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Magazine - Year 1958 - Version 2

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समता-मूलक समाज की स्थापना कैसे हो?

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(संत विनोबा भावे)

मैंने जो भूदान का आन्दोलन उठाया है वह मजदूर आन्दोलन ही है। जो सब से कमजोर है जो बेजमीन और बेजबान है, उनके उद्धार का यह आन्दोलन है। अक्सर मजदूरों के आन्दोलन शहरों में होते हैं। यूरोप में तो किसानों के भी आन्दोलन हुए हैं, लेकिन हिन्दुस्तान में ज्यादातर शहरों में ही ऐसे आँदोलन हुआ करते हैं। गाँवों के मजदूर अत्यन्त असंगठित हैं, उनमें जागृति नहीं है। उन्हें शिक्षा मिलती नहीं। उनके पास सिवा खेती के दूसरा कोई धंधा भी नहीं है, और जिस खेत पर वे काम करते हैं उसके वे मालिक नहीं हैं। वे तो खेती के मजदूर हैं, जो सबसे नीचे के दर्जे के हैं और समाज की श्रेणियों में सबसे निकृष्ट हैं। उनका सवाल मैंने उठाया है। जो सबसे नीचे के स्तर के होते हैं उनका सवाल उठाना ही ‘सर्वोदय’ का और अहिंसा का तरीका है। क्योंकि जो सबसे अंतिम है उसे ऊपर उठाना चाहिये। फिर उसके बाद बाकी के भी ऊपर उठ जाते हैं। फिर उनसे ऊँचों के लिये स्वतंत्र आन्दोलन करना नहीं पड़ता।

मुझ पर आक्षेप किया जाता है कि मैं सिर्फ नीचे वालों को ऊपर उठाने की बात क्यों करता हूँ? जिस तरह समुद्र-स्नान करने से सब नदियों के स्नान का पुण्य मिल जाता है, फिर नदियों में अलग-अलग स्नान करने की जरूरत नहीं पड़ती, उसी तरह का काम यह भी है। इसमें शर्त यही है कि काम करने का ढंग ऐसा हो जिससे एक को लाभ होने के साथ दूसरे की हानि न हो। अगर हम ऐसा उपाय ग्रहण करते हैं तो सारा का सारा समाज ऊंचा उठता है। सर्वोदय का, अहिंसा का तरीका ऐसा है कि जिससे बाकी के सब लोग स्वयं ऊँचे उठ जाते हैं। किसी ने मुझसे पूछा था कि आप मध्यम श्रेणी वालों या शहर के मजदूरों के लिये क्या कर रहे हैं? उस समय मैंने हँसी में कह दिया था कि दुनिया के सब मसले हल करने का मैंने ठेका नहीं लिया है। लेकिन वह तो एक विनोद की बात थी—”एकहि साधे सब सधै, सब साधे सब जाय”-इस तरह मैं तो एक वातावरण तैयार करना चाहता हूँ जिससे समता, न्याय, भूतदया और सहानुभूति की हवा फैल जाय तथा उससे बाकी के मसले अपने आप हल हो जायें, यदि न भी हों तो केवल जरा-सा आन्दोलन करके हल कर लिये जायें।

मेरे काम को देखने की अनेक दृष्टियाँ हैं। पर यहाँ पर उनमें से एक यही दृष्टिकोण उपस्थित करना चाहता हूँ कि यह आन्दोलन मजदूर-आन्दोलन है। मैं खुद अपने को मजदूर मानता हूँ। मैंने अपने जीवन के-जवानी के-32 वर्ष, जो ‘बेस्ट इयर्स’ (सर्वोत्तम वर्ष) कहे जाते हैं, मजदूरी में बिताये। मैंने तरह-तरह के काम किये हैं, जिन कामों को समाज हीन और दीन मानता है—जिनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है, यद्यपि उनकी आवश्यकता बहुत है— ऐसे काम मैंने किये हैं। जैसे—भंगी काम, बढ़ई काम, खेती आदि। आज गाँधी जी नहीं हैं, इसलिए मैं बाहर निकला हूँ। अगर वे होते, तो मैं बाहर कभी नहीं आता और आप मुझे किसी मजदूरी में मग्न पाते। कर्म से मैं मजदूर हूँ, यद्यपि जन्म से ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मनिष्ठ और अपरिग्रही। ब्रह्मनिष्ठा तो मैं छोड़ नहीं सकता। किसी भी काम को देखने की अपनी अलग-अलग दृष्टि होती है। तुलसीदास जी ने लिखा है कि जहाँ राम खड़े हुये थे, वहाँ उन्हें देखने वाले जिस तरह के लोग थे, उसी तरह से उन्होंने राम की ओर देखा—

‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

जो काम व्यापक होते हैं उनके अनेक पहलू होते हैं, इसलिए उनकी ओर कई दृष्टियों से देखा जा सकता है। मेरे काम से भूमि की समस्या हल होती है, अन्न के उत्पादन में वृद्धि हो सकती है, न्याय बढ़ सकता है, ग्रामों का संगठन हो सकता है, राज व्यवस्था पर उसका अच्छा असर हो सकता है, लोगों में धर्म भावना का विकास हो सकता है, लोगों की अविकसित और गुप्त धर्म-भावना को दान और दया करने की वृत्ति को बाहर लाया जा सकता है। इस प्रकार मेरे काम को धार्मिक और भारतीय संस्कृति के अनुकूल कार्य की दृष्टि से भी देखा जा सकता है, और इसे एक बड़ा भारी मजदूर-आन्दोलन भी कहा जा सकता है।

परमेश्वर की प्रेरणा

यह सब मैंने किया नहीं, मुझे करना पड़ा है। हैदराबाद के सर्वोदय-सम्मेलन के बाद मैं एक अहिंसक निरीक्षक के नाते तेलंगाना गया था। वहाँ के आतंक को नष्ट करने के लिए सरकार प्रतिवर्ष पाँच करोड़ रुपया खर्च करती थी, फिर भी वह नष्ट नहीं हुआ था। इसलिए वहाँ अहिंसा कैसे काम कर सकती है, यह देखने के वास्ते मैं नम्र भाव से गया। मैंने वहाँ की परिस्थिति देखी और मुझे मानो सूचना मिली कि किसानों की समस्या हाथ में लेनी होगी। जो लोग खेतों में मजदूरी करते हैं, परन्तु बिना जमीन के हैं, उनका प्रश्न उठाना होगा। मुझमें ताकत नहीं थी, फिर भी मुझे यह काम लेना पड़ा। नहीं तो मैं डरपोक साबित होता, अपने धर्म से पतित मान जाता। मैंने सोचा कि जब परमेश्वर इस काम की प्रेरणा दे रहा है, तब इस काम को पूरा करने की ताकत भी वही देगा। यही मानकर मैंने इस काम को उठाया। ईश्वर पर अर्थात् आप सब पर श्रद्धा रखकर मैंने यह काम किया है। यह अहिंसा का तरीका है।

दुनिया के कई देशों में कृषक-मजदूरों के आन्दोलन चले, लेकिन भारत में किसी ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। सिर्फ कम्यूनिस्टों ने तेलंगाना में उनकी ओर ध्यान दिया। बाकी तो सब शहरों के मजदूर आन्दोलन हैं। दुनिया में हरएक ने अपने-अपने ढंग से इस सवाल को हल किया है। लेकिन उनका तरीका बेढंगा है। उससे न तो कभी दुनिया का भला हुआ और न होगा। भारत के लिए वे तरीके नुकसान पहुँचाने वाले हैं। हम भारतवासियों की एक विशेषता है। हमारा अपना एक विशेष तरीका है। किसी ने मुझसे कहा कि जबर्दस्ती से जल्दी जमीन मिल सकती है। मैंने कहा कि मैं जबर्दस्ती नहीं चाहता। यह काम भले ही धीरे-धीरे चले, पर भारतीय तरीके से होना चाहिए। यदि घी के डब्बे में आग लगाई जाती है, तो भी जल जाता है और वेद मन्त्रों के साथ यज्ञ में उसकी आहुति दी जाय, तो भी वह जलता है। दोनों तरह से घी जलता है, लेकिन एक में भावना जल जाती है और दुनिया खत्म हो जाती है, जबकि दूसरे में भावना पावन हो जाती है। हिंसक तरीके से एक मसला हल करने में दूसरे मसले पैदा हो जाते हैं। हिंसक तरीके से नई-नई तकलीफें पैदा होती हैं। हमने आजादी हासिल करने का जो तरीका उठाया था, वह यहीं निर्माण हो सका, क्योंकि वह भारत की सभ्यता के अनुकूल था। उपनिषदों में कहा गया है—”अग्ने नय सुपथा रायो।” अर्थात् “हे अग्निदेव हमको सुपथ से ले जाओ।” हमें चाहे जिस रास्ते से लक्ष्मी नहीं चाहिए, बल्कि वह सुपथ से चाहिए।

हमें केवल मजदूरों को अन्न-वस्त्र ही नहीं देना है। यह मसला केवल भौतिक ही नहीं है। मेरी दृष्टि से तो कोई भी मसला केवल आर्थिक मसला नहीं हो सकता। यदि हम गहराई में पहुँचें, तो मालूम होगा कि भौतिक मसले आध्यात्मिक और नैतिक भी होते हैं। यदि हम कहें कि गरीब को समता चाहिए, न्याय चाहिए, तो जो हमारे विरुद्ध पक्ष में हैं वे भी हमारी बात मंजूर कर लेते हैं। वे भी विरोध की बात नहीं कर सकते। बल्कि वे कहते हैं कि जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े न होने चाहिए। जहाँ हम समता की बात कहते हैं, वहाँ वे असमता की बात तो नहीं करते, पर क्षमता की बातें खड़ी करते हैं।

वे समता के मुकाबले से असमता की बात नहीं कर सकते। प्रकाश के सामने अन्धकार टिक नहीं सकता। राम के विरुद्ध यदि भीष्म का नाम लिया जाय, तो युद्ध हो सकता है। अच्छे शब्द के विरुद्ध अच्छा शब्द लाकर ही युद्ध हो सकेगा। इस कारण समता के सामने क्षमता खड़ी करते हैं, तो युद्ध होना संभव है। क्षमता में विश्वास करने वाले कहते हैं कि क्षमता (जमीन से पूरी मात्रा में पैदावार)के लिए जमीन के बड़े टुकड़े चाहिए। इस पर दूसरे पक्ष वाले नया विचार पेश करते हैं कि हम ऐसी कुशलता से समता लायेंगे कि उसमें क्षमता भी बनी रहेगी। जहाँ क्षमता है वहाँ समता भी आयेगी “यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।” मजदूरों के मसले को एकाँगी ढंग से और हिंसक तरीके से हल करने की कोशिश करने वाले कभी कामयाब नहीं हो सकते।

हमें इस काम में पूँजीवादी तरीके के दोष को ऐसे ढंग से दूर करना चाहिए। समता की रक्षा हो सके, मजदूरों के दुःख दूर हो सकें, पर कार्य की क्षमता और दूसरे गुण भी बने रहें। अगर ध्यान दिया जाय तो आज सारा भारत मजबूर बन गया दिखलाई पड़ता है। भारतवासी बुद्धि का उपयोग करना नहीं जानते। करोड़ों को हमने शिक्षा से वंचित रखा है। ये सब धन, मान और ज्ञान से विहीन हैं। फिर उनमें क्षमता कहाँ से आयेगी? आज गाँव में अच्छा बढ़ई भी नहीं मिलता। यदि चरखे का कोई नया मॉडल बनाना हो, तो गाँव का बढ़ई नहीं बना सकता। हमारा कारीगर-वर्ग ‘अनस्किल्ड’ (अकुशल) मजदूर है, जिसे न ज्ञान है, न प्रतिष्ठा और न ध्येय। पूँजीवादी-समाज में कुछ तो ऐसे होते हैं जो दिमाग का ही काम करते हैं और कुछ ऐसे हैं जो केवल यंत्र के समान काम करते हैं, जो अपनी अक्ल का उपयोग नहीं कर सकते। किसी को चाकू में छेद करने का काम दिया जाय, तो वह रोज पाँच हजार चाकुओं में छेद कर सकता है और जिन्दगी भर यही काम करता रहता है। पूँजीवादी कहते हैं कि इस तरह काम करने से क्षमता और कुशलता पैदा होती है। वे मनुष्य जीवन को सर्वांगीण बनने ही नहीं देते। पूँजीवादी समाज में कुछ ‘हेड्स’ (मस्तिष्क) बनते हैं और कुछ ‘हैण्ड्स’ (हाथ)। जैसे मिल-हैण्ड्स, हैड मास्टर, हैड क्लर्क आदि। इसका मतलब यह है कि इधर सारे सिर-ही-सिर और उधर सारे हाथ-ही-हाथ! उनका कहना है कि इससे क्षमता आती है। सर्वांग परिपूर्ण मनुष्य उनकी दृष्टि में क्षमता के विपरीत है।

चारों वर्ण के सिद्धाँत को भी कुछ लोगों ने ऐसा ही समझ रखा है, कि ब्राह्मण चमार या भंगी का काम कदापि नहीं कर सकता। पर यह गलत है। चातुर्वर्ण्य का सच्चा अर्थ यही है चारों वर्ण में चारों वर्ण होते हैं, लेकिन एक की प्रधानता होती है, बाकी गौण होते हैं। भगवान कृष्ण युद्ध के समय केवल लड़ते ही न थे, बल्कि घोड़े चलाने का भी काम करते थे। उस समय उन्होंने यह नहीं कहा कि यह तो क्षत्रिय का काम नहीं है। जब अर्जुन का मोह दूर करने की बात आयी तो उन्होंने वह काम भी किया। उन्होंने अर्जुन से यह नहीं कहा कि धर्मोपदेश करना तो ब्राह्मण का काम है, तुम उसी के पास जाओ। कृष्ण भगवान् मौके पर ग्वाल बनते थे, मौके पर ब्राह्मण, मौके पर शूद्र। क्षत्रिय तो वे थे ही, इसलिए लड़ने का काम तो उन्हें करना ही पड़ता था। तो, चातुर्वर्ण्य में हरएक के लिए अपना-अपना काम होता है और वह उसे करना ही पड़ता है। लेकिन बाकी के काम भी वह आवश्यकतानुसार करता रहता है।

हम चाहते हैं कि मालिक और मजदूर का भेद मिट जाय। इसका मतलब यह नहीं कि हम मालिक की अक्ल का उपयोग नहीं करना चाहते। पर जो मालिक होगा वह मजदूर भी होगा, और जो मजदूर होगा, वह मालिक भी। कुछ तो मालिक प्रधान मजदूर रहेंगे, जो हाथ का काम करते हुये भी दिमाग के काम को प्रधानता देंगे, और कुछ मजदूर प्रधान मालिक होंगे, जो दिमाग का काम करते हुये हाथ के काम को प्रधानता देंगे। बुद्धि-प्रधान व्यक्ति शारीरिक श्रम करने वाले भी हों, और श्रम-प्रधान व्यक्ति बुद्धि का भी काम कर सकें, ऐसी व्यवस्था समाज में होनी चाहिये। अगर भगवान यह नहीं चाहता तो वह कुछ को तो हाथ ही हाथ देता और कुछ को केवल बुद्धि ही। राहु और केतु के समान सबको अपूर्ण बनाता, पर उसने सबको परिपूर्ण बनाया है, इसलिए कि सब परिपूर्ण जीवन बिता सकें।

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