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Magazine - Year 1963 - Version 2

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शुभारम्भ और श्रीगणेश

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युग-निर्माण की प्रक्रिया का आधार आत्मनिर्माण, परिवार-निर्माण और समाज निर्माण है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की रचना इसी क्रम से हो सकती है। सुधार का पहला लक्ष्य अपने आपको बनाया जाय। अपने आपका थोड़ा विकसित रूप ही परिवार है। मनुष्य जीवन का परिवार के साथ भी उसी प्रकार सम्बन्ध है जैसे शरीर में उसके विभिन्न अंग जुड़े हुए हैं। कोई भी अंग पीड़ित हो तो सारा शरीर व्यथित हो जाता है, उसी प्रकार परिवार के सदस्यों का अस्त-व्यस्त होना भी मनुष्य के लिए बड़ा दुःखदायक सिद्ध होता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह प्रयत्न करना आवश्यक है कि परिवार के अन्य सदस्य भी शारीरिक और मानसिक दृष्टि से सुविकसित बनें। सब लोग अपने-अपने परिवारों को सुधारने लगें तो सारा समाज, सारा संसार सहज ही सुधर जायगा।

सेवा कार्यों की महत्ता

सम्बद्ध समाज में सद्ज्ञान प्रसार का कार्य करते हुए परमार्थ का व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सकता है। पानी में घुसकर ही तैरना सीखा जाता है, स्कूल में भर्ती होने से ही पढ़ाई होती है। क्रिया से ही अभ्यास होता है। आध्यात्मिक गुणों का अभ्यास होता है। जब त्याग उदारता और सेवापूर्ण पारमार्थिक कार्यों को करते रहने को अवसर मिले। समाज सेवा के कार्य-क्रमों को नियमित रूप से अपनाए रहना इसीलिए आवश्यक माना गया है। अध्यात्मिक साधन भी सेवा के अभाव में अधूरे रह जाते हैं। भजन की ही भाँति परमार्थ को भी साधन का अंग माना गया है। इन सब बातों पर विचार करते हुए अपना और संसार का कल्याण करने के लिए सेवा कार्यों में भी संलग्न रहना पड़ता है। सभ्य-समाज की रचना इस लोक-सेवा की प्रवृत्ति पर ही निर्भर रहती है। जिस समाज के लोगों में जितना परमार्थ भाव रहता है उसकी सभ्यता भी उसी अनुपात से बढ़ी-चढ़ी होती है।

व्यक्ति , परिवार और समाज की स्थिति उच्च कोटि की बनाने के लिए कुछ प्रयत्न किया जाय, इसके लिए परिस्थितियों ने विचारशील लोगों की अन्तरात्मा को विवश किया है। टालम टोल और उपेक्षा का —पीछे कभी देख लेंगे, अभी क्या जल्दी है—यह कहने का समय चला गया। अब और अधिक विलम्ब किया गया तो विभीषिकाएँ सारी मानव सभ्यता के सामने संकट उत्पन्न कर देंगी और इस संसार में सौख नरक के अतिरिक्त और कुछ शेष न रहेगा।

आरम्भिक शिलान्यास

कार्य का प्रारम्भ हम अपने आप से करते हैं। इन पंक्तियों का लेखक अपने व्यक्तिगत परिवार में ‘अखण्ड-ज्योति के सदस्यों की गणना करता है। शने गत 24 वर्षों से जिन लोगों के साथ निरन्तरता ही व्यक्तिगत संपर्क रखा है—जिनके सुख-दुख में उसी प्रकार भाग लिया है जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने अंश-वशं के लोगों के साथ लेता है— ही लोग “अखण्ड ज्योति “ के सदस्य हैं। अखण्ड-ज्योति” साधारण अखबारों की श्रेणी में नहीं आती। श्रेय पथ पर चलने वाले संस्कारवान् व्यक्तियों को सम्बन्ध-सूत्र में पिरोये रहने की यह एक सूत्र शृंखला है। इसके पृष्ठों को हम लोगों की अन्तरात्मा को एक दूसरे के निकट लाने और एक दूसरे की भावनाओं का आदान-प्रदान करने का एक विशिष्ट माध्यम ही माना जा सकता है। लेखों के आधार पर नहीं, भावना और आत्मीयता के सुदृढ़ सम्बन्धों की मजबूत रस्सी में बँधा हुआ यह एक ऐसा संगठन है जिसे कौटुम्बिक परिजनों से किसी भी प्रकार कम महत्व नहीं दिया जा सकता। व्यक्ति -गत एकता और आत्मीयता के बंधन हम लोगों के बीच इतनी मजबूती से बँधे हुए हैं कि इस समूह को परिवार कहने में कोई अत्युक्ति नहीं हो सकती।

हम और हमारा परिवार

गायत्री उपासना करने में हमारा मार्गदर्शन परामर्श एवं सहयोग लेने वाले व्यक्ति यों को हम गायत्री परिवार कहते रहे हैं। जो लोग उपासना को उस विधि में तो नहीं करते, पर जीवन निर्माण के कार्यक्रमों में सहमत हैं ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं। उपासना और जीवन निर्माण विद्या के दोनों ही माध्यमों से हमारे साथ संबद्ध व्यक्तियों के विशाल जनसमूह को हम ‘अखण्ड ज्योति’ परिवार के नाम से पुकारते हैं। यह सभी लोग हमें व्यक्ति गत रूप अपने शरीर के अंगों की तरह प्रिय हैं और विश्वास है कि वे लोग भी हमें उसी दृष्टि से देखते हैं। पारस्परिक प्रेम भाव और भावनात्मक आदान-प्रदान को बनाये रखने में ‘अखण्ड ज्योति” पत्रिका महत्वपूर्ण कड़ी का काम करती रहती है।

अपनी मार्गदर्शक सत्ता की प्रेरणा पर अब तक हम अपने जीवन का कार्यक्रम बनाते और उसकी पूर्ति करते चले आ रहे हैं। दस वर्षों के लिए युग-निर्माण योजना का जो कार्यक्रम हमें मिला है उसका आरंभ भी उसी पद्धति से स्वयं भी कर रहे हैं जिसके अनुसार दूसरों को प्रेरणा देनी है।

हमारा व्यक्तिगत निर्माण कार्य-जीवन के आरम्भ से ही चलता चला आ रहा है। परम पूज्य पिता जी की उद्भट विद्वता और सच्चे ब्राह्मणों जैसी संस्कृति निष्ठा ने जन्म काल से ही प्रभावित किये रखा, पीछे 15-16 वर्ष की आयु में गुरु देव ने हाथ पकड़ लिया। जिस प्रकार गोदी में लेकर कोई माता अपने बच्चे को सुरक्षित रखे रहती है, पयपान कराती है, उसी प्रकार अज्ञात सत्ता ने अपना दुलार सुधारात्मक प्रवृत्ति के रूप में ही हमें पिलाया है और कुमार्ग पर पैर पड़ने से बचाया है। इतने पर भी जन्म जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कार, जो बीज रूप से अज्ञात चेतना में छिपे पड़े है उन्हें सुधारने की ओर हमारा ध्यान है, अब भी है, तथा आगे आत्मसुधार की प्रक्रिया को और भी तीव्र करेंगे, क्योंकि दूसरों को जिस काम के लिए कहना है उसको स्वयं भी तो करना ही ठहरा। इस दिशा में अपने प्रयत्नों को अब और भी तीव्र कर रहे हैं।

दूसरे कदम का कार्यक्षेत्र

दूसरा कदम परिवार निर्माण का है। यों कहने को एक छोटा परिवार भी हमारा मौजूद है; पर सही बात यह है कि हमने गत चौबीस वर्षों से अपने विचार परिवार को ही अपना वास्तविक परिवार माना है। कभी यह कल्पना ही नहीं आती कि हमारा कुटुम्ब घीयामंडी के छोटे मकान में रहने वाले लोगों तक ही सीमित है। “अखण्ड ज्योति परिवार “ के तीस हजार व्यक्ति सदा हमें अपने सच्चे स्वजन सम्बन्धी दीखते रहे हैं। उनके सम्बन्ध में हमारी चिंता, आकाँक्षा और जिम्मेदारी उतनी ही रहती हैं जितनी किसी दूसरे को अपने निजी परिवार की रहती है। यों सारा समाज और सारा संसार ही अपना है, पर जिनके साथ प्रेम और कर्त्तव्य के आवश्यक बंधन बँधे होते हैं उनके लिए कुछ विशेष सोचना और करना पड़ता है। अपने इस तीस हजार व्यक्ति यों के कुटुम्ब के प्रति हमें सदा ऐसी ही अनुभूति होती रहती है।

युग निर्माण योजना को कार्यान्वित करते हुए हमें आत्म निर्माण के अतिरिक्त परिवार निर्माण का कार्य भी करना है। योजना का प्रारम्भ यहीं से हो रहा है। आगे चल कर उसका व्यापक विस्तार होगा पर श्रीगणेश का क्षेत्र तो वही रह सकता है जो हमारे अत्यन्त निकटवर्ती कुटुम्बी परिजनों का है। जिन पर हमारा कुछ अधिकार है उन्हीं से कुछ करने के लिए बलपूर्वक कहा भी जा सकता है। अपने अधिकार क्षेत्र में ही कुछ कर सकना हमारे लिए सम्भव भी था, वही कर भी रहे है। परिवार निर्माण का काम “अखण्ड ज्योति” के सदस्यों से —अपने विचार परिवार से आरम्भ करते हुए हमें पूरा और पक्का विश्वास है कि इसे ध्यानपूर्वक सुना और समझा जायगा। इतना ही नहीं वरन् प्रत्येक परिजन उससे जितना बन पड़ेगा उतना करेंगे भी।

शत-सूत्री योजना और उसका कर्मक्षेत्र

शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमें क्या करना चाहिए, क्या सोचना चाहिए, इसकी एक छोटी रूपरेखा अगले पृष्ठों पर उपस्थित है। इसमें से जो कर सकना सम्भव हो उसे आगामी ‘गुरु पूर्णिमा’—6 जुलाई से-आरम्भ कर देना चाहिए। युग निर्माण योजना को कार्यान्वित करने का आदेश हमें उसी तिथि को मिला है। इसलिए इसके प्रारम्भ की जन्म तिथि सदा यही मनाई जाया करेगी। इस वर्ष इसका जितना अंश जिन्हें आरम्भ करना हो उसी दिन से उसका श्रीगणेश करें।

योजना में जो कार्यक्रम हैं वे भारतीय संस्कृति को, हिन्दू परम्परा को ध्यान में रखते हुए बनाये गये हैं। क्योंकि हम स्वयं इसी श्रेणी में आते हैं और हमारे वर्तमान परिजन भी इसी वर्ग के हैं। हर व्यक्ति अपने क्षेत्र और वर्ग को देखकर ही कुछ करने की व्यवस्था बना सकता है। चूँकि योजना विश्वव्यापी है, सभी वर्गों सभी जातियों, सभी धर्मों, सभी देशों और सभी धर्मों के लिए है इसलिए उसका मूल आधार एक रहते हुए भी स्थिति के अनुरूप इसके कार्यक्रम बदलते रहेंगे। जैसे समाज सुधार के लिए दहेज, मृत्युभोज आदि जिन बुराइयों का वर्णन है वे हिन्दू समाज की हैं, ईसाई वर्ग के लोग उन्हें छोड़ दे और उनके समाज में जो कुरीतियाँ प्रचलित हों उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें। गायत्री मन्त्र की जो महिमा हिन्दू धर्म में है मुसलमानों में वही ‘कलमा शरीफ’ की है, वे उसी मन्त्र को भावनापूर्वक जप सकते हैं। इसी प्रकार अन्य बातों में भी देशकाल पात्र एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आवश्यक हेर फेर करें।

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