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Magazine - Year 1963 - Version 2

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उच्च स्तर की बढ़ती जिम्मेदारियाँ

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किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि अब तक गायत्री उपासना की शिक्षा पर जोर देते रहने के बाद अब उसकी दिशा बदली जा रही है, या कोई भिन्न प्रकार का कार्यक्रम दिया जा रहा है। हमारी जीवन का लक्ष्य और कार्यक्रम एक था और वह सदा एक ही दिशा में गतिशील रहेगा।

आत्मा के कल्याण के लिए जीवन को साधनामय बनाने की आवश्यकता आज भी उतनी ही है जितनी सृष्टि के आरम्भ में थी। साधना के दो अंग हैं (1) उपासना (भावना। उपासना का तात्पर्य पूजा की प्रक्रिया, विधि व्यवस्था से है। गायत्री उपासना का कर्म-काण्ड इसी श्रेणी में आता है। जप, उपवास, अस्वाद व्रत, अनुष्ठान, पुरश्चरण, अग्निहोत्र, आदि क्रियाएं उपासना कही जा सकती हैं। यह हैं तो महत्वपूर्ण पर सर्वांगपूर्ण नहीं हैं। भावना के समन्वय से ही यह परिपूर्ण बनती हैं। वे भावनाएँ रखते हुए जो उपासना की जाती है वह तुरन्त फलित होती है। स्वल्प प्रयत्न, श्रम और भय में ही उसका आशाजनक सत्परिणाम प्राप्त होता है। किन्तु यदि भावनाओं के महत्व की उपेक्षा करते हुए, जड़ मशीन की तरह जप आदि की कोई क्रिया करते रहा जाय तो उससे वह प्रतिफल कदापि नहीं हो सकता जो होना चाहिए।

कर्मकाण्ड और सद्भाव का समन्वय

यज्ञ का पूरा लाभ उसे मिलता है जिसने आहुतियाँ डालते हुए यज्ञीय भावना भी अन्तःकरण में प्रज्ज्वलित रखा। जिस प्रकार अपने उपयोगी एवं आवश्यक घृत आदि पदार्थ स्वयं न खाकर उन्हें प्राणी मात्र के पोषण के लिए हवन करते है, उसी प्रकार अन्य शक्ति यों को भी व्यक्ति गत लाभ की उपेक्षा के समाज हित में लगाने की शिक्षा हवन से होती है। यह भावना यदि यज्ञीय कर्मकाण्ड के साथ जागृत हो सके तो आत्मा की निर्मलता बढ़ती है और वह अग्निहोत्री उस लाभ को प्राप्त कर लेता है जो शास्त्रकारों ने लिखा है। यज्ञ का कर्मकाण्ड और यज्ञीय भावनाओं द्वारा आत्मशोधन इन दोनों के मिश्रण से ही परिपूर्ण यज्ञ होता है। अन्यथा भावना विहीन यज्ञ एक वायु शोधक कर्मकाण्ड मात्र रह जावेगा, और उस प्रक्रिया का वह लाभ न हो सकेगा जो सच्चे यज्ञकर्ता को होना ही चाहिए।

यही बात अन्य समस्त कर्मकाण्डों पर लागू होती है। उपासना को शरीर और भावना का प्राण मिल गया है। प्राण विहीन शरीर का जो मूल्य है वही भावना विहीन उपासना का है। तीर्थयात्रा, उपवास, ध्यान, जप, तप,दान, पुण्य इन सबके परिणामों का होना न होना कर्ता की भावनाओं पर निर्भर रहता है। गायत्री उपासना के सम्बन्ध से यही तथ्य लागू होता है। कितने ही व्यक्ति जप बहुत करते हैं पर उनका आन्तरिक स्तर निष्कृष्ट से जरा भी ऊँचा नहीं होता। ऐसी दशा में चिरकालीन उपासना के पश्चात् भी उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। तृष्णाओं और वासनाओं की पूर्ति के साधन के रूप में ही जिनने ईष्ट देव की पूजा शुरू की हो, उन्हें कोई ऊँचा वरदान प्राप्त होने की आशा नहीं करनी चाहिए।

मार्ग एक ही तो है

गायत्री उपासना में जीवन का अधिकाँश लगा देने के उपरान्त हमने निष्कर्ष निकाला है कि आत्मोन्नति के लिए उपासना-कृत्यों की जितनी आवश्यकता है उतनी ही भावनाओं की उत्कृष्टता भी अपेक्षित है। जिनने इस तथ्य को हृदयंगम किया है वे सभी साधक उन्नत स्तर पर पहुँच चुके हैं और उनकी आत्मिक प्रगति आशाजनक सफलता प्रस्तुत कर रही है। थोड़े समय में भी वे सर्वांगपूर्ण उपासना करके बहुत कुछ प्राप्त कर चुके और जो शेष है उसे इसी जीवन में प्राप्त कर लेंगे ऐसा हमारे संपर्क में आने वाले अनेकों साधकों की स्थिति देखकर हमने निश्चित विश्वास कर लिया है। किन्तु जो जीवन के नैतिक स्तर को उठाने के लिए तैयार नहीं, उसे गंदा ही रखना चाहते हैं पर भौतिक और आत्मिक लाभों की बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाये रहते हैं उन्हें चिरप्रयत्न करने पर भी हम खाली हाथ ही देखते हैं। ऐसी दशा में यह आवश्यक ही हो जाता है कि आध्यात्मिक मार्ग में चलते हुए सफलता और असफलता प्राप्त करने के रहस्य को हम उपासना क्षेत्र के हर जिज्ञासु के सामने भली प्रकार खुले शब्दों में प्रकट कर दें।

उपासना से चरित्र शुद्धि की प्रेरणा तो मिलती है, अंकुर तो उगता है पर साथ ही यह भी आवश्यक है कि उस अंकुर को ठीक प्रकार खाद पानी दिया जाय। यदि उसका संरक्षण, पोषण न हुआ तो वह अंकुर फलने फूलने की स्थिति तक न पहुंचेगा। उपासना के द्वारा सन्मार्ग पर चलने की जो प्रेरणा मिलती है उसे सद्भावनाओं और सत्कर्मों को जीवन में क्रियात्मक रूप देकर सींचा जाय। उपासना क्षेत्र में उगा हुआ भावना का पौधा यदि सत्कर्मों द्वारा ठीक तरह पोषण किया जाता रहे तो वह एक दिन कल्पवृक्ष जैसे सुखद, सुरम्य प्रतिफल प्रस्तुत करता है।

आप भी इसी क्रम को अपनावें

हमने अपने सारे जीवन यही किया है। जहाँ जप, तप, ध्यान उपासना में प्रति दिन छह-छह घंटे नियमित रूप से लगाये हैं वहाँ जीवन के हर पहलू को शुद्ध और सुव्यवस्थित रखने के लिए पूरा-पूरा ध्यान दिया है। साथ ही लोक सेवा, समाज हित के लिए जप जितना हो, वरन् उससे भी अधिक समय लगाते रहने का प्रयत्न किया है। जीवन के आरम्भ में ही हमें यह सिखा दिया गया था कि जीवन शोधन और लोक सेवा की उपेक्षा करने वाला कोई व्यक्ति उच्च आध्यात्मिक स्तर तक नहीं पहुँच सकता। इसलिए एक सुनिश्चित कार्यक्रम के अनुसार हम अपने जीवन की गतिविधि निश्चित किये रहे हैं और सही मार्ग पर चलते रह कर ही प्रगति के एक स्तर तक पहुँच सकने में समर्थ हुए हैं। यही परम्परा अनादि काल में सभी श्रेय पथ के पथिकों की रही है। उन्होंने उपासनात्मक कर्मकाण्ड के अतिरिक्त जीवन शोधन और लोक-सेवा को भी समान रूप से महत्व दिया है और इन तीनों में से किसी की भी उपेक्षा नहीं की है।

यह क्रम हम अपने साथी, सहचर आत्मकल्याण पथ के पथिकों को बताते रहे हैं। पर खेद है कि लोग एकांगी प्रयत्न करके ही संतुष्ट हो जाना चाहते हैं। जप, अनुष्ठान उन्हें सरल लगता है और उतने भर से ही वे बड़ी-बड़ी कामनाएँ पूर्ण करने वाली ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होने की कल्पना करते रहते हैं। प्रयोजन सिद्ध नहीं होता तो कुड़-कुड़ाते हैं। पर इससे क्या प्रयोजन सिद्ध होने वाला है। तथ्य तो तथ्य ही रहते हैं ये व्यक्ति की इच्छा करने मात्र से तो बदलते नहीं। सेवा कार्यों से सर्वथा विमुख रहा जाय और दुर्गुणों के छोड़ने का नाम भी न लिया जाय इतने पर भी मंत्र-जप उन्हें जादू की छड़ी की तरह सब कुछ प्रदान कर दिया करेगा ऐसी योजना उचित नहीं।

उच्च स्तरीय साधना की ऊंची जिम्मेदारी

हमें इन दस वर्षों में अपने स्वजनों को गायत्री उपासना के उच्च स्तर की ओर प्रेरित करना है। पंचकोशी उपासना का कार्यक्रम इसी दृष्टि से है। अन्न मय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोशों के अनावरण के लिए जो साधना विधि बनाई जा रही हैं उसमें जीवन शोधन का पर्याप्त अंश है। युग-निर्माण कार्यक्रम लोक-सेवा वाले अंश की पूर्ति करता है। इस प्रकार यह त्रिविधि कार्यक्रम एक सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक कार्यक्रम की पूर्ति कर देता है।

विद्या पाठशाला में आरंभिक बालकों को केवल एक बात सिखाई जाती है—अक्षर ज्ञान। कुछ दिन बाद गिनती, पहाड़े, गणित का शिक्षण चल पड़ता है। अक्षर लेखन से गणित की प्रक्रिया भिन्न प्रकार की है, पर वह भिन्नता भी शिक्षा का एक आवश्यक अंग होने से छात्र को अपनानी ही पड़ती है। उसकी यह शिकायत उपहासास्पद मानी जाती है कि पहले हमें केवल स्वर व्यंजनों के अक्षर ज्ञान की ही बात कही गई थी। उसे ही चलने देना चाहिए था। गणित का झंझट और खड़ा किया गया। यह दुहरी मुसीबत क्यों लादी गई?

कुछ दिन बाद रेखा-गणित का एक और कार्यक्रम छात्र को सीखना पड़ता है। तीसरी बात जब चले तब छात्र अध्यापक को दोष दे सकता है कि अध्यापक का रास्ता ठीक नहीं, यह तो रोज नई बात करता है, तरह-तरह के परिवर्तन करता है। अध्यापक विवश है। छात्र की सर्वांगपूर्ण शिक्षा के लिए उसे कई विषयों को सिखाना ही पड़ता है। वह बेचारा सर्वथा विवश है। छात्रों की शिकायत को उचित बताकर यदि अक्षर ज्ञान का एक ही कार्यक्रम रखें तो वह अपने कर्तव्य से च्युत ही होगा और छात्र भी आवश्यक लाभ प्राप्त करने से वंचित रह जावेंगे।

लक्ष्य की पूर्णता का पुण्य-पथ

आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाते हुए अपने जन, सहयोगियों को जीवन लक्ष्य की पूर्णता की ओर प्रेरित करते चलने के लिए हम प्रयत्नशील हैं। जिसके लिए वही कुछ तो दूसरों से कहना होगा जो करना पड़ा है। गायत्री मंत्र का जप करते रहने मात्र से अभीष्ट उद्देश्य पूर्ण हो सका होता तो हमें इतनी खींचतान भरी जिन्दगी न बितानी पड़ती। दुविधा से दिन काटना किसे बुरा लगता है? दूसरे सन्त महंतों की तरह हम भी आराम के दिन गुजार सकते थे, थोड़ा जप, ध्यान कर लेना मामूली बात है। कठिनाई संघर्ष में आती है। गीता में अर्जुन को भगवान ने संघर्ष में ही लगाया था। साधना को भी समर ही कहते हैं। इसमें हर साधक को तीन मोर्चों पर लड़ना पड़ता है। उपासनाओं के साथ-साथ जीवन शोधन और लोक-सेवा के लिए इसे निरन्तर कर्मरत रहना पड़ता है। आरम्भ में बल लाठी घुमाना सिखाया जा सकता है, पर फौजी सैनिक को आखिर बन्दूक और संगीन चलाना भी जानना ही पड़ेगा। लाठी घुमाने मात्र की शिक्षा के साथ उसकी पूर्णता सम्पन्न नहीं हो सकती।

हमारा कार्यक्रम एक ही था, एक ही है और एक ही रहेगा। पशु को मनुष्य और मनुष्य को देवता बनने का-नर से नारायण और पुरुषोत्तम बनने का मार्ग ही अध्यात्म है। हम उसी पर चलेंगे और उसी पर चलने की अपने साथी सहचरों को प्रेरणा देंगे। युग-निर्माण-योजना के कार्यक्रम में नवीन कुछ भी नहीं, और न कोई मार्ग-परिवर्तन जैसी बात है। स्तर बढ़ने के साथ-साथ जिम्मेदारी बढ़ने भर की बात है। जप करना सिखा कर आरम्भ किया गया था, पर उसका अंत इतने संकुचित क्षेत्र में नहीं हो सकता।

वस्तु स्थिति समझिए और कटिबद्ध हूजिए

जिन्होंने गायत्री को जादू-मंतर से कुछ अधिक समझा है उन अध्यात्म-वादियों को इसी की आशा करनी चाहिए थी जो उनके सामने रखा जा रहा है। शुद्ध आत्माएँ ही युग-निर्माण का कार्य अपने कंधों पर ले सकती हैं। यह कार्य वाचालों और चातुर्य पारंगत लोगों का नहीं वरन् निष्ठावानों का है। जिनने अपनी निष्ठा को जप, तप के द्वारा परिपक्व किया है उनका कर्त्तव्य है कि इस अशान्त संसार में शान्ति स्थापना के लिए-बढ़ते हुए अधर्म को रोकने और धर्म की शक्ति यों को बढ़ाने के लिए-कुछ काम करें। उसकी अपेक्षा करने से वे अपने कर्त्तव्य का ही तिरस्कार करेंगे। अपने बढ़ते हुए स्तर के अनुरूप हर साधक को युग-निर्माण के उत्तरदायित्वों को साहस और उत्साहपूर्वक अपने कंधों पर उठाना चाहिए। झंझट से बचने के लिए, अर्जुन की तरह लड़ाई से दूर रहने की बात कह कर अपने मोह का भोंड़ा प्रदर्शन करना हम में से किसी के लिए भी उचित नहीं।

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