
शिखा का महत्व और उपयोगिता
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(ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ)
मनुष्य शरीर को प्रकृति ने यद्यपि इतना सबल बनाया है कि वह बड़े से बड़े आघात चोट आदि को सहन करके भी जीवित रह जाता है किन्तु, फिर भी शरीर में कुछ ऐसे स्थान हैं, जिन पर आघात होने से मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो सकती है। ऐसे स्थानों को “मर्म” कहा जाता है। आयुर्वेद में कई प्रकार के मर्म स्थानों का वर्णन किया गया है।
शिखा के अधोभाग में भी एक मर्म स्थान होता है जिसके लिये सुश्र तकार ने लिखा है—
मस्तकाऽभ्यन्तरोपरिष्ठान् शिरासंधिसन्निपातो
रोमा वर्तोंऽधिपतिस्त्रापि सद्योमरणम्।
—(सुश्रुत 6।71)
अर्थात्—मस्तक के भीतर ऊपर को जहाँ पर बालों का आवर्त (भंवर) होता है वहाँ सम्पूर्ण नाड़ियों और संधियों का सन्निपात है (मेल है) यहाँ पर चोट लगने से तत्काल मृत्यु हो जाती है।
शिखा इस अत्यन्त ही कोमल तथा सद्योमारक मर्म स्थान के लिये प्रकृति प्रदत्त कवच है जो कि न केवल आकस्मिक आघातों से इस मर्म को बचाती है किन्तु, उग्र-शीत आपातादि से भी इसकी रक्षा करती है।
(2)समस्त मानव शरीर में व्याप्त एक मुख्य नाड़ी है जिसे सुषुम्ना कहते हैं। इसके उत्कृष्ट रन्ध्र भाग शिखा-स्थल के ठीक नीचे खुलते हैं। यही स्थान ब्रह्मरन्ध्र है और बुद्धि-तत्व का केन्द्र है।
साधारण दशा में जब कि हमारे शरीर के अन्य रोम पसीने आदि द्वारा शारीरिक ऊष्मा को बाहर फेंकते हैं सुषुम्ना केन्द्र के बालों द्वारा तेजो निःसरण होता है।
उसी को रोकने के लिये शिखा में ग्रन्थी का विधान है जिससे वह तेज शरीर में ही रुक कर मन शरीर व मस्तिष्क को अधिक उन्नत कर सके।
इसलिये भगवान् मनु ने स्नान,संध्या, जप,होम,स्वाध्याय,दान आदि कार्यों के समय शिखा में ग्रन्थी लगाकर ही इन कार्यों के करने का विधान किया है—
स्नाने दाने जपे होमे, संध्यायाँ देवतार्चने। शिखा ग्रन्थि सदा कुर्यादियेतन्मनुरब्रवीत॥
—(मनु संहिता)
(3)सम्पूर्ण प्रकृति मण्डल में फैली हुई एक दूसरी शक्ति और है जिसे हम सतत चिन्तन या ध्यान शक्ति द्वारा अपने शरीर में प्रविष्ट कर सबल तथा मेधावी बन सकते हैं, इसे ओज शक्ति के नाम से स्मरण किया जाता है।
दुनिया के समस्त सन्त, महात्माओं तथा आध्यात्मिक पुरुषों में निरन्तर ध्यानावस्था में रहने से इसी अदृश्य-शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाया करता है,जिसके बल पर वे सहस्रों मनुष्यों के मन पर अपना अद्भुत प्रभाव डालने में समर्थ हो जाते हैं। शिखा बाँधकर पूर्वोक्त का अनुष्ठान करते हुए हम ऐसी दशा में आ जाते हैं कि हमारे शरीर में विद्यमान शक्ति, जो रोगों द्वारा बाहर निकलते हुए क्रमशः क्षीण होती जाती है, क्षीण न हो और हम प्रकृति मण्डल से अन्य शक्ति का आकर्षण सुगमता पूर्वक कर सकें।
(4)बाल एक नियत मर्यादा तक बढ़ते हैं, इसके बाद उनका बढ़ना बन्द हो जाता है। बाल कटने पर केशों की जड़ें अपने निकटवर्ती स्थान से रक्त खींच कर उसके द्वारा बाल बढ़ाती हैं। इस दृष्टि से बाल काटने का यह अर्थ हुआ कि उस स्थान के रक्त का निरर्थक खर्च। यदि बालों को न काटा जाय तो वही रक्त अन्य पाँचों इन्द्रियों की शक्तियों के पोषण में लग जाता है।
(5) शिखा स्थान के बाल कटवाने से मस्तिष्क की जड़ों में एक प्रकार की हलचल सी मचती है, जो एक प्रकार की सूक्ष्म खुजली होती है। यह खुजली मस्तिष्क से सम्बद्ध वासना-तन्तुओं में उतर आती है, फल स्वरूप काम वासना भड़क उठती है। इस अनिष्ट से परिचित होने के कारण ऋषि मुनि पंचकेश रखते थे,जिससे इन्द्रियों पर काबू पाने में बड़ी सहायता मिलती थी।
(6) शक्ति-मार्गी साधकों ने अपने अनुभव से प्रकट किया है कि ब्रह्म-रन्ध्र के शिव-हृदय के ऊपर अवस्थित शिखा कृष्णवर्ण भगवती कालिका की प्रतिनिधि है। चाणक्य ने शिखा हाथ में लेकर अर्थात् दुर्गा को साक्षी बनाकर नन्द वंश के नाश की प्रतिज्ञा की थी और वह पूरी हुई। शिखा-स्पर्श से शक्ति का संचार होता है। शक्ति ग्रंथों में ऐसे वचन मिलते हैं—
चिद्रुपिणि महामाये, दिव्यतेज समन्विते।
तिष्ठदेवि शिखा मध्ये, तेजो वृद्धि कुरुष मे॥
(7) योगी लोग बताते हैं कि आत्मा की अखंड ज्योति का प्रधान स्थान मस्तिष्क केन्द्र (शिखा) में है। इसी स्थान को सहस्रदल कमल और ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं। अनाहत ध्वनि इसी स्थान से उत्पन्न होती है।
(8) अनुष्ठान काल में क्षौर-कर्म वर्जित है। किसी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये बाल रखाने की प्रथा है। इसके सूक्ष्म कारणों पर विचार करने से विदित होता है कि बाल रखाने से मनोबल की वृद्धि होती है और दृढ़ता आती है। उसके प्रभाव से अनुष्ठान करने वाले साधक अपने कार्यक्रम में दृढ़ रहते हैं और उसे निर्विघ्न पूरा कर लेते हैं।