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Magazine - Year 1964 - Version 2

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कर्मदेव का अपमान न करें!

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प्रत्येक कार्य जीवन में महान् सम्भावनाएँ लेकर आता है। छोटे-से-छोटा काम भी जीवन-विकास के लिये उसी तरह महत्वपूर्ण है जिस तरह एक छोटा बीज, जो कालान्तर में विशाल वृक्ष बन जाता है। किसी मनुष्य का मापदण्ड उसकी आयु नहीं वरन् उसके काम ही हैं जो उसने जीवन में किये हैं। इसलिए कर्मवीरों ने काम को ही जीवन का आधार बनाया। एक मनीषी ने तो यहाँ तक कह दिया “हे कार्य? तुम्हीं मेरी कामना हो, तुम्हीं मेरी प्रसन्नता हो, तुम्हीं मेरा आनन्द हो।”

इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुच्छ से महान्, असहाय से समर्थ—शक्तिशाली, रंक से राजा, मूर्ख से विद्वान् सामान्य से असामान्य बनाने वाले वे छोटे से लेकर बड़े सभी कार्य हैं जो समय-समय पर हमारे सामने आकर उपस्थित होते हैं। किन्तु एक हम हैं जो अनेकों शिकायतें करके अपने कर्मदेव का अपमान करते हैं और वह लौट जाता है हमारे द्वार से। तब पश्चाताप करने और हाथ मलने के लिए ही विवश होना पड़ता है हमको।

कभी-कभी हम शिकायत करते हैं “यह काम तो बहुत छोटा है, यह मेरे व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं है, मैं इन तुच्छ कामों के लिए नहीं हूँ” आदि-आदि। लेकिन हमने कभी यह भी सोचा है उद्गम से आरम्भ होने वाली नदी प्रारम्भ में इतनी छोटी होती है कि उसे एक बालक भी पारकर सकता है। एक विशाल वृक्ष जो बहुतों को छाया दे सकता है, मीठे फलों से तृप्त कर सकता है, अनेकों पक्षियों का बसेरा होता है, आरम्भ में एक छोटा-सा बीज ही था, जो तनिक सी हवा के झोंके से उड़ सकता था। एक छोटी-सी चिड़िया भी उसे निगल सकती थी, एक चींटी उसे उठाकर ले जा सकती थी। बहुमूल्य मोती प्रारम्भ में एक साधारण सा-बालू का कण ही होता है।

यही स्थिति हमारे सामने आने वाले कार्यों की भी है। प्रत्येक महान् और असाधारण बनाने वाला काम भी प्रारम्भ में छोटा, सामान्य लगता है। किन्तु कर्मवीर जब उसमें एकाग्र होकर लगते हैं वे ही महान् असाधारण महत्व के कार्य बन जाते हैं।

क्या आपको याद है कि उस वैज्ञानिक बनने की आकाँक्षा रखने वाले बालक एडीसन को उसके शिक्षक ने पहले घर में झाडू लगाने का काम सौंपा था और जब शिक्षक ने देखा कि इस कार्य में भी बालक की वैज्ञानिक प्रतिभा और गहरी दिलचस्पी काम कर रही है तो उसे विज्ञान की शिक्षा देनी प्रारम्भ की और वह अपने इस सद्गुण को विकसित करता हुआ महान् वैज्ञानिक बना। प्रत्येक महान् बनने वाले व्यक्ति के जीवन का प्रारम्भ उन छोटे-छोटे कार्य-क्रमों से ही होता है जिन्हें हम छोटे, तुच्छ समझकर मुँह फेर लेते हैं। उन छोटे-छोटे कार्यों का जिन्हें हम छोटे, महत्वहीन, सामान्य कहकर टाल देते हैं हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। उन पर ही हमारे जीवन की महानताओं का भवन खड़ा होता है। एक-एक कण मिलाकर ही वस्तु का आकार प्रकार बनाते हैं। विशालकाय इञ्जन में एक कील का भी अपना महत्व होता है। उसे निकाल दीजिए सारा इञ्जन बेकार हो जायगा। बड़े भवन में एक छोटे से पत्थर को भी अस्थिर और ढीला-ढाला छोड़ दिया जाय तो उसके गिर जाने का खतरा रहेगा। हमारे जीवन में आने वाले छोटे-छोटे कार्य मिलकर ही महान् जीवन का सूत्रपात करते हैं लेकिन जब हम अपने कामों को छोटे और महत्व-हीन समझकर उन्हें भली प्रकार नहीं करते तो वे हमें बहुत बड़ा शाप देते हैं, जिससे हमारे जीवन की सफलता अधूरी और अपंग रह जाती है।

काम जो सामने खड़ा है उसमें रुचि अरुचि का प्रश्न उठाना उसी तरह अनुपयुक्त है जिस तरह गर्मी के दिनों में सर्दी की कामना करना। गर्मी है तो इसी में रहने का अभ्यास डालना पड़ेगा जो काम हमारे सामने हैं उसे पूरा करने में जुट जाना ही हमारा वर्तमान धर्म है। महत्वाकाँक्षा या रुचि के अनुसार सब कुछ तुर्त-फुर्त नहीं हो जाता है। धीरे-धीरे ऐसी भी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं जब मनुष्य को अपनी रुचि के अनुसार काम करने को मिले किन्तु यह तभी संभव है जब हम वर्तमान में जो काम सामने है उसे पूरा करने में लगे रहें। रुचि के अनुकूल काम कब मिलेगा यह भविष्य पर निर्भर है किन्तु जो आवश्यक ओर अनिवार्य है , वह है अपने प्रत्येक काम से प्यार करना, उसमें रस लेना और बड़ी तन्मयता लगन के साथ उसे पूर्ण करना। इसी से हमारा उद्धार हो सकेगा।

इच्छानुसार काम की प्रतीक्षा में मनुष्य को सम्पूर्ण जीवन ही बिता देना पड़े तो कोई सन्देह नहीं कि ऐसे व्यक्ति के लिए जीवन में कभी भी ऐसा काम नहीं आयेगा। बिना रुचि के किए गये काम न पूर्ण होते हैं न उसका कोई ठोस परिणाम ही मिलता है।

अपने काम में रुचि अरुचि का प्रश्न उठाना अनुपयुक्त है। यह एक तरह से अपनी अकर्मण्यता और आलस्य को प्रोत्साहन देना है। मानव मन की यह विशेषता है कि वह जिस प्रकार के भावों से प्रभावित होता है वैसा ही बनता जाता है। काम में रुचि अरुचि का अभ्यस्त मन आगे चलकर ऐसा बन जाता है कि उसे किसी भी काम में रुचि नहीं रहती और वे उसे अधूरा छोड़ देते हैं। ऐसे व्यक्ति एक काम को हाथ में लेते हैं। नये-नये काम आरम्भ करते रहते हैं और थोड़े समय बाद उससे भी अरुचि हो जाती है तो दूसरे में लगते हैं। तात्पर्य यह है कि वे किसी भी काम में दृढ़ स्थिर नहीं रह पाते। दूसरी ओर जब उपस्थित काम में हम प्रयत्नपूर्वक लग जाते हैं तो थोड़े समय में रुचि भी वैसी ही बन जाती है। इसलिये रुचि-अरुचि का प्रश्न उठाना असन्तुलित मनोभूमि का कारण है। आलस्य प्रमाद की प्रेरणा से ही मनुष्य इस तरह की मीनमेख निकालता रहता है।

कई बार अपने काम में धैर्य और निष्ठा का अभाव हमें सफलता के द्वार से वापिस लौटा देता है। तब हमारी शिकायत होती है “कब तक करते रहेंगे।” मनुष्य की यह एक स्वाभाविक कमजोरी होती है कि वह तुर्त फुर्त अपने काम का परिणाम देख लेना चाहता है। जिस तरह बच्चे खेल खेलने में आम की गुठली मिट्टी में गाड़ते हैं और उसे जल्दी-जल्दी बार-बार उखाड़ कर देखते हैं कि कहीं आम का पेड़ उग तो नहीं आया? वे भोले बालक यह नहीं जानते कि कहीं कुछ मिनट में ही आम का पौधा कभी उगता है? अपने काम के परिणाम के बारे में जल्दी-जल्दी सोचना इसी तरह की बचकाना प्रवृत्ति है। यह निश्चित है कि अच्छे उद्देश्य से भली प्रकार किया गया काम समय पर अपने परिणाम अवश्य प्रदान करता है लेकिन किसी काम का फल कब मिलेगा इसका ठीक-ठीक समाधान सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता। इसलिये अपने काम के परिणाम के बारे में अधिक सोच विचार न करके कर्मवीर के सामने एक ही मार्ग है कि वह जब तक सफलता न मिले अपने काम में डूबा रहे। हम तन्मय होकर काम में लगे रहें। उसमें हमको गहरी निष्ठा हो अपने काम के सिवा दूसरी बात हम न सोचें तो कोई सन्देह नहीं कि एक दिन सफलता स्वयं हमारा दरवाजा खटखटायेगी।

वस्तुतः काम को व्यापार न माना जाय काम तो काम है। जिस तरह कलाकार अपनी कला से प्यार करता है उसमें तन्मय होकर निष्ठा के साथ साधना करता है उसी तरह काम भी कला समझ कर किया जाय। हम अनुभव करेंगे कि जिस तरह कलाकार को अपनी कला साधना से मिलने वाला आनन्द, स्फूर्ति प्रसन्नता, कृति के भौतिक मूल्य से कहीं अधिक मूल्यवान होती है उसी तरह कर्म-साधना हमें वह आनन्द प्रसन्नता, चेतना प्रदान करेगी जो उसके भौतिक परिणाम से कहीं अधिक कीमती होंगे।

आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने काम से प्यार करें, उसकी इज्जत करें। कर्म साधना में पूर्ण तन्मय हो जाएँ। काम के प्रति छोटे बड़े, रुचि-अरुचि, “कब तक करेंगे” आदि शिकायतें न करें। तभी हम देखेंगे कि हमारा काम ही हमें जीवन के महान् वरदानों से परिपूर्ण कर देगा। वस्तुतः काम करना हमारे स्वभाव का आवश्यक अंग होना चाहिए। जो काम हमारे सामने हैं यदि हम भली प्रकार उसे करने को तत्पर हो जाते हैं तो कोई सन्देह नहीं कि एक दिन वह भी आयेगा जब हमें अपनी रुचि के अनुसार बड़े-बड़े काम मिलेंगे और उनसे हमारी महानता का पथ प्रशस्त हो सकेगा।

स्वाध्याय सन्दोह-

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Language: HINDI
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