• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • गायत्री विद्या के अमूल्य ग्रन्थ रत्न
    • काँटे मत बोओ
    • सब प्रकार की उन्नति का मूलमंत्र-गायत्री
    • समता-मूलक समाज की स्थापना कैसे हो?
    • सन्त, तीर्थ और लोक-कल्याण
    • सामाजिक जीवन में पंचशील का प्रयोग
    • मानवता की पुकार
    • परेशानियों की दवा स्वयं आपके पास है।
    • मानवीय विकास और आत्मज्ञान
    • वैदिक-युग की आदर्श नारियाँ
    • अनुष्ठान में सात्विक आहार की आवश्यकता
    • हमारी खाद्य समस्या और सरकारी नीति
    • शिखा का महत्व और उपयोगिता
    • अपने आप को पहचानो!
    • Quotation
    • विवेकमय जीवन ही मानवता का लक्षण है।
    • कर्म ही कल्प-वृक्ष है।
    • ईश्वरानुभूति का वास्तविक मार्ग
    • मधु (शहद) के अनुपम गुण
    • महायज्ञ में आने से पूर्व
    • साँस्कृतिक सेवा की सक्रिय शिक्षा
    • इस उमड़ते हुए जन-समुद्र को रोका जाय।
    • यज्ञ समिति की एक पेचीदा उलझन
    • मूक-वेदना
    • मूक-वेदना (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1958 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


हमारी खाद्य समस्या और सरकारी नीति

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 11 13 Last
(श्री रामकृष्ण शर्मा)

आज भारत स्वतंत्र है, परन्तु उसकी गरीबी, उसका रोग और दुख दूर नहीं हुआ है। अरबों रुपये विदेशों से महँगे दामों पर अन्न मँगाने में खर्च हो गये, फिर भी समस्या हल होती दीखती नहीं। सरकार का कहना है कि शीघ्र ही वह विदेशी अनाज की आवश्यकता से मुक्त हो जायगी, परन्तु उसी सरकार का यह भी कहना है कि हिन्दुस्तान की आबादी बेलगाम बढ़ती जा रही है—फिर भला कैसे भरोसा हो कि विदेशी अन्न की आवश्यकता से हमको स्थायी रूप से मुक्ति मिल सकेगी। हमारे सामने यह सारे प्रश्नों का एक प्रश्न है, जिसे स्थायी रूप से हल करना है। जब तक हमारे भोजन का सवाल हल नहीं हो जाता, हमें सुख और शाँति मिल ही नहीं सकती।

वस्तुतः यह जीवन का मूल प्रश्न है। जिस देश को, जिस राष्ट्र को, पेट भर भोजन की ही निश्चिन्तता न प्राप्त हो, वहाँ आजादी का मतलब भी क्या हो सकता है? इसके अलावा किसी तरह पेट भर लेना ही तो हमारा अभीष्ट नहीं हो सकता। भोजन हो, पेट भर हो, और फिर वह स्वास्थ्यकर हो, शाँति पूर्वक, स्थायी और स्वावलम्बी रूप से उसके मिलते रहने की व्यवस्था हो—तभी देश सुखी और समृद्ध हो सकेगा, उसका विकास निश्चित गति को प्राप्त हो सकेगा। जहाँ भोजन की समुचित व्यवस्था नहीं, वहाँ हृष्ट-पुष्ट, मेधावी लोगों का अभाव ही रहेगा और स्वत्वहीन राष्ट्र सभ्यता की परम्परा को भी सुरक्षित नहीं रख सकता, सभ्यता की दौड़ में वह टिक नहीं सकता, बहुत दूर जा नहीं सकता, राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा नहीं हो सकता। वह निरीह, दुर्बल प्राणियों का एक झुण्ड मात्र होगा, जिसे जो जहाँ चाहे दबा देने की कोशिश करेगा।

सुख और सभ्यता की दृष्टि से ही नहीं, युद्ध और संघर्ष के लिये भी भोजन का प्रश्न एक निर्णायक महत्व रखता है। जो लोग सदैव भूखों मर रहे हों वे लड़ नहीं सकते। अकाल पीड़ित देश कभी मजबूत सेनायें खड़ी नहीं कर सकता। जहाँ लोगों को पूर्ण और समुचित रूप से स्वास्थ्यकर भोजन प्राप्त नहीं होता वे न तो संघर्षशील योद्धा बन सकते हैं और न विजय श्री का सुख भोग सकते हैं। आज जो लोग पाकिस्तान से युद्ध की माँग कर रहे हैं, उन्हें हिन्दुस्तान की खाद्य समस्याओं को गौर से समझ लेना चाहिये। इंग्लैंड, अमरीका और आस्ट्रेलिया ने हिन्दुस्तान को अन्न देना बन्द कर दिया और पाकिस्तान ने बर्मा का चावल रोक दिया, तो हिन्दुस्तान की क्या दशा होगी?

सच तो यह है कि यदि भारत को जीवित और स्वतंत्र रह कर संसार में आगे बढ़ना है, तो सबसे पहले भोजन के प्रश्न को हल करना होगा। यह जनता और सरकार दोनों की पहली जिम्मेदारी है। यह राष्ट्र-निर्माण का श्रेष्ठतम अंग है, व्यावहारिक राजनीति का पहला सवाल है।

[2]

आज संसार में जो समाज व्यवस्था चल रही है, उसमें सरकारों को निर्णायक स्थान प्राप्त है। इसलिए, जब तक उसे बदल कर विकेन्द्रित आधार पर न खड़ा कर दिया जावे, हमारी खाद्य समस्याओं का बहुताँश सरकारी नीति और नियम, सरकार की योजनाओं और कार्यवाहियों पर बहुत कुछ निर्भर रहेगा।

उदाहरणार्थ अन्न के उत्पादन में सिंचाई का बहुत बड़ा स्थान है। हमारी केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारें करोड़ों, अरबों रुपये की लम्बी-लम्बी योजनाओं में फँसी हुई हैं। कल्पना यह है कि एक दिन सारे देश में इनके द्वारा फल-फूल, अनाज के हरे-भरे लहलहाते बाग और खेत दिखलाई पड़ेंगे और दूध,घी,मक्खन के सपनों से वर्तमान पीड़ाओं को दूर करना कहीं अधिक आवश्यक है। इन योजनाओं की आवश्यकता नहीं, ऐसी बात हम नहीं कहते, परन्तु इसके भी पहले गाँवों को सिंचाई के स्थायी कुओं से भर देना चाहिये, ताकि लोग भविष्य की आशा में भूख और रोग के शिकार न हों। इस काम में सरकारों को जनता की पूरी मदद भी मिलेगी। दामोदर बाँध को तो सरकार धीरे-धीरे चलाती ही रहे,परन्तु यह भी आवश्यक है कि छोटे-मोटे नदी नालों को वह जनता की मदद से ही बाँध कर उत्पादन को बढ़ाती रहे। कुँओं और नालों के सम्बन्ध में स्थानीय साधनों का ही प्रमुख आधार रहना चाहिये।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि राष्ट्र के इस गुरुतर प्रश्न पर सरकारी दृष्टि साफ होनी चाहिये। सरकार की नजर साफ न होने के कारण ही आज भारत आजाद होकर भी अनेक विषयों में पतनोन्मुख हो रहा है। आज देश में मिल की चीनी पर बड़ा जोर दिया जा रहा है। सरकार की बहुत बड़ी शक्ति और बहुत बड़ी मदद इन मिलों के पीछे है और नतीजा यह है कि किसानों की एक बड़ी संख्या मिलों के गुलामों के रूप में परिवर्तित हो गई है। लाखों करोड़ों एकड़ जमीन गन्ने की खेती में फँसा दी गई है जिसके कारण देश को गेहूँ के लिये विदेशों का मुँह देखना पड़ रहा है।

इससे भी चिन्तनीय दशा वनस्पति घी की है। वनस्पति घी रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा बनाया हुआ मूँगफली का ऐसा तेल है जिससे प्राणी की पाचन और जनन शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। सैंकड़ों रोगों की सृष्टि होती है, और मनुष्य नामर्द हो जाता है। इस जहरीले तेल के लिये कुछ वर्ष पूर्व 21 लाख एकड़ भूमि में मूँगफली की खेती हो रही थी और अब तक इस मात्रा में काफी वृद्धि हो चुकी है। इतनी जमीन में 10-12 लाख परिवारों का सहज में भरण पोषण हो सकता है। इस प्रकार वनस्पति की मिलों को कायम रखने के लिये देश को अन्न के लिये मुहताज बनाया जा रहा है। कहा जाता है कि जनता स्वयं मूँगफली पैदा करती है, पर सरकारी दबाव और पूँजीवादी प्रलोभनों को हटाकर जनता को सच्ची सुविधायें देने के बाद ही इस प्रश्न का वास्तविक निर्णय हो सकता है।

आज देश में 73 लाख एकड़ से भी कहीं अधिक भूमि में गन्ना, चाय, तम्बाकू, जूट आदि व्यावसायिक चीजों की उपज की जा रही है। जब तक इसमें कमी करके इसे अन्नोपयोगी नहीं बनाया जाता भारत की खाद्य समस्या अमेरिकी ट्रैक्टरों और रासायनिक खाद्य के भरोसे सुधरने के बजाय बिगड़ती ही जायगी।

वनस्पति घी की मिलों के कारण देश के स्वास्थ्य के अतिरिक्त, आर्थिक दृष्टि से भी भयंकर क्षति हो रही है। आर्थिक क्षति का मतलब ही यह है कि हम दीन और दुर्बल हो रहे हैं अर्थात् हम ऊँचे दर्जे के पौष्टिक भोजन प्राप्त करने से वंचित कर दिये जाते हैं। वनस्पति मिलों के आँकड़ों पर निगाह डालने से ज्ञात होता है कि इन पर 2211 करोड़ रुपये की पूँजी लगी है। 15 हजार मजदूर काम करते हैं। इन मिलों में जो दूषित चीज तैयार होती है यदि चिकनाई मान भी लें तो भी उससे देश की जरूरत पूरी नहीं होती। 2211 करोड़ में कम से कम 9 लाख तेल की घानियाँ चालू की जा सकती हैं और 9 लाख आदमियों तथा इतने ही बैलों को पूरी जीविका मिल सकती है, जब कि मिलों से कुल 15 हजार आदमियों को काम मिलता है और भोजन तो किसी को नहीं। सारे देश को पूरा शुद्ध तेल जितना चाहिये उससे बहुत अधिक इन घानियों से पैदा होगा। तेल की यह अधिकता और घानियों से निकली हुई खली (जो वनस्पति यंत्रों में बर्बाद हो जाती है) हमारे धन की वृद्धि करेगी।

अमेरिका और योरोप की चमक-दमक को देख कर हमारे नेता और शासकों के दिमाग में खब्त सवार हो गया है कि हिन्दुस्तान में भी सब काम कल कारखानों से हो। यहाँ तक कि धान की भूसी भी मिलों में छुड़ाई जाने लगी है। नतीजा यह हुआ कि गाँवों में चावल कूटने की मिलें खड़ी होती जा रही हैं और इसे औद्योगिक प्रगति बताकर सरकारें मदद भी कर रही हैं। परंतु असलियत यह है कि मिलों के चावल का सारा भोजन -तत्व नष्ट हो जाता है।

कहने का मतलब यह है कि हमारे भोजन की समस्याएँ हमारी अपनी ही पैदा की हुई हैं। सरकारी दृष्टिकोण में परिवर्तन होने से ये सरलता पूर्वक हल की जा सकती हैं। सरकारी कार्य पद्धति में तब तक परिवर्तन नहीं हो सकता जब तक जनता को स्वयं इस दिशा में कदम उठाने का मौका न दिया जाय। जब तक दिल्ली की भव्य अट्टालिकाओं से जनता के उठने बैठने का कानून बनता रहेगा जनता कुछ न कर सकेगी। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की है कि सबल और समर्थ ग्राम पंचायतों का अधिकार होना चाहिये कि वे स्थानीय साधनों के आधार पर और क्षेत्रीय परिस्थितियों के सामंजस्य में उत्पादन कार्य के लिये पूर्णतः समर्थ हों।

First 11 13 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • गायत्री विद्या के अमूल्य ग्रन्थ रत्न
  • काँटे मत बोओ
  • सब प्रकार की उन्नति का मूलमंत्र-गायत्री
  • समता-मूलक समाज की स्थापना कैसे हो?
  • सन्त, तीर्थ और लोक-कल्याण
  • सामाजिक जीवन में पंचशील का प्रयोग
  • मानवता की पुकार
  • परेशानियों की दवा स्वयं आपके पास है।
  • मानवीय विकास और आत्मज्ञान
  • वैदिक-युग की आदर्श नारियाँ
  • अनुष्ठान में सात्विक आहार की आवश्यकता
  • हमारी खाद्य समस्या और सरकारी नीति
  • शिखा का महत्व और उपयोगिता
  • अपने आप को पहचानो!
  • Quotation
  • विवेकमय जीवन ही मानवता का लक्षण है।
  • कर्म ही कल्प-वृक्ष है।
  • ईश्वरानुभूति का वास्तविक मार्ग
  • मधु (शहद) के अनुपम गुण
  • महायज्ञ में आने से पूर्व
  • साँस्कृतिक सेवा की सक्रिय शिक्षा
  • इस उमड़ते हुए जन-समुद्र को रोका जाय।
  • यज्ञ समिति की एक पेचीदा उलझन
  • मूक-वेदना
  • मूक-वेदना (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj