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Magazine - Year 1958 - Version 2

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ईश्वरानुभूति का वास्तविक मार्ग

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(संन्यासी श्री ज्ञानानन्दजी)

[संसार में सबसे बड़ा प्रश्न ईश्वरीय अनुभव का ही है। केवल आस्तिकों और नास्तिकों में ही इस सम्बन्ध में मतभेद दिखलाई नहीं पड़ता,वरन् विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदाओं के ईश्वर—विषयक सिद्धान्तों में भी इतना अधिक अन्तर पाया जाता है कि उनका समन्वय किसी प्रकार संभव नहीं जान पड़ता। यह सब आँखों से देखते हुए भी हमको यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि मनुष्य चाहे जिस मार्ग पर चले, अगर उसके हृदय में सचाई होगी और श्रद्धा का अंश भी होगा तो वह एक दिन अवश्य ईश्वरीय शक्ति का अनुभव कर लेगा। नीचे के लेख में एक संन्यासी ने,जो जन्म से अँगरेज है, पर ईश्वर को खोजते-खोजते हिन्दू धर्म को स्वीकार कर चुका है, इस विषय पर बड़े स्पष्ट रूप में प्रकाश डाला है। उसने सिद्ध किया है कि श्रद्धापूर्वक अपने इष्ट का ध्यान और जप करना ही ईश्वरानुभूति का एक मात्र उपाय है।]

भिन्न-भिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वान ऐतिहासिक प्रमाणों से यह सिद्ध कर सकते हैं कि धर्म विषयक जिज्ञासा और परम्परागत धारणाओं का मूल एक ही है। इसका कारण वे यह बतलाते हैं कि मनुष्य अपने रूप को तथा आस-पास के पदार्थों की वास्तविकता को समझ सकने में असमर्थ रहा है।

ऐसी पंक्तियों को पढ़कर नई रोशनी के युवक इस बात का गर्व करने लग जाते हैं कि अपने पूर्वजों की अपेक्षा हमारे अन्दर बुद्धि का विकास अधिक है। बात यह है कि आधुनिक सभ्यता की चक्की में पिसते रहने के कारण उनका सारा समय अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाने तथा उनकी पूर्ति के लिए धन संचय करने में ही व्यतीत हो जाता है। परिणाम यह होता है कि ईश्वर के विषय में विचार करने की न उन्हें फुरसत मिलती है और न वे इसकी आवश्यकता समझते हैं।

परन्तु अफसोस! इस प्रकार के युक्ति वाद से किसी का काम अन्त तक नहीं चलता। उसके जीवन में एक समय आता है जब उसका निरे तर्क से निर्वाह नहीं होता। तब उसे इच्छा होती है कि ईश्वर में विश्वास किया जा सके तो अच्छा हो। जिस मनुष्य की मनोवृत्ति इस प्रकार की हो गई है उसे ईश्वरानुभूति जैसे विषय को समझना अत्यन्त कठिन हो जाता है, क्योंकि इस प्रकार का मनुष्य उन धार्मिक संस्कारों एवं कृत्यों को निरर्थक समझने लगता है, जिनको उसके पूर्वज आदर पूर्वक किया करते थे। इसका कारण ज्ञान के अजीर्ण के सिवा और क्या हो सकता है? आधुनिक वाग्जालों तथा व्याख्याओं से उनके प्रभावों की पूर्ति नहीं हो पाती। आजकल हमारे मन में जितने विचार और भावनायें उठती हैं वे सब हमारी साँसारिक आवश्यकताओं को लेकर ही होती हैं और इसलिए उनका ईश्वरानुभूति जैसे विषय को समझने में कोई उपयोग नहीं होता। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि ऐसे देवता मन से हमारा विश्वास उठ जाने के कारण, जो मनुष्य के मन की लहरों एवं आचरण से प्रभावित होता है, हमारा मन उससे भी किसी ऊँचे आध्यात्मिक सिद्धान्त को किस प्रकार ग्रहण कर सकता है?

यदि इस सम्बन्ध में कोई मुझसे जिज्ञासा करे तो मैं उसका समाधान उसी युक्ति से करूंगा जिसे मैंने निज के लिये ढूँढ़ निकाला है। ईश्वर के सगुण रूप की सत्ता को ग्रहण करने से ही मनुष्य को लाभ हो सकता है, यही मेरी धारणा है। रेखागणित के सिद्धाँत की भाँति यदि कोई तर्क से ईश्वर को सिद्ध करना अथवा समझना चाहे तो यह उसकी भूल है। तर्क से एक प्रकार से बुद्धि का समाधान भले ही हो जाय, किन्तु अनुभव से हम कोसों दूर रहेंगे। हम तो चाहते हैं कि ईश्वर को हम इस प्रकार जान और समझ सकें जिस प्रकार हम अपने मित्र या किसी साथी को जान समझ लेते हैं। पर यह स्थिति तर्क से प्राप्त नहीं हो सकती।

तब प्रश्न यह होता है कि इस प्रकार का अनुभव हमें किस प्रकार प्राप्त हो? इसके लिए पहले हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि मनुष्य की शक्ति उसकी इन्द्रियों तक ही सीमित है। ईश्वर इन्द्रियों से परे है और इसलिए इन्द्रियों से उसका ज्ञान भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। इससे यह भी सिद्ध है कि सत्य का असली स्वरूप सदा मनुष्य की बुद्धि की पहुँच के बाहर ही रहता है। परन्तु साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि उनमें से अधिकाँश बातों का अनुभव मैं अवश्य कर सकता हूँ जिनके विषय में बाह्य आधार तथा इन्द्रियों की असमर्थता के कारण मैं तर्क नहीं कर सकता। कठिनता केवल यह जानने की है कि इस अनुभव को प्राप्त करने के लिए अपने उस अज्ञात और देखने में असीम अंश को किस तरह से उपयोग में लाया जाय।

मैं अपने भाइयों को सर्वत्र ही कोई न कोई बाह्य आचरण या धार्मिक कृत्य करते हुए पाता हूँ। उनमें कई मित्र मुझे ऐसे भी मिले हैं जिन्हें वह वस्तु प्राप्त हो चुकी है कि जिसकी खोज में था। उनके विचार और साधन बिल्कुल भिन्न थे, किन्तु उन्हें अपनी अभिष्ट वस्तु की प्राप्ति हो गई इससे अधिक और क्या चाहिए? उनके विचार और साधन युक्ति युक्त थे या नहीं, यह प्रश्न गौण है। मुझे तो केवल उनके परिणाम से प्रयोजन था। मेरी अवशिष्ट यात्रा किसी ऐसे साधन अथवा ध्यान की खोज में बीती जो मेरे अनुकूल हो। अब यदि आजकल की रोशनी का नवयुवक मेरी उस प्रक्रिया—साधन-विधि पर सन्देह करे कि जिसके द्वारा मैं जीवन रूपी जलाशय से जल निकालता हूँ, तो इसमें मेरा क्या दोष है? मैं जानता हूँ कि मेरी प्यास बुझ रही है और यही मेरे लिए पर्याप्त है। यदि मैंने तर्क के द्वारा ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करने की चेष्टा छोड़ दी है तो इसीलिए कि मैंने समझ लिया है कि उससे दूर रहना सम्भव नहीं।

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