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Magazine - Year 1963 - Version 2

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अशिक्षा का अन्धकार दूर किया जाय

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जीवन को सुविकसित करने के लिए जिस मानसिक विकास की आवश्यकता है उसके लिए ‘शिक्षा’ की भारी आवश्यकता होती है। माना कि शिक्षा प्राप्त करके भी कितने ही लोग उसका सदुपयोग नहीं करते। इस बुराई के रहते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि मानसिक विकास के लिए शिक्षा की आवश्यकता है। ज्ञान का प्रकाश अन्तरात्मा में शिक्षा के अध्ययन से ही पहुँचता है। भौतिक विकास के लिए भी शिक्षा की आवश्यकता अनिवार्य रूप से अनुभव की जाती है। खेद की बात है कि देश में अभी तक चौथाई जनता भी साक्षर नहीं हो पाई है। युगपरिवर्तन के लिए साक्षरता को एक अनिवार्य आवश्यकता मानते हुए पूरे उत्साह से हमें ज्ञान यज्ञ का आयोजन करना चाहिये और देशव्यापी साक्षरता के लिए ऐसा प्रबल प्रयत्न करना चाहिए कि कोई वयस्क व्यक्ति निरक्षर न रहे। इस सम्बन्ध में दस कार्यक्रम नीचे प्रस्तुत हैं—

21—बच्चों को स्कूल भिजवाया जाय

जो बच्चे स्कूल जाने लायक हैं उन्हें पाठशालाओं में भिजवाने के लिए उनके अभिभावकों को सहमत करना चाहिए। जिन्होंने पढ़ना छोड़ दिया है उन्हें फिर पाठशाला में प्रवेश करने या प्राइवेट पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। वयस्कों को इसके लिए तैयार किया जाय कि वे प्रौढ़ पाठशालाओं में पढ़ने लगें। परिवार के साक्षर लोग मिलकर अपने घर की नारियों या अन्य अशिक्षितों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए उन्हें पढ़ने के लिए रजामन्द करें।

22—शिक्षितों की पत्नी अशिक्षित न रहें

शिक्षितों को इसके लिये तैयार किया जाय कि वे अपने घर के निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिए उन्हें समझावें, सहमत करें, और पढ़ाने के लिये स्वयं नियमित रूप से समय निकालें। स्त्रियाँ अधिकाँश घरों में अशिक्षित या स्वल्प शिक्षित होती हैं। शिक्षित पतियों का परम-पवित्र धर्म-कर्त्तव्य यह है कि पत्नी को सच्चे अर्थों में अर्धांगिनी बनाने के लिए उन्हें शिक्षित बनाने का प्रयत्न करें। स्वयं न पढ़ा सकें तो दूसरे माध्यम से उनकी पढ़ाई का प्रबन्ध करें।

23—प्रौढ़ पाठशालाओं का आयोजन

सेवा भावी शिक्षित लोग मिलजुल कर गाँव-गाँव और मुहल्ले-मुहल्ले में रात्रि को फुरसत के समय चलने वाली प्रौढ़ पाठशालाएं स्थापित करें। अशिक्षितों को समझा बुझाकर उनमें भर्ती करना और प्रेमपूर्वक पढ़ाना उन सरस्वती पुत्रों का काम होना चाहिए। धन उसी का धन्य है जो दूसरों की सुविधा बढ़ाने में काम आवे। शिक्षा उसी की धन्य है जो दूसरे अशिक्षितों को शिक्षित बनाने में प्रयुक्त हो। जिस प्रकार अशिक्षितों को पढ़ने के लिए सहमत और तत्पर करना एक बड़ा काम है, उसी प्रकार शिक्षा की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए नित्य नियमित रूप से कुछ समय देते रहने वाले सेवा भावी सज्जनों को तैयार करना और फिर उनके उत्साह को बनाये रहना एक महत्वपूर्ण प्रयत्न है। दोनों ही वर्गों को प्रेरणा देकर जगह-जगह प्रौढ़ पाठशालाएँ चालू कराई जानी चाहिये।

24—प्रौढ़ महिलाओं की शिक्षा व्यवस्था

महिलाओं की प्रौढ़ पाठशालाएँ चलाने का समय दिन ढलते तीसरे पहर का ठीक रहता है। घर गृहस्थी के कामों से निवृत्त होकर महिलाएँ तीसरे पहर, प्रायः दो से चार बजे तक फुरसत में रहती हैं। उनकी पाठशालाएँ उसी समय चलें। अच्छा हो शिक्षित महिलाएँ ही नारी शिक्षा का कार्य अपने हाथ में लें । पर यदि वैसा न हो सके तो 15--16 वर्ष से कम आयु के प्रतिभावान लड़के अथवा वयोवृद्ध सज्जन इसके लिए उपयुक्त हो सकते हैं।

25-शिक्षा के साथ दीक्षा भी

प्रौढ़ शिक्षा के लिए एक व्यवस्थित पाठ्यक्रम बनाया जाय, इसके लिये पुस्तकें उपयोग में लाई जावें जो ज्ञान-दीक्षा करा करती हो। अक्षर ज्ञान के साथ-साथ मानव-जीवन की समस्याओं पर प्रकाश डालने वाले पाठ इन पुस्तकों में रहें । विचार क्रान्ति, नैतिक उत्कर्ष एवं युग-निर्माण की विचारधारा इन पाठ्य पुस्तकों में आ जाये । शिक्षक पढ़ाते-समय शिक्षार्थियों से उन पाठों में आये हुए विषयों पर विचार विनिमय भी किया करें । समाज शास्त्र, नागरिक शास्त्र, स्वास्थ्य, धर्म, सदाचार, राजनीति विश्व परिचय, आदि की मोटी-मोटी जानकारियों की इस शिक्षण में ऐसा समावेश रहे कि शिक्षार्थी आज की परिस्थितियों से, वर्तमान युग से और मानव जाति के सामने प्रस्तुत समस्याओं से भली प्रकार परिचित हो सके ।

26—नये स्कूलों की स्थापना

जहाँ स्कूलों की आवश्यकता है, वहाँ उसकी पूर्ति के लिए प्रयत्न किये जायं । जन सहयोग से नये विद्यालयों की स्थापना तथा आरम्भ करके पीछे उन्हें सरकार के सुपुर्द कर देने की पद्धति अच्छी है। स्कूल की इमारतों के लिये खाली जमीनें या मकान लोगों से बिना मूल्य प्राप्त करना, या जनसहयोग से नये सिरे से बनाना, उत्साही प्रयत्नशील लोगों की प्रेरणा से सुविधापूर्वक हो सकता है। अध्यापकों का खर्च भी फीस की तरह सहायता देकर लोग आसानी से चला सकते हैं। धनीमानी लोग इस दिशा में कुछ विशेष उत्साह दिखा सकें ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिये।

27—रात्रि पाठशालाएं चलाई जाएँ

ऐसी रात्रि पाठशालाएँ भी चलाई जायँ जिनमें साधारण पढ़े-लिखे काम-काजी लोग अपनी शिक्षा को आगे बढ़ा सकें। स्वल्प शिक्षित लोग जो अपनी पढ़ाई समाप्त कर चुके हैं और काम-काज में लग गये हैं उनके लिए शिक्षा सम्बन्धी उन्नति के द्वार प्रायः रुके हुए ही पड़े रहते हैं। इस कठिनाई को दूर किया जाना चाहिए । निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिए जिस प्रकार प्रारम्भिक शिक्षा आवश्यक है, उसी प्रकार स्वल्प शिक्षितों को सुशिक्षित बनाने के ऐसे प्रयत्न भी चलने चाहिए जिनमें रात्रि को फुरसत के समय दो घण्टे पढ़ने की सुविधा प्राप्त कर लोग आगे उन्नति कर सकें । प्राइवेट पढ़कर परीक्षा देने की सुविधा कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में होती हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पुरुषों के लिए और महिला विद्यापीठ की स्त्रियों के लिए उपयोगी रहती हैं । प्राइमरी, मिडिल और हाई स्कूल तक की प्राइवेट परीक्षाएँ सरकारी शिक्षा-विभाग भी स्वीकार कर लेता है । जहाँ जैसी सुविधा हो वहाँ उसी प्रकार की ऐसी पाठशालाएँ चलें। ऐसी पाठशालाओं का खर्च चलाने के लिए छात्रों से फीस भी ली जा सकती है ।

28—शिक्षित ज्ञानऋण चुकायें

शिक्षित लोग पाँच व्यक्तियों को शिक्षित करना अपना एक ज्ञानऋण जैसा उत्तरदायित्व मानें, ऐसा लोक शिक्षण करना चाहिए। जिस प्रकार धनी लोग कुछ दान-पुण्य करते रहते हैं उसी प्रकार शिक्षा रूपी धन में से भी दान-पुण्य करने की प्रथा आरंभ करनी चाहिए।

तीर्थ-यात्रा करके जब तक कोई व्यक्ति घर आकर कुछ दान-पुण्य, कथा, ब्रह्मभोज नहीं करता तब तक उसकी तीर्थ-यात्रा सफल नहीं मानी जाती । इसी प्रकार ज्ञान-ऋण चुकाये बिना किसी की शिक्षा को सफल एवं सार्थक न माने जाने की मान्यता जागृत की जाय । सरकारी टैक्स या उधार लिया हुआ कर्जा चुकाया जाना जिस प्रकार आवश्यक माना जाता है उसी प्रकार हर शिक्षित पाँच अशिक्षितों को शिक्षित बनाने के लिए समय दान या धन दान देकर अपने को ऋणमुक्त करने का प्रयत्न करे। जो लोग समय नहीं दे सकते वे धन देकर अध्यापकों के वेतन के लिए दान दिया करें, यह भी हो सकता है और इस प्रकार भी ज्ञानऋण चुक सकता है।

29—पुस्तकालय और वाचनालय

पुस्तकालयों और वाचनालयों की स्थापना की जाय। उनमें केवल ऐसी चुनी हुई पुस्तकें या पत्र पत्रिकाएँ ही मँगाई जावें जो जीवन निर्माण की सही दिशा में प्रेरणा दे सकें । अश्लील, जासूसी, भद्दी-भोंडी विचारधारा देने वाली या मनोरंजन मात्र का उद्देश्य पूरा करके समय नष्ट करने वाली भ्रम उत्पन्न करने वाली चीज संख्या की अधिकता के मोह में भूलकर भी इन पुस्तकालयों में जमा न की जायँ । भोजन में जो स्थान विषाक्त खाद्य पदार्थों का है वही पुस्तकालयों में गन्दे साहित्य का है। इस शुद्धि का पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए चुनी हुई पुस्तकों के वाचनालय पुस्तकालय स्थापित किये जायं । उसका खर्च पढ़ने वालों से कुछ शुल्क लेकर या चंदा से पूरा किया जाय। जिनके यहाँ अच्छी पुस्तकें जमा हैं या पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं उनसे वह वस्तुएँ उधार भी माँगी जा सकती हैं और इस प्रकार प्रयत्न करने से भी पुस्तकालय-वाचनालय चल सकते हैं। लोक शिक्षण के लिए इनकी भी बड़ी आवश्यकता है।

30—अध्ययन की रुचि जगावें

पढ़ने की अभिरुचि उत्पन्न करना, युग-निर्माण की दृष्टि से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है । आमतौर से स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद लोग पुस्तकों को नमस्कार कर लेते हैं और अपने काम धन्धे को ही महत्व देते हैं। उनकी दृष्टि में पुस्तकें पत्रिकाएं आदि पढ़ना ताश खेलने की तरह समय को व्यर्थ गँवाने वाला मनोरंजन मात्र होता है। इस मान्यता को हटाया ही जाना चाहिये और निरक्षरता की भाँति “ज्ञान-वृद्धि की उपेक्षा” से भी प्रबल संघर्ष आरम्भ करना चाहिए । जन-मानस में यह बात गहराई तक प्रवेश कराई जानी चाहिये कि पेट को रोटी देने की भाँति बुद्धि को ज्ञान-वर्धक साहित्य की आवश्यकता है। स्वाध्याय जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है । उसकी उपेक्षा करने से आन्तरिक विकास की समस्या हल नहीं हो सकती ।

घर-घर जाकर पढ़ने में अभिरुचि उत्पन्न करना, पुस्तकें पढ़ने का महत्व बताना और फिर उन्हीं के निवास स्थानों पर उपयोगी पुस्तकें पहुँचाना एक बहुत बड़ा काम है । चलते-फिरते पुस्तकालयों का यही रूप रहे कि ज्ञान प्रचारक लोग अपने झोले में कुछ पुस्तकें रखकर घर से निकला करें और जन-संपर्क बढ़ाकर जिनमें अभिरुचि उत्पन्न हो जाय। उन्हें पुस्तकें पढ़ने देने तथा वापिस लेने जाया करें । चाय का प्रचार इसी प्रकार घर-घर जाकर मुफ्त में चाय पिलाकर प्रारम्भिक प्रचारकों ने किया था। अब तो चाय की आदत इतनी बढ़ गई है कि पीने वाले हड़बड़ाते फिरा करते हैं । इसी प्रकार की अभिरुचि सद्ज्ञान साहित्य पढ़ने और स्वाध्याय को नित्य नियमित रूप से करते रहने के लिए उत्पन्न हो सके ऐसा प्रयत्न किया जाना चाहिए। इस प्रवृत्ति की अभिवृद्धि पर युग-निर्माण योजना की सफलता बहुत कुछ निर्भर रहेगी ।

शिक्षा प्रसार आवश्यक है। मानसिक उत्कर्ष के लिए यह एक अनिवार्य कार्य है। इसके बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता। विचार क्रान्ति के उद्देश्य की पूर्ति लोक शिक्षण पर ही निर्भर है और वह कार्य शिक्षा प्रसार से ही होगा। हमें इसके लिए जी जान से जुटना चाहिए।

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