
अनुष्ठान में सात्विक आहार की आवश्यकता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(प्रोफेसर अवधूत)
अनुष्ठान करने वालों को अनेक समय यह दुविधा होती है कि थोड़े समय के अनुष्ठानों में फल, मेवा, दूध, मठा आदि खाकर काम चल जाता है, पर जब लम्बा अनुष्ठान करना हो तो कौन-सा आहार लेना चाहिये? इस प्रकार का प्रश्न सामने आने से लोगों को बड़ी कठिनाई होती है।
अनुष्ठान की दो मुख्य बातें (1)ब्रह्मचर्य और (2)आहार हैं। अनेक साधक ब्रह्मचर्य के पालन में इसी कारण असफल हो जाते हैं, क्योंकि वे खाने-पीने में अ-ब्रह्मचारियों की तरह रहा करते हैं। यह प्रयत्न गर्मी की ऋतु में जाड़े की ऋतु का अनुभव करने की इच्छा के समान ही है। संयमशील और स्वच्छन्दी—भोगी और त्यागी के जीवनों में अन्तर होना ही चाहिये। इन दोनों प्रकार के आचरणों का परिणाम विभिन्न प्रकार का होना अनिवार्य है। आँखों का प्रयोग दोनों करते हैं, पर ब्रह्मचारी देव दर्शन करता है और भोगी नाटक-चेटक में लीन रहता है। दोनों कान का उपयोग करते हैं, पर एक ईश्वर भजन सुनता है और दूसरा विलास के गीतों पर ध्यान देता है। दोनों जागरण करते हैं, पर एक जागृतावस्था में हृदय मंदिर में विराजने वाले राम की विनय करता है, दूसरा नाच रंग की धुन में डूबा रहता है। दोनों भोजन करते हैं—एक शरीर रूपी इंजन को चलाने के लायक कोयला पानी डाल देता है, दूसरा स्वाद की खातिर देह को अनेक प्रकार की वस्तुओं से भर कर दुर्गन्धित कर देता है। इस प्रकार दोनों के आचार विचार में अन्तर रहता है, जो निरन्तर बढ़ता ही जाता है, घटता नहीं।
अनुष्ठान के अवसर पर शास्त्रों में सात्विक और पौष्टिक आहार ग्रहण करने को लिखा है। इसमें अनेक साधकों को लम्बे उपवास के समय आहार निश्चित करने में बड़ी दिक्कत जान पड़ती है। इस सम्बन्ध में अपने निजी अनुभव के आधार पर मैं कुछ बातें बतला सकता हूँ जिससे साधकों को कुछ सहायता मिल सकती है।
अनेक व्यक्ति छोटे अनुष्ठानों के समय छाछ और दूध आदि पर रहते हैं, पर इससे वायु, बादी, दस्त या कब्ज आदि के उपद्रव हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में पेट को ठीक रखने के लिये त्रिफला या तरल पैरैफीन का प्रयोग करना होता है। पैरैफीन से आँतें नरम रह कर निद्रा आने की संभावना कम हो जाती है। खाली दूध बहुत से लोगों को पसन्द नहीं आता। ऐसी हालत में दूध केला और चीनी मिलाकर तथा जायफल, काली मिर्च, आदि मसाले डाल कर काम में लाया जा सकता है। अथवा उसमें उबला हुआ सकरकन्द मिलाकर खाया जा सकता है। इसी प्रकार पक्के आम को भी दूध में मिलाकर खाया जा सकता है। ये सब चीजें गरम दूध में ही डालनी चाहिये। दूध ठंडा होने से वायु और बादी की संभावना रहती है।
दही का प्रयोग भी कई तरह से किया जा सकता है। उसमें केला, चीनी, इलायची, जायफल मिलाकर खाया जा सकता है। अथवा हरी मिर्च, अदरक और हरा धनिया मिलाकर काम में लाया जा सकता है। साबूदाना को धोकर, पाँच-छः घण्टे तक दही में भिगोकर और हरी मिर्च अदरक नींबू आदि मिलाकर खा सकते हैं।
गरमी के दिनों में नींबू का शरबत, हरे फल, मेवा, कच्चे नारियल का पानी, गुड़ तथा इमली का पानी, लस्सी आदि का सेवन अधिक हितकारी और शाँतिदायक होता है। अथवा गाजर, करम-कल्ला (पातगोभी) टमाटर, अनार, जामुन आदि फलों का मिश्रित कचुम्बर बनाकर और उसमें हरा धनिया, मिर्च, अदरक, नींबू, खाँड आदि मिलाकर प्रयोग में ला सकते हैं।
लम्बे अनुष्ठान के समय प्रायः कमजोरी आ जाती है। ऐसी अवस्था में खजूर को धोकर उसका बीज निकाल कर, घी में तल कर खाना चाहिये। अथवा मूँगफली का दाना भूनकर कूटकर उसमें गरम घी, गुड़ और अदरक मिलाकर खाया जा सकता है।
इन चीजों में नमक का मिलाना या न मिलाना अपनी इच्छा पर है। पर नमक का त्याग कर देने से साधक को सूक्ष्म तत्व में प्रवेश करने में सुविधा रहती है। इसके सिवा अन्न का आहार त्याग देने पर नमक की आवश्यकता भी नहीं रहती।
अनेक साधकों को सात्विक भोजन करने पर भी स्वप्नदोष हो जाता है। इसके लिये प्रतिदिन प्रातः काली तुलसी के रस को शहद में मिलाकर खाना चाहिये। इसके सिवा टमाटर का सूप (टमाटर को पानी में उबाल कर उनका रस निकाल कर, काली मिर्च मिला दी जाय) पीने से पेट की बदहजमी और कोष्ठबद्धता दूर होती है और खून भी स्वच्छ होता है। ऐसी अनेक वस्तुओं का उपयोग सर्व साधारण कर सकते हैं, जिनसे सात्विक आहार का अभ्यास हो जायगा।