए भी यदि वह अविवाहित रहने का निश्चय करती तो परिवार से भरण-पोषण प्राप्त करने का उसे अधिकार था।

विवाह :— विवाह और पति का चुनाव उसकी अपनी इच्छा पर था। समनोत्सवों में परिचित हुआ प्रणयी ही बाद में जीवन सहचर बन सकने की आशा कर सकता था। इन समनोत्सवों में विवाह योग्य अलंकृता कन्याएँ और अध्ययन से निवृत्त, जीवन के उल्लास से पूर्ण युवक भाग लेते थे। माता-पिता और अन्य गुरुजन दर्शक मात्र होते थे। अश्वों से खींचे जाने वाले रथों के घोष से समनस्थली गूँज उठती। युवक अपनी-अपनी हृदयेश्वरियों को विजित करने के लिए प्राणों की बाजी लगा देते थे। दौड़ के बाद ही शस्त्रों के प्रयोग-कौशल और भुजाओं के शौर्य का प्रदर्शन होता था। सुस्वादु भोज्य और पेय बीच-बीच में उन्हें ताजगी देते रहते थे। दूसरे प्रहर में समनस्थली एक बार फिर गूँज उठती, पर भिन्न तरह से। इस बार नृत्य, गीत और कविताओं के बोल वनप्रान्त को मुखरित कर देते थे। उत्सव मशालों और उत्सवाग्नियों के प्रकाश में रात-रात भर चलता रहता और संध्या नहीं बल्कि भुवन मोहिनी उषा अपने सारथी अरुण के साथ आकर उन्हें अपने उत्सव से अलस नेत्रों को विश्राम देने के लिए घर लौटाती थी। इस बीच बहुतों के भाग्य रात्रि की मशालों के नीचे जीवन भर के लिए बंध चुके होते थे यद्यपि कुछ के स्वप्न, स्वप्न ही रह जाते थे। विवाह के लिए माता-पिता की स्वीकृति और आशीष अनिवार्य था। परिणय एक सामाजिक संस्कार था जिसके लिए माता-पिता और समाज की अनुमति महत्त्वपूर्ण थी, विशेषतः माता की। इस बारे में श्यावाश्य और शशीयसी के प्रणय का रोचक उदाहरण ऋग्वेद में मिलता है। श्यावाश्व महाराज रथवीति के कुल पुरोहित के पुत्र थे और शशोयसी थी राज कन्या। दोनों ही सुन्दर थे और समान रूप से एक दूसरे के प्रति आकृष्ट। आशा कम होते हुए भी हृदय से विवश श्यावाश्व ने राजा के सामने विवाह का प्रस्ताव रक्खा। राजा को कोई विरोध न था पर राजमहिषी ने, जिनकी अपनी पुत्री के लिए पति की कल्पना एक कवि, योद्धा और समृद्धिवान युवक की थी, इसका घोर विरोध किया और इसकी बात जानकर सबको, शशीयसी और प्रणयी श्यावाश्व को भी, उनकी इच्छा के आगे सिर झुका देना पड़ा।

यदि अनुमति मिल गयी तो प्रणय के बाद परिणय का नंबर आता। विवाहोत्सव विवाह से लगभग एक मास पूर्व प्रारंभ हो जाता और उसकी चरम परिणति सप्तपदी के साथ होती जब वर कन्या से कहता ‘आज से तुम मेरी सहचरी हुई। मैं तुम से विलग हो कर नहीं रह सकता। तुम मुझसे विलग होकर न रहना। सुख-दुख में समान भागी होते हुए हम सदैव साथ रहें।’ इन मन्त्रों का अर्थ समझ कर तदनुकूल आचरण कर सकने वाली पत्नी समशिक्षा, समसंस्कार, समबुद्धि और समज्ञान वाली नारी ही हो सकती थी। विवाह का प्रारंभ प्रणय से होता किन्तु मात्र प्रणय ही उसका लक्ष्य नहीं था। सार्वभौमिक उन्नति के लिए यह एक प्रकार की नर-नारी की साझेदारी थी। अकेला पुरुष उस समाज की दृष्टि में अपूर्ण था। नारी ही उसको पूर्ण कर सकती थी। शिव अकेला शव है शक्ति से ही वे शिव हो जाते हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि शिव को पार्वती के बिना, नल को दमयन्ती के बिना, सत्यवान को सावित्री के बिना और राम को सीता के बिना भारतीय परम्परा कभी नहीं स्मरण करती।

पतिगृह में प्रथम बार प्रवेश करती हुई वधू को कुलपुरोहित आशीर्वाद देता था। गौरवमयी उदार हृदया, सबके सुख-दुख की समान उत्तरदायी साम्राज्ञी से ही वैदिक वधू की तुलना की जा सकती है। पति के माता-पिता उसके माता-पिता थे अतएव जिसको परिवार का भार दे कर वे निश्चिन्त हो सकते थे। सास बहू की सहज विमनस्कता का एक भी संकेत हमें वेदों में नहीं मिलता।

वधू पतिगृह में प्रवेश करने के बाद घर के संचालन का दायित्व अपने ऊपर लेकर गुरुजनों को निश्चिंत कर देती थी। और कार्यों के अतिरिक्त वधू के विशेष कार्य थे गार्हपत्य अग्नि को निरन्तर प्रज्वलित रखना और यज्ञ कार्यों में पति की सहायता और सहयोग के लिए निरंतर उपस्थित रहना। वास्तव में कर्त्तव्य की आड़ में यह बहुत बड़े अधिकार थे जिनके हाथ से निकल जाने पर उसकी गणना समाज के निम्नवर्ग के साथ होने लगी।

मातृत्व :—पत्नीत्व की चरम सार्थकता मातृत्व में ही थी। जननी से बढ़ कर, आशा, विश्वास, क्षमा और औदार्य का, दूसरा केंद्र वैदिक आर्य के जीवन में नहीं है। पिता को छोड़कर जो उसका समभागी है उसका स्थान उसके लिए सबसे ऊपर है। पर कभी-कभी मातृत्व उसका भी अतिक्रमण कर जाता है। विश्व-जननी की प्रतीक अदिति की वंदना में अपेक्षाकृत हमें सबसे अधिक सूक्त मिलते हैं। बड़े से बड़े अपराध के बाद भी आर्य उसके आँचल के नीचे स्थान पा सकने की आशा करता है। हर समय युद्ध के लिए सन्नद्ध रहने की अनिवार्य आवश्यकता के कारण पुत्रों का महत्व यद्यपि बहुत था फिर भी भावी माँ बनने के लिए कन्या भी वाँछनीय थी। बाद के समय की तरह उनका उत्पन्न होना किसी प्रकार भी दुर्भाग्य की बात नहीं थी। यह बात अवश्य है कि अनिवार्य सामर्थ्य से अधिक दहेज की डरावनी छाया भी उनके साथ ही परिवार पर न छाती थी। उनका पालन-पोषण भी ठीक उसी तरह होता जैसा पुत्रों का क्योंकि आगे चलकर उनसे बराबर के ही योगदान की तो आशा की जाती थी। जहाँ वीणा, मुरज, मृदंग की शिक्षा चलती, वहीं शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा भी अनिवार्य थी। उनसे वीर कन्या, वीर पत्नी और वीर प्रसू होने की आशा पूर्ण करने का एकमात्र उपाय था उनका स्वयं भी वीर होना। इसी का परिणाम था कि जो हाथ प्रधानतः रस वर्षा करते थे वे ही आवश्यकता पड़ने पर प्रचंड शर वर्षा करने लगते, यद्यपि यह साधारणतः नहीं होता। इस सम्बन्ध में विश्यला का एक रोचक उदाहरण ऋग्वेद में मिलता है। महाराज खेल की राजपत्नी विश्यला को हम पौराणिक काल की महारानी कैकयी की ही भाँति पति के साथ युद्धक्षेत्र में पाते हैं, पर मात्र सहायक नहीं योद्धा के रूप में, जिसमें उन्हें पैर में कड़ी चोट आती है।

एक पत्नी व्रत ही वैदिक काल का साधारण नियम था। बहु-विवाह भी होते थे किन्तु वे अपवाद स्वरूप थे। अरब या यहूदियों की तरह बहुपत्नीत्व यहाँ की साधारण परम्परा कभी नहीं रही, पत्नी कभी भी पति की संपत्ति नहीं समझी गयी। उसका स्थान लगभग पति के बराबर का था।

उस समय में विधवाओं की कोई समस्या नहीं थी। सती होने की प्रथा ऋग्वैदिक काल से पूर्व भले ही रही हो पर वेदों में हमें सहमरण का कोई उल्लेख नहीं मिलता। अगर दुर्भाग्य से कोई नारी विधवा हो जाती तो प्रायः बहुत जल्दी ही दुबारा उसका विवाह हो जाता। यदि परिवार में ही उक्त वर सुलभ हो तो अच्छा, नहीं तो अन्यत्र विवाह हो जाता था। पुनर्भूपत्नी का समाज में किसी तरह भी कम मान नहीं था।

अवरोध प्रथा या पर्दे का भी कोई उल्लेख वेदों में नहीं है। मर्यादा के भीतर स्त्रियाँ घूमने-फिरने के लिए स्वतंत्र थीं। अपने जीवन का लक्ष्य उन्हें चुनने का अधिकार था। यदि उन्हें साधारण कर्त्तव्यों के प्रति रुचि नहीं होती तो वे आचार्य, दार्शनिक या ऋषि बन सकती थीं। घोषा, अपाला, मैत्रेयी, गार्गी उस युग की कुछ थोड़ी-सी विदुषियों के नाम हैं।

सभ्यता के उस उषाकाल में जिस गौरवमयी आर्य नारी के दर्शन हुए थे शताब्दियों के बाद आज हमें फिर उसी रूप के कुछ-कुछ दर्शन हो रहे हैं। इतने दिनों की प्रताड़ना उसके अंतस् का तेज कम नहीं कर सकी है। स्वाधीनता-संग्राम के वीरों की अमर सहचरी भारतीय नारी आज सर्वतोमुखी जागृति और उन्नति के लिए कटिबद्ध है।

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