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Magazine - Year 1964 - Version 2

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बच्चे घर की पाठशाला में?

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घर बच्चे की प्रारंभिक पाठशाला है जहाँ वह जीवन के महत्वपूर्ण पाठ सीखता है। स्कूल, कालेज, विद्यालयों में तो बालक का बौद्धिक विकास ही होता है, एक निश्चित पाठ्य-क्रम पूरा कर देना ही उसका ध्येय होता है जिसका जीवन में सीमित उपयोग है, लेकिन घर की पाठशाला में सीखी हुई बातें तो बालक के जीवन का अंग ही बन जाती हैं। वस्तुतः बालक के चरित्र, स्वभाव, उसके व्यक्तित्व की निर्णयशाला है घर, जब कि शिक्षालयों में एक स्तर तक बौद्धिक विकास ही हो पाता है।

जिस तरह अनुकूल जलवायु मिट्टी एवं योग्य माली की देख−रेख में छोटा-सा पौधा बड़ा होकर फलने फूलने लगता है उसी तरह घर के उपयुक्त वातावरण में कुशल माँ-बाप के सान्निध्य में रहकर बालक का स्वभाव और उसका व्यक्तित्व, चरित्र उत्कृष्ट बनता है। लेकिन घर के गन्दे वातावरण, माँ-बाप का पापमय जीवन बच्चे को बुराइयों की ओर प्रेरित करता है। घर के वातावरण में घटने वाली सामान्य घटनाएँ अभिभावकों के व्यवहार, रहन-सहन, आचरणों का बच्चे के मानस-पटल पर बड़ा स्थायी प्रभाव पड़ता है।

जिस घर का वातावरण बड़ा सौम्य, शान्त और मधुर होता है, जहाँ लोगों के परस्पर प्रेम, सेवामय जीवन सद्भावनापूर्ण संबंध होंगे वहाँ बालक के मानसिक विकास में बड़ा योग मिलता है। जहाँ बच्चे को उन्मुक्त होकर सहज जीवन बिताने दिया जाता है, जहाँ उसे सबका स्नेह मिलता है, जहाँ बालक निर्भय-जीवन बिताता है, ऐसा वातावरण बालक के व्यक्तित्व का चतुर्मुखी विकास करने में बड़ा ही सहायक सिद्ध होता है।

लेकिन उस घर में जहाँ नित्य कलह, अशान्ति, परस्पर तनातनी, झगड़ा होता रहता है, जहाँ बालक को स्नेह शून्य सखा विहीन जीवन बिताना पड़ता है, और कठोर व्यवहार का सामना करना पड़ता है वहाँ उसका विकास होना तो दूर उल्टे मानसिक क्षमतायें, बौद्धिक प्रतिभा, व्यक्तित्व सब कुण्ठित हो जाते हैं।

जो माँ-बाप या अभिभावकगण परस्पर “तू तू” “ मैं मैं” करते रहते हैं जिनमें परस्पर आये दिन लड़ाई झगड़े मारपीट होती रहती है, जो एक दूसरे को मूर्ख एवं नीच सिद्ध करने के प्रयत्न करते रहते हैं, भद्दे आक्षेप करते हैं उनके इस व्यवहार का बालकों के कोमल मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चे का अपरिपक्व मस्तिष्क इस तरह के व्यवहार को समझ नहीं पाता। इससे उसके मन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसके फलस्वरूप माँ-बाप अथवा घर के अन्य सदस्यों के प्रति उसके मन में आदर भाव कम हो जाता है। सम्मान की भावना घट जाने से बच्चों में अश्रद्धा भी पैदा हो जाती है। श्रद्धा के बिना विश्वास स्थिर नहीं रहता। अश्रद्धालु और विश्वास रहित ये बच्चे माँ-बाप की अवहेलना करने लगते हैं अनुशासनहीन बन जाते हैं। यह स्थिति परिवार तक ही सीमित नहीं रहती वरन् सम्पूर्ण समाज की मर्यादाओं के प्रति ही ये बालक आगे चलकर आवारा और उच्छृंखल बन जाते हैं।

घर का कलह, परिवार के सदस्यों का परस्पर दुर्व्यवहार, बच्चों में अश्रद्धा, अविश्वास, अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता आदि बुराइयों को जन्म देता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि पति-पत्नी के बीच होने वाली तकरार अथवा परिवार में होने वाला कलह सर्वथा दूर करने का प्रयास किया जाय। यदि कुछ इस तरह की बात हो भी जाय तो बच्चों के सामने उसे न आने दें। जिस तरह किसी मेहमान के सामने अपने घर की लड़ाई को छिपा लिया जाता है उसी तरह बच्चों के समक्ष भी ऐसा ही करना चाहिए। अपने घर के कलह की बात तो दूर रिश्तेदार अथवा पड़ौसियों के झगड़े की बात को बच्चों तक नहीं आने देना चाहिए।

अभिभावकों को चाहिये कि बच्चों के समक्ष अपनी कोई चारित्रिक कमजोरी प्रकट न होने दे। बच्चा कितना ही अबोध क्यों न हो उसके समक्ष परस्पर प्रेम प्रदर्शन, अश्लील हाव-भाव अथवा गलत आचरण कभी न किया जाय। बच्चों की मनोभूमि इतनी ग्रहणशील होती है कि जाने अनजाने वह इनको सहज ही अपना लेती है। जहाँ तक बने दुर्व्यसनों को तिलाञ्जलि दे देनी चाहिये, फिर भी कोई बुराई न छूटे तो इतना तो ध्यान रखाना चाहिये कि बच्चों के समक्ष उसे व्यक्त न होने दें। बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू आदि कोई भी व्यसन एकान्त में पूरा किया जाय बच्चों के समक्ष नहीं।

बच्चों के समझदार और कुछ बड़े हो जाने पर उनके लिए सोने की व्यवस्था अलग कर देनी चाहिए। समझदार बच्चों को एक ही कमरे में लेकर न सोया जाय। क्योंकि पति-पत्नी के गुह्य संबंधों का बच्चे पर बुरा असर पड़ता है। इसके साथ-साथ बच्चों को नंगा नहीं रखना चाहिए। इससे असमय में ही बच्चों में यौन-भावनायें जाग्रत हो सकती हैं जो उन्हें कई बुराइयों की ओर प्रवृत्त कर देती हैं।

अभिभावकों माता-पिताओं को चाहिए कि बच्चों की विधिवत् दिनचर्या बनाकर उसके अनुसार उन्हें चलाने की व्यवस्था करें। बच्चों के खाने पीने, सोने, पढ़ने, खेलने आदि का समय नियम कर देना चाहिए। लेकिन इसके साथ-ही अभिभावकों का स्वयं का जीवन भी व्यवस्थित, नियमित होना चाहिए। उनका आदर्श ही बच्चों को नियमित जीवन बिताने के लिये प्रेरणादायी होगा। बच्चे अपने नियमित कार्यक्रम में गफलत करें तो उसे टोककर नियमानुसार जीवन बिताने को कहना चाहिए। लेकिन सोने के समय पढ़ने अथवा खेलने के समय घर का काम करने की आज्ञा देने की भूल नहीं करनी चाहिये। बच्चे को उसकी नियम, व्यवस्था के अनुसार चलने देना चाहिए। यदि कोई आवश्यक काम ही आ पड़े तो बात दूसरी है अन्यथा बच्चों के कार्य-क्रम में यथासंभव व्यवधान पैदा नहीं करना चाहिए।

किसी तरह के भय, अन्धविश्वास या गलत धारणा का आश्रय लेकर बच्चों को निर्देश नहीं देना चाहिए भले ही वह उनके हित में ही क्यों न हों। भूत, चुड़ैल, कीड़े, मकोड़े या हौवा आदि का भय बच्चों को नहीं दिखाना चाहिये। बचपन में जमी हुई भय की भावना जीवन भर नहीं निकल पाती है। बचपन के समय अवचेतन मन में समाया हुआ इस तरह का भय तगड़े तन्दुरुस्त, मोटे-ताजे व्यक्तियों को भी अन्धेरे में, एकान्त में, कोई छोटा-मोटा जानवर देख लेने पर परेशान करता है। स्वयं अभिभावकों को भी इस तरह के भय प्रदर्शन से बच्चों के समक्ष बचना चाहिए।

माता-पिता या अभिभावकों की भावनाओं का, उनके व्यवहार का भी बच्चों के जीवन पर बहुत बड़ा असर पड़ता है। वस्तुतः घर की पाठशाला में अभिभावकों का जीवन ही बच्चों की प्रथम पुस्तक होती है। बच्चों के साथ ही नहीं, माँ बाप दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं इसका बाल मन पर भारी प्रभाव पड़ता है। इस संबंध में एक घटना बड़ी महत्वपूर्ण है। एक धनिक व्यक्ति लेन देन के मामले में एक गरीब व्यक्ति को बड़ी गालियाँ दे रहा था, उसने उसे नौकरों से पिटवाया और धक्के देकर बाहर निकाल दिया, उसका गिरवी रखा हुआ जेवर धनिक ने हड़प लिया। गरीब बेचारा रोता चिल्लाता चला गया। यह सारी घटना पास ही खड़ा धनिक का पुत्र देख रहा था। बालक का बाल हृदय यह सब सहन नहीं कर सका और अपने पिता के प्रति उसके हृदय में कटुता और घृणा की भावना पैदा हो गई। वह विद्रोही बन गया। बाप का कहना सुनना उसे बुरा लगता। ऐसे काम वह करता जिससे धनी पिता को क्लेश होता, पिता की परेशानी से उसे प्रसन्नता होती। अन्त में परिस्थिति यहाँ तक आ गई कि बड़ा

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