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Magazine - Year 1958 - Version 2

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मानवीय विकास और आत्मज्ञान

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(प्रोफेसर लालजी राम शुक्ल)

मनुष्य के मानसिक विकास का अर्थ बुद्धि की वृद्धि, क्रिया करने की क्षमता का आना और भावों का विस्तीर्ण होना है। बालक में किसी घटना के विभिन्न पहलुओं पर सोचने की शक्ति नहीं होती, वह आगे पीछे की बात नहीं सोच सकता और उसमें किसी वस्तु के अनेक प्रकार के संबंधों पर सोचने की शक्ति भी नहीं होती। जैसे-जैसे वह आयु में बढ़ता है उसकी विचार शक्ति बढ़ती है। पशु की विचार-शक्ति सीमित होती है और मनुष्य की असीम। विचार की श्रेष्ठता के कारण ही मनुष्य पृथ्वी के अन्य प्राणियों का स्वामी बन जाता है। विचार की सहायता से वह जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है और विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को अपने काम में लाता है। जिस व्यक्ति की विचार-शक्ति जितनी अधिक होती है उसमें दूसरे लोगों पर प्रभाव जमाने की क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है। संसार के विचारवान पुरुष विचार में पिछड़े हुये लोगों पर शासन करते हैं। अतएव विचार की वृद्धि होना मानसिक विकास का द्योतक है।

मानसिक विकास की दूसरी परख मनुष्य में कार्यक्षमता की वृद्धि है। कितने ही लोगों में विद्याध्ययन की और सोच सकने की शक्ति अच्छी होती है, परन्तु उनमें कार्यक्षमता बहुत कम रहती है। भारतवर्ष की आधुनिक शिक्षा-प्रणाली का कोई व्यापक दोष यदि दृष्टिगोचर होता है तो वह हमारे यहाँ के पढ़े लिखे लोगों में कार्य कुशलता के अभाव का। जब देहात के बालक थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीख जाते हैं तो वे कुशलतापूर्वक अपने घर का काम न करके नौकरी की खोज में लग जाते हैं। विद्याध्ययन मनुष्य में ऐच्छिक शिथिलता उत्पन्न करता है। दूसरे लोगों के विचार बार-बार मस्तिष्क में जाने से मनुष्य की मौलिक-चिन्तन-शक्ति में कमी हो जाती है। मौलिक-चिन्तन वह है जो दूसरों के विचारों पर आधारित न होकर अपने अनुभव पर आधारित रहता है जिसका उद्देश्य जीवन की किसी विशेष प्रकार की समस्या का हल करना रहता है, विचार के लिये विचार करना मनुष्य को निकम्मा बनाना है। पोथी-पण्डित किसी सिद्धान्त का अभ्यास करने में प्रवीण होते हैं, परन्तु जब उन्हें कोई व्यावहारिक समस्या हल करनी पड़ती है तो वे निकम्मे सिद्ध होते हैं।

जो मनुष्य पुस्तक में लिखे विचारों के बारे में अधिक सोचता है उसे अपनी इच्छा शक्ति को काम में लाने का अवसर नहीं मिलता। इस तरह अनुपयोग से उसकी इच्छा-शक्ति दुर्बल हो जाती है। इच्छा-शक्ति का बल विचार से नहीं बढ़ता है। मनुष्य की प्रत्येक प्रकार की मानसिक-शक्ति का बल उसके उपयोग से बढ़ता है और अनुपयोग से घट जाता है। इच्छा-शक्ति के विषय में भी यही बात सही है।

कई मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि मनुष्य के जीवन का प्रधान तत्व क्रिया है न कि विचार। मनुष्य के जीवन में क्रिया के अधीन विचार रहता है। जो विचार क्रिया में उपयोगी सिद्ध नहीं होता, वह व्यर्थ है। जैसे-जैसे मनुष्य की कार्य-क्षमता विकसित होती है उसकी चिन्तन शक्ति का विकास भी होता है। जब तक मनुष्य के सामने कोई जटिल व्यावहारिक समस्या नहीं आती तब तक उसे गम्भीरतापूर्वक सोचने की आवश्यकता ही नहीं होती। अतएव मनुष्य के विचार का विकास उसकी कार्य क्षमता के साथ-साथ ही होता है।

ऊपर कहे गये दो प्रकार के विकास से मनुष्य बाह्य प्रकृति को जानता है और उसको अपने अधिकार में लाने में सफल होता है। परन्तु इस तरह के विकास से मनुष्य न तो अपने आपको जान पाता है और न अपने स्वत्व को विस्तीर्ण कर पाता है। मनुष्य के मानसिक विकास का अन्तिम लक्ष्य उसका आत्म-ज्ञान बढ़ाना है और उसके स्वत्व को विस्तीर्ण करना है। जिस मनुष्य के भावों का विकास नहीं होता उसकी इच्छायें निम्न-स्तर की रहती हैं। भाव ही आनन्द का स्रोत है। इच्छाओं का जन्म आनन्द की चाह से होता है। जिस व्यक्ति के भाव परिष्कृत नहीं होते उसकी इच्छाएं भी परिष्कृत नहीं होतीं। कितने ही लोग विचार में तो बड़े ही बढ़े चढ़े रहते हैं, परन्तु भावों में वे बच्चे ही बने रहते हैं, अर्थात् उनका आनन्द उन बातों में रहता है जो बच्चे को प्रिय हैं। इस प्रकार के भावात्मक-चिन्तन से मुक्त करना सर्वोत्तम-शिक्षा का उद्देश्य है। विचार और क्रिया मनुष्य के चेतन मन की वस्तु हैं, परन्तु उसके भावों का उद्गम-स्थान उसका अचेतन मन है। इसलिये विचार और क्रियाओं को उन्नत कर लेना भावों की उन्नति करने की अपेक्षा सरल है। परन्तु भाव मनुष्य के गम्भीरतम मन की वस्तु है। वह उसके स्वरूप को जितना प्रदर्शित करता है उतना विचार और क्रिया नहीं प्रकट करते। उपनिषद् में कहा गया है “रसो वैसः” अर्थात् आत्मा का स्वरूप रस है, परमात्मा को सच्चिदानंद कहा गया है। आत्मा की आनंद अर्थात् रस से इतनी घनिष्ठ तादात्म्यता से प्रत्यक्ष है कि मनुष्य का गम्भीर स्वत्व भावमय है। आधुनिक मनोविज्ञान भावों को अचेतन मन की वस्तु बताता है। भाव अन्तर-अनुभूति की वस्तु हैं। मनुष्य के अधिक दुःख विचार की गड़बड़ी के कारण नहीं होते वरन् भावों की गड़बड़ी के कारण होते हैं। जब मनुष्य के भावों और विचारों में विरोध होता है तो मनुष्य पागल बन जाता है। जिस मनुष्य के भाव सुधर जाते हैं, उसकी कल्पनायें अपने आप भली हो जाती हैं और वह सहज में ही भले काम करने लग जाता है। अतएव मानसिक विकास का सर्वोच्च लक्ष्य मनुष्य के भावों को शुद्ध और व्यापक बनाना है।

जिस मनुष्य के भाव विकसित नहीं होते वह सदा दुःखी रहता है, चाहे वह कितना ही विचारवान् और क्रियावान् क्यों न हो। पहले-पहले मनुष्य के भाव अपने आप पर ही केंद्रित रहते हैं। फिर वे अपने मित्रों पर, प्रेयसी पर, परिवार पर और परिवार के हित चिन्तकों पर अवलम्बित होते जाते हैं। जैसे-जैसे मनुष्य के भाव विकसित होते जाते हैं, उसका संसार में पारिवारिक-संबंध बढ़ता जाता है। सच्चा महात्मा संसार के सभी लोगों को उसी प्रकार प्यार करता है जिस प्रकार वह अपने संबंधियों को प्यार करता है—

“अयं निजःपरो वेति गणना लघु चेतषाँ। उदार चरितानाँ तु वसुधैव कुटुम्बकम्।”

संसार के महापुरुषों के लिये संसार का कोई भी प्राणी अपने कुटुम्बी के समान ही है। ऐसा व्यक्ति सभी लोगों को एक ही दृष्टि से देखता है। उसके जीवन का लक्ष्य अपनी किसी भी इच्छा की पूर्ति करना नहीं होता, वरन् दूसरों का कल्याण करना और उनकी इच्छाओं की पूर्ति करना होता है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि तीन लोक में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे प्राप्त करने की मुझे इच्छा हो परन्तु तिस पर भी मैं हर समय काम में लगा रहता हूँ। मेरे काम का उद्देश्य लोक-संग्रह और लोक-कल्याण रहता है। महान् पुरुष इसलिये भी काम करते हैं जिससे कि उनको देखकर दूसरे लोग उसी प्रकार के काम में लग जाएं और इस तरह के काम में लग कर वे आत्म-विकास करें। जो लोग सबके हित में अपना हित देखते हैं और जो लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कार्य करते हैं उनको किसी प्रकार का मोह अथवा शोक नहीं होता। वे मृत्यु से नहीं डरते वे सदा आनन्द की ही स्थिति में रहते हैं—

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्नेवाभिजानत, तत्र को मोह-कः शोक एकत्वमनुपश्यति। (ईश)

मानसिक विकास का अन्तिम लक्ष्य अपने आपको उस महान् तत्व से मिलाना है, जिससे सभी प्राणी उत्पन्न हुये हैं, जिसमें वे रहते हैं, और जिस में अन्त में मिल जाते हैं। सभी नदियाँ सागर से अपना जल अर्थात् जीवन प्राप्त करती है, सागर की ही ओर प्रगति करती है और सागर में ही समाप्त हो जाती हैं। जब मनुष्य अपने व्यक्तित्व को समाज रूपी सागर में विलीन करने का लक्ष्य बना लेता है, जब वह समाज के सुख में अपने सुख को देखने लगता है और जब उसके सभी विचार और क्रियाओं का लक्ष्य समाज का हित बढ़ाना होता है, तभी हम उसे सुविकसित व्यक्तित्व का मानव कह सकते हैं। संसार की अच्छी से अच्छी शिक्षा का अन्तिम लक्ष ऐसे ही सुविकसित व्यक्तित्व का निर्माण करना है।

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