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Magazine - Year 1963 - Version 2

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युग निर्माण की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि

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युग निर्माण की पृष्ठभूमि राजनैतिक एवं सामाजिक नहीं वरन् आध्यात्मिक है। इतना महत्वपूर्ण कार्य इसी स्तर पर उठाया या बढ़ाया जा सकता है। राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर पर किये गये सुधार प्रयत्नों में वह श्रद्धा, भावना, तत्परता एवं गहराई नहीं हो सकती, जो आध्यात्मिक स्तर पर किये गये प्रयत्नों में सम्भव हैं। हम इसी स्तर से कार्य आरम्भ कर रहे हैं। इसलिए हम सब को उपासना, तपश्चर्या एवं आध्यात्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत होना चाहिए तथा योजना के संपर्क में आने वाले दूसरे लोगों को भी इसी भावना से प्रभावित करना चाहिए। हमारे सुधार आन्दोलन आध्यात्मिक लक्ष की पूर्ति के लिए एक साधन मात्र हैं इसलिए साधन के साथ साध्य को भी ध्यान में रखना ही होगा। हमारे आठ आध्यात्मिक कार्यक्रम नीचे प्रस्तुत हैं :—

101—गायत्री उपासना

संस्कृति का मूल उद्गम गायत्री महामंत्र है। उसमें जीवनोत्कर्ष की समस्त शिक्षाएं बीज रूप से मौजूद हैं। उपासना का मूल उद्देश्य भावनाओं और प्रवृत्तियों का सन्मार्ग की ओर प्रेरणा प्राप्त करना ही तो होता है। यह आधार गायत्री में है। और उसकी उपासना में वह शक्ति भी है कि अन्तःकरण को इसी दिशा में मोड़े। इस दृष्टि से गायत्री सर्वांगपूर्ण एवं सार्वभौम मानवीय उपासना कही जा सकती है। उसके लिए हमें नित्य नियमित रूप से कुछ समय निकालना चाहिए। चाहे वह समय पाँच मिनट ही क्यों न हो। 108 गायत्री मंत्र जपने में प्रायः इतना ही समय लगता है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि अपने घर, परिवार, सम्बद्ध समाज और परिचय-क्षेत्र के सभी गायत्री उपासना में संलग्न रहें। इससे अतिरिक्त उपासनाएँ जो करते हैं वे उन्हें भी करते हुए गायत्री जप कर सकते हैं।

102—यज्ञ की आवश्यकता

जिस प्रकार गायत्री सद्भावना की प्रतीक है इसी प्रकार यज्ञ सत्कर्मों का प्रतिनिधि है। अपनी प्रिय वस्तुओं को लोकहित के लिए निरन्तर अर्पित करते रहने की प्रेरणा यज्ञीय प्रेरणा कहलाती है। हमारा जीवन ही एक यज्ञ बनना चाहिए। इस भावना को जीवित जागृत रखने के लिए यज्ञ प्रक्रिया को दैनिक जीवन में उपासनात्मक स्थान दिया जाता है। हमें नित्य यज्ञ करना चाहिए। यदि विधिवत् यज्ञ करने में समय और धन खर्च होने की असुविधा हो तो चौके में बने भोजन के पाँच छोटे ग्रास गायत्री मंत्र बोलते हुए अग्निदेव पर होमे जा सकते हैं। अथवा भोजन करते समय इसी प्रकार का अग्नि पूजन किया जा सकता है। घी का दीपक एवं अगरबत्ती जलाना भी यज्ञ विधि का ही एक रूप है। इनमें से जिसे जैसी सुविधा हो वह यज्ञ क्रम बना ले, पर यह प्रथा ‘अखण्ड ज्योति परिवार’ के हर घर में जीवित अवश्य ही रहनी चाहिए।

103—हमारे दो पुण्य-पर्व

गायत्री जयन्ती—ज्ञान-पर्व—(जेष्ठ सुदी 10) और गुरु पूर्णिमा—कर्म-पर्व—( आषाढ़ सुदी 15 ) यह दो भारतीय धर्म में महान आध्यात्मिक पर्व माने गये हैं। एक गायत्री माता का प्रतीक है दूसरा यज्ञ पिता का। इन पर्वों को हमें बाह्य और आन्तरिक दोनों ही स्तरों पर उत्साहपूर्वक मनाना चाहिए। दोनों पर्वों पर हवन, दीप-दान, उपवास, भजन, कीर्तन, गोष्ठी, प्रवचन, प्रभात फेरी, पूजन, दान, जप-तप जो भी बन पड़े सो व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से करना चाहिए। अपनी श्रद्धा को सजीव रखने के लिए, सत्कार्यों एवं सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करने के लिए समय, श्रम, धन एवं भावनाओं की श्रद्धाञ्जलि अर्पित करके ज्ञान ऋण से उऋण होने का कुछ प्रयत्न करना ही चाहिए।

इन दोनों पर्वों के दिन दीप-दान करना चाहिए। अखण्ड ज्योति परिवार के हर सदस्य के घर-घर दिवाली की तरह दीपक जलाये जाया करें। इन 36 दिनों में सवालक्ष या चौबीस हजार जिससे जितना बन पड़े एक अनुष्ठान भी करने का प्रयत्न करना चाहिए। ब्रह्मचर्य, भूमि शयन आदि अन्य जो तपश्चर्या बन पड़े वे भी इस अवधि में करनी चाहिए। लोक सेवा की दृष्टि से धर्म फेरी, पद यात्रा, कथा प्रवचन जैसे कोई सामूहिक कार्यक्रम भी रखे जा सकते हैं। इन दो पर्वों पर सामूहिक उत्सव भी मनाये जा सकते हैं। गायत्री जयन्ती के दिन ज्ञान की महत्ता और गुरु पूर्णिमा के दिन कर्म की महत्ता का विशेष रूप से प्रतिपादन किया जाय। दोनों के समन्वय से ही सर्वांगपूर्ण आध्यात्म बनता है।

104—चान्द्रायण व्रत तपश्चर्या

विशेष आत्मबल का संग्रह, पापों का प्रायश्चित एवं शरीर शोधन की दृष्टि से चान्द्रायण व्रत का विशेष महत्व माना गया है। इस तपश्चर्या को पुनः प्रचलित करना चाहिए। गायत्री तपोभूमि में समय-समय पर शिक्षण शिविरों के साथ यह आयोजित होते ही रहते हैं । प्रयत्न यह होना चाहिए कि व्यक्ति गत एवं सामूहिक रूप से यह तपश्चर्या जगह-जगह होने लगे। इसे करने वाले को शारीरिक एवं मानसिक कायाकल्प होने जैसा लाभ मिलता है।

युग-निर्माण के कार्यकर्ताओं को एक चान्द्रायण तपश्चर्या करके एक महत्वपूर्ण परीक्षा उत्तीर्ण कर लेनी चाहिए। इससे एक महान कार्य को सम्पादित कर सकने लायक उनकी आन्तरिक क्षमता और प्रामाणिकता बढ़ेगी। चान्द्रायण व्रत का पूरा विधान अगले अंक में लिखेंगे।

105—पंचकोशी विशिष्ट साधना

उच्च आध्यात्मिक स्तर को विकसित करने के लिए पंचकोशी गायत्री उपासना आवश्यक है। अन्नमय कोश को विकसित करके आत्म साक्षात्कार की स्थिति तक पहुँचने के लिए इस साधना की बहुत उपयोगिता है। गत दो वर्षों से अक्टूबर मास की अखण्ड ज्योति में एक-एक वर्ष का साधना क्रम प्रस्तुत किया जा रहा है। जिनने उसे आरंभ किया है उनने आशाजनक प्रगति की है। जो अभी तक उसे आरंभ नहीं कर सके हैं उन्हें उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।

106—आत्म चिन्तन और सत्संकल्प

युग निर्माण का सत्संकल्प हमें नित्य प्रातः उठते समय और रात को सोते समय पढ़ना चाहिए। उसके अनुसार जीवन ढालना चाहिए। सोते समय दिन भर के कामों का लेखा-जोखा लेना चाहिए और जो भूलें उस दिन हुई हों वे दूसरे दिन न होने पावें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। जीवन को दिन-दिन शुद्ध करते रहा जाय।

107—अविच्छिन्न दान परम्परा

नित्य कुछ समय और कुछ धन परमार्थ कार्यों के लिए देते रहने का कार्यक्रम बनाना चाहिए। दान हमारे जीवन की एक अविच्छिन्न आध्यात्मिक परम्परा के रूप में चलता रहे। इस प्रकार अपनी आजीविका का एक अंश नियमित रूप से परमार्थ के लिए लगाया जाता रहे। इसके लिये कोई धर्मपेटी या धर्मघट में अन्न या पैसा डालते रहा जाय। यह धन केवल सद्भावना प्रसार के ज्ञान यज्ञ में ही खर्च हो। युग-निर्माण का आधार वही तो है।

इसी प्रकार धर्म प्रचार के लिये, जन संपर्क के लिये कुछ समय भी नित्य दिया जाय। नित्य न बन पड़े तो साप्ताहिक अवकाश के दिन अधिक समय दे करके दैनिक क्रम की पूर्ति की जाय। सद्भावनाओं के प्रसार और जागरण के लिये जन संपर्क ही प्रधान उपाय है। इस में झिझक या संकोच करने की, अपमान अनुभव करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।

108—सत्याग्रही स्वयंसेवक सेना

सामाजिक कुरीतियों एवं नैतिक बुराइयों को मिटाने के लिये राग-द्वेष से रहित, संयमी, मधु व्यवहार वाले और दृढ़ चरित्र व्यक्ति यों की एक ऐसी सत्याग्रही सेना गठित की जानी है, जो दूसरों को बिना कष्ट पहुँचाये अपने ही त्याग-तप बुराइयाँ छुड़ाने के लिये कष्ट सहने को तैयार हों, सत्याग्रह कहाँ, किस प्रकार किया जाय यह एक बहुत ही दूरदर्शिता का प्रश्न है अन्यथा सुधार के स्थान पर द्वेष फैल सकता है इन सब बातों का ध्यान रखते हुये सत्याग्रही स्वयं सेवक सेना का गठन और उसके द्वारा बुराइयों के उन्मूलन की व्यवस्था भी करनी ही पड़ेगी। इसलिये उपयुक्त व्यक्तियों को अपना नाम स्वयंसेवक की श्रेणी में लिखाना चाहिये। शक्ति को देखते हुए वैसे ही कार्यक्रम आरम्भ किये जावेंगे और उपदेश देकर उन्हें प्रशिक्षित भी करना पड़ेगा।

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