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Magazine - Year 1963 - Version 2

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परिवर्तन का केन्द्र बिन्दु-सद्ज्ञान

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परिस्थितियों में परिवर्तन के लिए मनुष्य के विचारों और कार्यों में परिवर्तन होना आवश्यक है। भीतरी स्थिति का स्वरूप ही बाहर दृष्टिगोचर होता है। नशा पी लेने से जिस प्रकार शरीर की चेष्टाएँ और क्रियाएँ अस्त-व्यस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार संकीर्णता की निम्नगामी गतिविधियाँ अपना लेने पर मनुष्य कुविचारों और दुर्भावों को अपनाता है, फलस्वरूप जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, नाना प्रकार की कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ सामने आ खड़ी होती हैं। मनुष्यों का समूह ही समाज है। विभिन्न व्यक्ति यों की दुष्प्रवृत्तियाँ मिलकर सामाजिक विपन्नताओं का रूप धारण करती हैं और उसी से सर्वत्र अशान्ति, क्लेश एवं पतन के नारकीय दृश्य उपस्थित होते हैं।

दृष्टिकोण का परिवर्तन

देश समाज और संसार में जो कुछ भी अशुभ हमें दृष्टिगोचर होता है उसका कारण लोगों के व्यक्तिगत दोष ही होते हैं। उन दोषों का उद्भव दूषित दृष्टिकोण के कारण होता है। भोग प्रधान आकाँक्षाएँ रखने से मनुष्यों की अतृप्ति बढ़ती जाती है, वे अधिक सुख सामग्री चाहते हैं। श्रम से बचने और मौज-मजा करने की इच्छाएँ जब तीव्र हो उठती हैं तो उचित अनुचित का विचार छोड़कर लोग कुमार्ग पर चलकर ऐसे कर्म करने लगते हैं जिनका परिणाम उनके स्वयं के लिए ही नहीं, सारे समाज के लिए घातक होता है। इस अदूरदर्शितापूर्ण प्रक्रिया को अपनाने से ही संसार में सर्वत्र दुख दैन्य का विस्तार हुआ है।

विश्वशान्ति के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न करना केवल एक ही प्रकार संभव हो सकता है कि मनुष्य भोगप्रधान नीति का परित्याग कर त्याग प्रधान दृष्टिकोण अपनाये। वासना और तृष्णा की तुच्छता अनुभव करे और तप संयम और आदर्श का उत्कृष्ट जीवन बिताने में गर्व एवं गौरव का आनन्द माने। जब तक वासनाओं और तृष्णाओं के तुच्छ प्रलोभनों में मनुष्य रस लेता रहेगा और उन्हें ही जीवन का लक्ष्य मानता रहेगा तब तक उसके द्वारा उन गति-विधियों को अपना सकना संभव न होगा जिन पर स्वर्गीय वातावरण का विनिर्मित होना संभव होता है।

मानव जीवन का महत्व और लक्ष्य

युग-परिवर्तन के लिए विपन्न परिस्थितियों को आनन्द मंगल के वातावरण में परिवर्तित करने के लिए हम में से प्रत्येक को अपने वास्तविक स्वरूप और जीवन के उद्देश्य को समझना आवश्यक है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात्, लाखों वर्षों पश्चात् मनुष्य शरीर एक बार प्राप्त होता है। यह सुर दुर्लभ अलभ्य अवसर बार-बार कहाँ मिलता है। यह असाधारण सौभाग्य इसलिए नहीं मिला है कि उसे साधारण जीव जन्तुओं की भाँति खाने, सोने जैसे तुच्छ कार्यों में ही व्यतीत कर दिया जाय। यदि इस अलभ्य अवसर को शौक-मौज में ही गँवा दिया तो यह अदूर-दर्शिता उस समय बहुत ही दुख देती है जब इन अमूल्य क्षणों को समाप्त कर हमें पुनः चौरासी लाख के चक्र में असंख्य वर्षों तक नारकीय यातनाएँ सहने के लिए विवश होना पड़ता है।

यह मनुष्य देह इसलिए प्राप्त होती है कि आत्मा अपने गौरव और महानता के उपयुक्त गतिविधियाँ अपना कर स्वयं आनन्द लाभ करे और दूसरों की सुख शान्ति को बढ़ाये। वासना और तृष्णा के, लोभ और मोह के, काम और क्रोध के भव-बन्धनों को काट कर जीवन मुक्ति के परमानन्द का रसास्वादन कर सके। यदि संतुलित और सुव्यवस्थित जीवनक्रम को अपनाते हुए अपनी गतिविधियों को संतुलित बना ले तो उस लक्ष्य की पूर्ति कुछ भी कठिन नहीं है। गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए मनुष्य संत की स्थिति प्राप्त कर सकता है, गुजारे के लिए न्याय और श्रमपूर्ण आजीविका, कमाते हुए परमार्थ का पुण्य लाभ हो सकता है। जीवन को ठीक प्रकार जीने की विद्या को यदि सीख लिया जाय तो उस राजमार्ग पर चलते हुए लोक और परलोक दोनों ही प्रकार की सफलताएँ और समृद्धियाँ सामने प्रस्तुत हो सकती हैं।

युग परिवर्तन की पृष्ठ-भूमि

युग-परिवर्तन के लिए मानवीय दृष्टिकोण में यह परिवर्तन होना आवश्यक है जिसका उल्लेख उपरोक्त पंक्तियों में किया गया है। भोगपरक, भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाकर मनुष्य स्वार्थी, लोभी, आलसी, उतावला और असंतोषी बनता है। इन दोषों के कारण पाप और पतन भरे कुकर्म ही बन पड़ते हैं। इसलिए जीवन का दर्शन ऊँचा उठाया जाना आवश्यक है। पतित भावनाओं वाले व्यक्ति के लिए लाँछना, एवं आत्म-ग्लानि की व्यथा कष्टदायक नहीं होती, वह निर्लज्ज बना कुकर्म करता रहता है। लोक निन्दा और परलोक का भी उसे भय नहीं होता। ऐसे लोगों से उन श्रेष्ठ कार्यों की आशा नहीं की जा सकती जो विश्वशान्ति के लिए आवश्यक हैं। गंदी प्रकृति के मनुष्य गंदे मुहल्ले में, गंदे घरों में, दुर्गन्धपूर्ण जलवायु में, गंदे साधनों और गन्दी परिस्थितियों में प्रसन्नतापूर्वक रह लेते हैं। पर जिसे स्वच्छता प्रिय है वह गरीब होते हुए भी गंदगी स्वीकार न करेगा। इसी प्रकार जिनका दृष्टिकोण निकृष्ट है उन्हें न लोक लज्जा की परवा होती है और न आत्मग्लानि की। वे दुष्टतापूर्ण दुष्कर्म करते रहते हैं और इसी में अपना बड़प्पन मानते हैं। इस स्थिति को परिवर्तन करके कर्तव्य धर्म, आत्म-गौरव और पुण्य-परमार्थ की महत्ता को अनुभव करने की मनोभूमि बनाई जानी चाहिए। जब लोक मानस का स्तर भावनात्मक दृष्टि से ऊँचा उठेगा तो ही जीवन में श्रेष्ठता आवेगी और उसी के आधार पर विश्वशान्ति की मंगलमय परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी।

अन्तःभूमि के बाह्य परिणाम

सत्कर्म अनायास ही नहीं बन पड़ते। उनके पीछे एक प्रबल दार्शनिक पृष्ठभूमि का होना आवश्यक है। सस्ती नामवरी लूटने के लिए या किसी आवेश में आकर, कभी-कभी घटिया स्तर के लोग भी कुछ बड़े काम कर बैठते हैं पर उसमें स्थिरता नहीं होती। यश कामना की पूर्ति भी हर घड़ी नहीं होती रह सकती न आवेश ही स्थिर रखा जा सकता है। ऐसी दशा में निरन्तर नहीं कर सकते। यदि जीवन में दो-चार ऊपरी मन से कुछ अच्छे काम कर दिये जायँ और भीतर-ही-भीतर दुष्प्रवृत्तियाँ काम करती रहें तो जीवन में बुराइयाँ ही अधिक होती रहेंगी। सत्कर्मों का निरन्तर होते रहना, और कठिनाई आने पर भी दृढ़ बने रहना, तभी संभव है जब मनोभूमि को उत्कृष्ट स्तर पर विकसित एवं परिपक्व किया जाय। श्रेष्ठ कार्यों और श्रेष्ठ परिस्थितियों से परिपूर्ण वातावरण इन्हीं परिस्थितियों में बन सकता है।

घृणा, द्वेष, निराशा, चिन्ता विक्षोभ, आवेश में आकर कई बार मनुष्य दुस्साहसपूर्ण कार्य कर डालते हैं। लोभ और मोह के वशीभूत मनुष्य भी कभी-कभी प्राणों की बाजी लगा डालते हैं, पर वे कार्य होते निकृष्ट कोटि के एवं पापपूर्ण ही हैं। प्रतिशोध, हत्या, फौजदारी, आत्महत्या, घर छोड़कर भाग निकलना, अपना सब कुछ लुटा देना, जैसे उद्धत कार्य आवेशग्रस्त लोग करते देखे गये हैं पर उनका लक्ष्य दूसरों को परेशान करना ही होता है। द्वेषवश ही ऐसे कदम उठाये जा सकते हैं और उनका प्रतिफल अपने एवं दूसरों के लिए हानिकारक ही होता है।

संसार में शान्ति और श्रेष्ठता उत्पन्न करने के लिए त्यागपूर्ण, श्रेष्ठ आदर्श प्रस्तुत करने वाले, साहसपूर्ण बड़े काम करने की आवश्यकता रहती है। उनकी संभावना तभी बनती है जब व्यक्ति का उद्देश्य उच्च कोटि का और आदर्शवाद की प्रेरणाओं से ओत-प्रोत बन सकें।

उच्च भावनाओं का सतयुग

हरिश्चन्द्र, शिवि, दधीच, मोरध्वज, भरत, हनुमान, कर्ण, श्रवणकुमार, शंकराचार्य, गुरु गोविन्द सिंह, लक्ष्मीबाई, एकलव्य, गान्धी, बुद्ध, शिवाजी, राणा प्रताप, सुभाष, भगतसिंह, आदि जिन महापुरुषों के नाम उत्कृष्ट कार्यों के कारण इतिहास के पृष्ठों पर अमर हैं उन्होंने अपनी मनोभूमि को आदर्शवादी विचारधारा से परिपक्व किया था तभी वे इतने बड़े कदम उठा सके। ऋषि-मुनियों के, वानप्रस्थ और संन्यासियों के जीवन लोक साधना में ही संलग्न होते थे, पर यह सब हो तभी पाता था जब वे प्रयत्नपूर्वक अपना भावनास्तर उच्च आदर्शों के आधार पर ढालने के लिए आध्यात्मिक जीवन दर्शन को गहराई तक हृदयंगम कर लेते थे।

हम चाहते हैं कि संसार में सुख शान्ति रहे। इसके लिए एक ही उपाय है कि लोग दुष्कर्मों को छोड़कर निरन्तर सत्कर्म करते रहने के अभ्यस्त बनें। यह कदम तभी उठ सकेगा जब जीवन-दर्शन बदले। निकृष्ट आदर्शों का परित्याग कर लोग उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठावान बनें। श्रेष्ठ विचारधाराओं को जन मानस में गहराई तक प्रवेश करा देने से हो यह सब संभव होगा। इसलिए युग-निर्माण का आधार एक ही, केवल एक ही है कि हम अपनी और अपने समीपवर्ती लोगों की भावनाओं का स्तर ऊँचा उठावें। आसुरी सम्पत्तियों से घृणा करें और दैवी सम्पदाएँ बढ़ाने के लिए उत्साहपूर्वक कटिबद्ध हों।

जीवन का दर्शन, उद्देश्य, लक्ष्य बदलने से ही दुष्टता का परिवर्तन श्रेष्ठता के रूप में हो सकेगा। इसलिए उच्च विचारधारा की जो न्यूनता सर्वत्र दिखाई पड़ती है उसकी पूर्ति के लिए प्रबंध करना होगा। दुर्भिक्ष पीड़ितों के प्राण अन्न की व्यवस्था होने से ही बचते हैं। सद्भावनाओं की दुर्भिक्ष पड़ने से आज सर्वत्र हाहाकारी दृश्य उपस्थित हो रहे हैं, इन्हें बदलना तभी संभव है जब उच्च विचारधाराओं की अभिवृद्धि के लिए आवश्यक वातावरण बनाया जाय। हमें यही तो करना है। इसी संजीवनी बूटी से मूर्छित समाज की मोह निद्रा जागेगी।

सम्पत्ति ही नहीं सद्बुद्धि भी

सुख सुविधा की साधन सामग्री बढ़ाकर संसार में सुख शान्ति और प्रगति होने की बात सोची जा रही है और उसी के लिए सब कुछ किया जा रहा है। पर साथ ही हमें यह भी सोच लेना चाहिए कि समृद्धि तभी उपयोगी हो सकती है जब उसके साथ-साथ भावना स्तर भी ऊँचा उठता चले। यदि भावनाएँ निकृष्ट स्तर की रहें तो बढ़ी हुई सम्पत्ति उलटी विपत्ति का रूप धारण करती है। दुर्बुद्धिग्रस्त मनुष्य अधिक धन पाकर उसका उपयोग अपने दोष-दुर्गुण बढ़ाने में ही करते हैं। जुआ, नशेबाजी, व्यसन, व्यभिचार, आडम्बर, आदि की बढ़ोतरी खाते-पीते मूर्खों में ही होती है। गरीबों को इसकी सुविधा ही नहीं मिलती।

सम्पन्न लोगों का जीवन निर्धनों की अपेक्षा कलुषित होता है, उसके विपरित प्राचीन काल में ऋषियों ने अपने जीवन उदाहरण प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया था कि गरीबी की जीवन व्यवस्था में भी उत्कृष्ट जीवन जिया जा सकना संभव हो सकता है। यहाँ सम्पन्नता एवं समृद्धि का विरोध नहीं किया जा रहा है, हमारा प्रयोजन केवल इतना ही है कि भावना स्तर ऊँचा उठने के साथ-साथ समृद्धि बढ़ेगी तो उसका सदुपयोग होगा और तभी उससे व्यक्ति एवं समाज की सुख शान्ति बढ़ेगी। भावना स्तर की उपेक्षा करके यदि सम्पत्ति पर ही जोर दिया जाता रहा तो दुर्गुणी लोग उस बढ़ोतरी का उपयोग विनाश के लिए ही करेंगे। बन्दर के हाथ में गई हुई तलवार किसी का क्या हित साधन कर सकेगी?

कुछ लोग इधर चलें

सन्मार्ग पर चलने वाली प्रेरणा देने वाली विद्या एवं आदर्श के प्रति निष्ठा उत्पन्न करने वाला ज्ञान मानव जीवन की सच्ची सम्पत्ति है। इसी को बढ़ाने से शोक सन्तापों से छुटकारा मिल सकना संभव होगा। भौतिक समृद्धियाँ बढ़ाने में बहुत लोग लगे है और उसकी दिशा में बहुत कुछ किया भी जा रहा हैं। कुछ व्यक्ति मानव जीवन की सर्वोपरि सम्पत्ति सद्भावनाओं को उपजाने और बढ़ाने में भी लगने चाहिए। अन्न का दुर्भिक्ष पड़ जाने पर लोग पत्ते और छालें खाकर जीवित रह लेते हैं पर भावनाओं का दुर्भिक्ष पड़ने पर यहाँ नारकीय व्यथा वेदनाओं के अतिरिक्त और कुछ शेष ही नहीं रह जाता। इस आहार के अभाव में मनुष्य का अन्तःकरण मूर्छित और मृतक बन जाता है। ऐसे लोगों की तुलना प्रेत, पिशाच, असुर, राक्षस एवं हिंस्र पशुओं से ही की जा सकती है। भूखों मर जाने में उतनी हानि नहीं, जितनी नीरस और निष्ठुर, मूर्छित और मृतक अन्तःकरण बनने पर होती है।

मानव जाति को विनाश के गर्त में गिरने से बचाने के लिए एक मात्र उपाय यही रह जाता है कि सद्भावनाओं के बढ़ाने के लिए-सत्प्रवृत्तियों के विकसित करने के लिए ठोस और व्यापक आधार पर एक सुव्यवस्थित कार्यक्रम बनाया जाय और उसे पूरी शक्ति और तत्परता के साथ कार्यान्वित किया जाय। युग-निर्माण योजना इसी प्रकार का प्रयत्न है।

प्रगति-पथ प्रशस्त कैसे हो?

लोक-मानस में सद्ज्ञान की प्रतिष्ठापना करने का कार्य हमें अपने व्यक्तिगत जीवन में सुधार एवं परिवर्तन करके ही सम्पन्न करना होगा। प्रवचन और लेख इस कार्य में सहायक तो हो सकते हैं पर केवल उन्हीं के आधार पर अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति संभव नहीं। दूसरों पर वास्तविक प्रभाव डालने के लिए हमें अपना अनुकरणीय आदर्श उनके सामने उपस्थित करना होगा। संसार में बुराइयाँ इसलिए बढ़ रही हैं कि बुरे आदमी अपने बुरे आचरणों द्वारा दूसरों को ठोस शिक्षण देते हैं। उन्हें देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि इस कार्य पर इनकी गहरी निष्ठा है। जुआरी जुआ खेलते हुए भारी हानि उठाने को तैयार रहते हैं। नशेबाज अपना स्वास्थ्य होम देते हैं। व्यभिचारी अपने धन और प्रतिष्ठा से हाथ धोते हैं, चोर-डाकू राजदंड का त्रास भोगते हैं। इसी प्रकार अन्य बुरे लोग भी भारी खतरे उठाकर भी अपने प्रिय विषय में संलग्न रहते हैं। यही निष्ठा दूसरों पर प्रभाव डालती है और देखा-देखी अन्य अनेक व्यक्ति उनका अनुकरण करने लगते हैं।

सद्विचारों के प्रचारक वैसे उदाहरण अपने जीवन में प्रस्तुत नहीं कर पाते। वे कहते तो बहुत कुछ हैं पर ऐसा कुछ नहीं करते जिससे उनकी निष्ठा की सचाई प्रतीत हो। प्राचीन काल में साधु ब्राह्मण धर्मोपदेश करने से पूर्व अपना जीवन उसी प्रकार का बनाते थे, जिससे संपर्क में आने वालों को उनकी निष्ठा की गहराई का पता चल जाय और वे यथासंभव अनुकरण का प्रयत्न करते हुए अपनी बुराइयों को छोड़ने के लिए अन्तः प्रेरणा विकसित कर सकें। बुराई त्यागने और अच्छाई ग्रहण करने का कठिन कदम कोई तब उठाता है जब वैसे ही दूसरे उदाहरण भी सामने उपस्थित हों और उनसे आवश्यक प्रेरणा प्राप्त हो। गाँधी जी, बुद्ध ईसा के उपदेशों ने संसार में बहुत काम किया है पर उनके प्रवचनों के पीछे उनका उज्ज्वल चरित्र भी प्रकाशवान था।

हमें अपने आपका सुधार करने का कार्यक्रम आरम्भ करते हुए, लोक सेवा की महान प्रक्रिया का आरम्भ करना होगा। युग परिवर्तन का पहला कार्य है— अपना परिवर्तन। हम बदलेंगे तो हमारी दुनिया भी बदलेगी। शुभ कार्य अपने घर से आरम्भ होते हैं। समाज सुधारने के लिए, संसार को सुधारने के लिए हमें अपना व्यक्ति गत जीवन सुधारने के लिए अग्रसर होगा ।

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