
स्वास्थ्य संवर्धन के सामूहिक प्रयास
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हमें मिलजुलकर ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जिससे स्वास्थ्य संवर्धन की दिशा में आन्दोलन जैसी कार्यविधियाँ सजीव हो उठें। सम्मिलित प्रयत्नों से कार्यकर्ताओं में उत्साह आता है, आत्मसंतोष बढ़ता है और जन कल्याण की संभावना भी अधिक प्रान्त हो जाती है। स्वास्थ्य आन्दोलन के संबंध में सुझाव नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं।
वनस्पतियों का उत्पादन
शाक, फल, वृक्ष और पुष्पों के उत्पन्न करने का आँदोलन स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से बड़ा उपयोगी हो सकता है। घरों के आस-पास फूल उगाने, छप्परों, लौकी, तोरई, सेमे आदि की बेल चढ़ाने, में तुलसी का विरवा रोपने तथा जहाँ भी जगह हो वहाँ फूल, पौधे लगा देने का प्रयत्न करना चाहिए। केला-पपीता आदि थोड़ी जगह होने पर भी लग सकते हैं। कोठियों बंगलों में अक्सर थोड़ी जगह खाली रहती है। वहाँ शाक एवं फूलों को आसानी से उगाया जा सकता है। लगाने, सींचने, गोड़ने मेड़ बनाने आदि का काम घर के लोग किया करें तो उससे श्रमशीलता की आदत पड़ेगी और स्वास्थ्य सुधरेगा।
किसानों को शाक और फलों की खेती करने की प्रेरणा देनी चाहिए जिससे उन्हें लाभ भी अधिक मिले और स्वास्थ्य सम्बन्धी एक बड़ी आवश्यकता की पूर्ति भी होने लगे। जहाँ-तहाँ बड़े-बड़े वृक्षों को लगाना लोग पुण्य कार्य समझें। रास्तों के सहारे पेड़ लगाये जायँ। बाग-बगीचे लगाने की जन रुचि उत्पन्न की जाय। वायु की शुद्धि, वर्षा की अधिकता, फल, छाया, लकड़ी आदि की प्राप्ति, हरियाली से चित्त की प्रसन्नता, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ना, आदि अनेकों लाभ वृक्षों से होते हैं। यह प्रवृत्ति जनसाधारण में पैदा करके संसार में हरियाली और शोभा बढ़ानी चाहिए। आवश्यक वस्तुओं के बीज, गमले, पौधे आदि आसानी से मिल सकें ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए। हो सके तो घर-घर जाकर इस सम्बन्ध में लोगों का मार्गदर्शन करना चाहिए। जड़ी-बूटियों के उद्यान एवं फार्म लगाने का प्रयत्न करना भी स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से आवश्यक है। पंसारियों की दुकानों पर सड़ी गली, वर्षों पुरानी, गुण हीन जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं। उनसे बनी आयुर्वेदिक औषधियाँ भला क्या लाभ करेंगी ? इस कमी को पूरी करने के लिए जड़ी-बूटियों की कृषि की जानी चाहिए और चिकित्सा की एक बहुत बड़ी आवश्यकता को पूरा करने का प्रयत्न होना चाहिए।
12—पकाने की पद्धति में सुधार
भाप से भोजन पकाने के बर्तन एवं चक्कियाँ उपलब्ध हो सकें, ऐसी निर्माण और विक्रय की व्यवस्था रहे। इनका मूल्य सस्ता रहे जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़े। अब बाल-बियरिंग लगी हुई चक्की बनने लगी हैं जो चलने में बहुत हलकी होती हैं तथा घण्टे में काफी आटा पीसती है। इनका प्रचलन घर-घर किया जाय और इनकी टूट-फूट को सुधारने तथा चलाने सम्बन्धी आवश्यक जानकारी सिखाई जाय। खाते-पीते घरों की स्त्रियाँ चक्की पीसने में अपमान और असुविधा समझने लगी हैं उन्हें चक्की के स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ समझाये जायँ। पुरुष स्वयं पीसना आरम्भ करें। लोग हाथ का पिसा आटा खाने का ही व्रत लें तो चक्की का प्रचलन बढ़ेगा। इसी प्रकार भाप से भोजन पकने लगा तो वह 70 फीसदी अधिक पौष्टिक होगा। और खाने में स्वाद भी लगेगा। इनका प्रसार आन्दोलन के ऊपर ही निर्भर है।
13— सात्विक आहार की पाक विद्या
तली हुई, भुनी और जली हुई अस्वास्थ्यकर मिठाइयों और पकवानों के स्थान पर ऐसे पदार्थों का प्रचलन किया जाय जो स्वादिष्ट भी लगें और लाभदायक भी हों। लौकी की खीर, गाजर का हलुआ, सलाद, कचूमर, श्रीखण्ड, मीठा दलिया, अंकुरित अन्नों के व्यंजन जैसे पदार्थ बनाने की एक स्वतन्त्र पाक विद्या का विकास करना पड़ेगा जो दावतों में भी काम आ सके और हानि जरा भी न पहुँचाते हुए स्वादिष्ट भी लगें। चाय पीने वालों की आदत छुड़ाने के लिए गेहूँ के भुने दलिए की या जड़ी बूटियों से बने हुए क्वाथ की चाय बनाना बताया जा सकता है। पान सुपारी के स्थान पर सौंफ और धनिया संस्कारित करके तैयार किया जा सकता है। प्राकृतिक आहार के व्यञ्जनों की पाक विद्या का प्रसार हो सके तो स्वास्थ्य रक्षा की दिशा में बड़ी सहायता मिले।
14—गन्दगी का निराकरण
सार्वजनिक सफाई का प्रश्न सरकार के हाथों छोड़ देने से ही काम न चलेगा। लोगों को अपनी गन्दी आदतें छोड़ने के लिए और सार्वजनिक सफाई में दिलचस्पी लेने की प्रवृत्ति पैदा करनी पड़ेगी। बच्चों को घर से बाहर सार्वजनिक स्थानों पर एवं नालियों पर टट्टी करने बिठा देना, सड़कों तथा गलियों पर घर का कूड़ा बखेर देना, धर्मशालाओं में, प्लेटफार्मों, रेल के डिब्बों और सार्वजनिक स्थानों को फलों के छिलके-तथा नाक-थूक, रद्दी कागज, दौने, पत्तल आदि डाल कर गन्दा करना बुरी आदतें हैं, इससे बीमारी और गन्दगी फैलती है। देहातों में टट्टी-पेशाब के लिए उचित स्थानों की व्यवस्था नहीं होती। गाँव के निकटवर्ती स्थानों तथा गली कूचों में इस प्रकार की गन्दगी फैलती है। जिन कुँए तालाबों का पानी पीने के काम आता है वहाँ गन्दगी नहीं रोकी जाती। यह प्रवृत्ति बदली जानी चाहिए। लकड़ी के बने इधर से उधर रखे जाने वाले शौचालय यदि देहातों में काम आने लगें तो खेती को खाद भी मिले, गन्दगी भी न फैले और बेपर्दगी भी नहीं। खुरपी लेकर शौच जाना और खोद कर उसमें शौच करने के उपरान्त मिट्टी की डालने की आदत पड़ जाय तो भी ग्रामीण जीवन में सफाई रहे गड्ढे खोद कर उसमें कंकड़ पत्थर के टुकड़े डाल कर सोखने वाले पेशाब घर बनाये और उनमें चूना फिनायल पड़ता रहे तो जहाँ पेशाब करने से फैलने वाली बीमारियों की रोकथाम हो सकती है। इसी प्रकार पशुओं के मूत्र की सफाई की भी उचित व्यवस्था रहे तो रोगों से छुटकारा मिल सकता है। सार्वजनिक शौचालय की समस्या देखने में तुच्छ प्रतीत होने पर वस्तुतः बहुत बड़ी है। लोकसेवकों को जनता की आदतें बदलने के लिए इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ करना ही होगा, अन्यथा बढ़ते हुए रोग घट न पाएंगे।
—नशेबाजी का त्याग
नशेबाजी की बुराइयों को समझाने के लिए और बुरी आदत को छुड़ाने के लिए सभी प्रचारों का उपयोग किया जाय। पंचायतों, धार्मिक समारोहों एवं शुभ कार्यों के अवसर पर इस हानिकारक बुराई को छुड़ाने के लिए प्रतिज्ञाएं कराई जायें।
—व्यायाम और उसका प्रशिक्षण
आसन, व्यायाम, प्राणायाम सूर्य नमस्कार, खेलकूद, सबेरे का टहलना, अंग संचालन, मालिश की विधियाँ सिखाने के लिए ‘वर्ग’ चलायें। सामूहिक व्यायाम करने के लिए जहाँ संभव हो वहाँ दैनिक व्यवस्था की जाय। व्यायाम अपने में एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र है। चारपाई पर पड़े हुए रोगी भी कुछ खास प्रकार के अंग संचालन, हलके व्यायाम करते हुए कठिन रोगों से छुटकारा पा सकते हैं। बूढ़े आदमी अपने बुढ़ापे को दस-बीस साल आगे धकेल सकते हैं। कमजोर प्रकृति के व्यक्ति, छोटे बच्चे, विद्यार्थी, किशोर, तरुण, स्त्रियाँ, लड़कियाँ यहाँ तक कि गर्भवती स्त्रियों के लिए भी उनकी स्थिति के उपयुक्त व्यायाम बहुत ही आशाजनक प्रतिफल उत्पन्न कर सकता है। इस प्रकार का ज्ञान हम लोग प्राप्त करें और उसको सर्व साधारण को दें। समय-समय पर ऐसे आयोजन करते रहें जिन्हें देखकर लोगों में इस प्रकार की प्रेरणा स्वयं पैदा हो।
अखाड़े, व्यायामशाला, क्रीड़ा-प्रांगण आदि स्वास्थ्य-संस्थानों की जगह-जगह स्थापना की जानी चाहिए। लाठी, भाला, तलवार, छुरा, धनुष आदि हथियार चलाने की शिक्षा जहाँ स्वास्थ्य सुधारती हैं, व्यायाम की आवश्यकता पूर्ण करती है, वहीं वह मनोबल और साहस भी बढ़ाती एवं आत्मरक्षा की क्षमता उत्पन्न करती है। इस प्रकार के प्रशिक्षण देने वाले तैयार करना तथा लोगों में उसके लिए आवश्यक उत्साह पैदा करना हमारा काम होना चाहिए। कुश्ती, दौड़, तैराकी, रस्साकशी, लम्बी कूद,ऊँची छलाँग, कबड्डी, गेंद आदि का दंगल, एवं प्रतियोगिता आयोजनों और पुरस्कार व्यवस्था करवाने से भी इन कार्यों में लोगों का उत्साह बढ़ता है। ऐसे सम्मेलन यदि ईर्ष्या-द्वेष से बचाये रखे जायं और गलत प्रतिस्पर्धा न होने दी जाय तो पारस्परिक प्रेमभाव बढ़ाने एवं गुण्डागर्दी के विरुद्ध एक शक्ति प्रदर्शन का भी काम दे सकते हैं।
डम्बल, मुगदर, लेजम, खींचने के स्प्रिंग, तानने के रबड़ घेरे, गेंद बल्ला आदि व्यायाम सम्बन्धी उपकरण तथा साहित्य हर जगह मिल सके ऐसी विक्रय व्यवस्था भी हर जगह रहना चाहिए।
‘फर्स्ट एड’ की शिक्षा का प्रबन्ध हर जगह रहना चाहिए और उसे विधिवत् सीखने तथा रैड क्रास सोसाइटी का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए उत्साह पैदा करना चाहिए। स्काउटिंग की भी भावना और शिक्षा का प्रसार होना आवश्यक है।
17— साप्ताहिक उपवास
साप्ताहिक छुट्टी पेट को भी मिलनी चाहिए। छह दिन काम करने के बाद एक दिन पेट को काम न करना पड़े, उपवास रखा जाया करे, तो पाचन क्रिया में कोई खराबी न आने पाये। विश्राम के दिन सप्ताह भर की जमा हुई कब्ज पच जाया करे ओर अगले सप्ताह अधिक अच्छी तरह काम करने के लिए पेट समर्थ हो जाया करे। देश में अन्न की वर्तमान कमी के कारण विदेशों से बहुत दुर्लभ विदेशी मुद्रा व्यय करके अन्न मंगाना पड़ता है। यदि सप्ताह में एक दिन उपवास का क्रम चल पड़े तो वह कमी सहज ही पूरी हो जाय। पूरे दिन न बन पड़े तो एक समय भोजन छोड़ने की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। जो लोग अधिक अशक्त होवें, वे दूध, फल शाक आदि भले ही ले लिया करें, पर सप्ताह में एक समय अन्न छोड़ने—उपवास करने का तो प्रचलन किया जाय। उपवास का आध्यात्मिक लाभ तो स्पष्ट ही है। शारीरिक लाभ भी कम नहीं।
18—बड़ी दावतें और जूठन
बड़ी दावतों में अन्न का अपव्यय न होने देना चाहिए। प्रीतिभोजों में खाने वालों की संख्या कम से कम रहे और खाने की वस्तुएँ कम संख्या में ही परोसी जायँ, जिससे अन्न की बर्बादी न हो।
थाली में जूठन छोड़ने की प्रथा बिलकुल ही बन्द की जाय। महतर या कुत्ते को भोजन देना हो तो अच्छा और स्वच्छ भोजन देना चाहिए। उच्छिष्ट भोजन कराने से तो उलटा पाप चढ़ता है। खाने वाले की भी शारीरिक और मानसिक हानि होती है। अन्न देवता का अपमान धार्मिक दृष्टि से भी पाप है। अन्न की बर्बादी तो प्रत्यक्ष ही है।
19—सन्तान की सीमा मर्यादा
देश की बढ़ती हुई जनसंख्या, आर्थिक कठिनाई साधनों की कमी और जनसाधारण के गिरे हुए स्वास्थ्य के देखते हुए यही उचित है कि प्रत्येक गृहस्थ कम से कम सन्तान उत्पन्न करे। अधिक सन्तान उत्पन्न होने से माताएं दुर्बलताग्रस्त होकर अकाल में ही काल कवलित हो जाती हैं। बच्चे कमजोर होते हैं और ठीक प्रकार पोषण न होने पर अस्वस्थता एवं अकालमृत्यु के ग्रास बनते हैं। शिक्षा और विकास की समुचित सुविधा न होने से बालक भी अविकसित रह जाते हैं। इसलिए संतान को न्यूनतम रखने का ही प्रसार किया जाय। लोग ब्रह्मचर्य से रहें अथवा परिवार नियोजन विशेषज्ञों की सलाह लें। सन्तान के उत्तरदायित्वों एवं चिन्ताओं से जो व्यक्ति जितने हलके होंगे—वे उतने निरोग रहेंगे। यह तथ्य हर सद्गृहस्थ भली प्रकार समझ सके इसी में उसका कल्याण है।
20—प्राकृतिक चिकित्सा की जानकारी
पंच तत्वों से रोग निवारण की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए। जगह-जगह ऐसे चिकित्सालय रहें। इनमें उपवास एनेमा, जल चिकित्सा, सूर्य चिकित्सा, मिट्टी, भाप आदि साधनों की सहायता से शरीर का कल्प जैसा शोधन होता है और एक रोग की ही नहीं, समस्त रोगों की जड़ ही कट जाती है। सर्वसाधारण को इस पद्धति का इतना ज्ञान करा दिया जाय कि आवश्यकता पड़ने पर अपनी तथा अपने घर के लोगों की चिकित्सा स्वयं ही कर लिया करें।
यह सभी प्रयत्न ऐसे हैं जो सामूहिक रूप से ही प्रसारित किये जा सकते हैं। इन्हें आन्दोलन का रूप मिलना चाहिए और इनका संचालन ‘अखण्ड ज्योति परिवारों’ के सम्मिलित प्रयत्नों से होता रहना