
इसमें शक क्या? (Kavita)
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गत भव्य, अनागत जो भविष्य होगा उज्ज्वल इसमें शक क्या?
यदि वर्तमान तुम बना सको, सुमधुर प्रेरक-शुभ सुन्दरतम्॥
देखा न जिसे उसकी चिन्ता, कैसा वह दीवानापन है।
जो प्राप्त-घृणा उससे, अप्राप्त को चाह रहा कैसा मन है॥
लगता जो मन को प्रिय सुन्दर, सहसा वह छोड़ चला जाता।
जिससे जग आशा करता वह,अपना मुख मोड़ चला जाता॥
गिरता, जो चलता बार-बार, दृढ़ता आ जाती है, शक क्या?
बिन गिरे, सीख लूँगा चलना, जो कहता, यह केवल है भ्रम॥
उर में अदस्य साहस जिनके, वे ही तो निर्भय होकर के—
सागर के तल से लाते हैं मोती, अपना सब खो करके॥
तट पर जो बातें बना-बना निजमन बहलाया हैं करते
कैसे पायें अपना अभीष्ट? जो मंझ धारा से हैं डरते॥
गिरि शृंगों को छूने वाले, काँटों पर सो लेंगे, शक क्या?
पर देखे नहीं शूल जिसने, कहता—चल लूँगा, है अक्षम॥
यह मानव का विश्वास कि सागर की छाती को चीर-चीर।
जलयान अनेकों ले जाते, चालक हँस-हँस गम्भीर धीर॥
निःसीम नील, नभ में भी तो उड़ते हैं अनगिन वायुयान—
दृढ़ लगन अमिट जिज्ञासा ही, तो बन जाती रचना विधान॥
जिनके उर में है चाह, राह निर्मित कर लेंगे ही, शक क्या?
पर जिनकी कोई राह नहीं, पाएंगे कैसे लक्ष्य शुभम्॥
मनु पुत्र! उठो, जागो॥ अपने स्वर्णिम अतीत पर गर्वित हो।
कर आगत का स्वागत अनुपम, उर नव-भावों से पूरित हो॥
ले मन उमंग उत्साह आज फिर से नव-युग निर्माण करो।
रोती जो मानवता, उसका तुम दानवता से त्राण करो॥
अभ्यास जिन्हें पीने का वे, बे-होश नहीं होते, शक क्या?
पर हित जो विष पीते आये, ठुकरा देते अमृत अनुपम॥
—रामस्वरूप खरे
*समाप्त*