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Magazine - Year 1964 - Version 2

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परम भागवत सन्त नामदेव

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मनुष्य लोहे पत्थर से नहीं, भावना से बना परिवर्तनशील प्राणी है। मनोभूमि बदले तो उसे बदलते देर नहीं लगती। आलसी और उद्योगी, सज्जन और दुर्जन, दुर्गुणी और सद्गुणी, घृणित और सम्मानास्पद स्थिति मनुष्य की आदतों पर निर्भर रहती है और ये आदतें यदि चाहें तो कोई भी मनुष्य आसानी से बदल सकता है।

सन्त नामदेव का आरम्भिक जीवन कुत्सित प्रकार का था। डाकू और लुटेरे की तरह वे अपना जीवन-यापन करते थे। उनका आतंक चारों ओर रहता था, लोग नामदेव का नाम सुनते ही काँपने लगते थे। इनके उपद्रवों की शिकायत से सरकार भी क्षुब्ध हुई और उन्हें पकड़ने के लिए अस्सी घुड़सवार भेजे। कहते हैं कि इन सबका उन अकेले ने सफाया कर दिया।

दुर्दान्त दस्युओं में भी अन्तरात्मा रहती है और वह जब कभी पलटती है तब बुरे से बुरे आचरण के व्यक्ति को सुधरते देर नहीं लगती। पूर्वकाल में बाल्मीकि, बिल्वमंगल, अम्बपाली, अजामिल, सदन आदि पतित जीवन व्यतीत करने वाले लोगों ने अपनी अन्तरात्मा की पुकार पर दुर्जनता का मार्ग छोड़कर सज्जनता अपनाई तो वे देखते-देखते दुरात्मा से महात्मा बन गये। नामदेव का परिवर्तन भी इसी प्रकार आत्मा की पुकार सुनने वाले लोगों की शृंखला का एक उदाहरण माना जा सकता है।

ईश्वर विश्वास और आस्तिकता की भावना जब मन में जमी तो दुष्टता के लिए जीवन में स्थान ही कैसे रहता? जो ईश्वर को घट-घट वासी मानेगा वह सब में समाये हुए परमात्मा के साथ दुर्व्यवहार कैसे कर सकेगा? यों झूठे भक्त ‘मुख में राम बगल में छुरी’ का बानक भी बना लेते हैं। पाप निर्भय होकर करते हैं और कुछ पूजा पाठ करके यह आशा लगाये रहते हैं कि यह सब कुछ तो भजन के प्रताप से छूट ही जायगा फिर अनीति का लाभ उठाने से डरें क्यों? यह मान्यता तो झूठे और बहके हुए भक्तों की रहती है। जिसके अन्तःकरण में एक कण भी सच्ची ईश्वर भक्ति का उत्पन्न हो जायगा वह सब में अपने प्रभु की झाँकी देखेगा और उसके साथ प्रेम एवं सज्जनता का व्यवहार करेगा। नामदेव जब ईश्वर भक्ति की ओर सच्चे मन से झुके तो उन्हें अनीति का मार्ग छोड़ना ही पड़ा। आस्तिक के लिए दुरात्मा बने रहना संभव नहीं, नामदेव की ईश्वर भक्ति ने उन्हें न तो दुष्ट रहने दिया और न डाकू।

गुरु की तलाश में नामदेव भटक रहे थे तो भगवान पाण्डुरंग ने उन्हें निर्देश किया कि विसोवा खेचर नामक कोढ़ी को वे गुरु बनायें। नामदेव ने वैसा ही क्रिया। वे कोढ़ी को गुरु मानकर उसकी सच्चे मन से सेवा करने लगे। आरम्भ में तो उन्हें यह निर्देश अटपटा लगा पर पीछे कुछ ही दिन में इस ईश्वरीय आज्ञा का रहस्य उनकी समझ में आ गया। पीड़ितों, उपेक्षितों और तिरस्कृतों की सेवा के बिना किसी का अन्तःकरण पवित्र नहीं हो सकता और जिसका हृदय पवित्र न होगा वह न तो गुरु ज्ञान का अधिकारी बन सकेगा और न उसे ईश्वरीय प्रकाश का अनुभव ही होगा। सेवा भावना की अधिकता सन्त हृदय की पहली विशेषता है। गुरु-दीक्षा के रूप में भगवान पाण्डुरंग ने विसोवा कोढ़ी की सेवा करने का आदेश दिया और सेवा धर्म को अपनाते हुए नामदेव ने जो ज्ञान पाया वह जीवन के सार्थक बनाने में अत्यन्त उपयोगी भी सिद्ध हुआ। मनोरंजन के लिए या कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए आज के लोगों की तरह यदि उनने भी गुरु दीक्षा ली होती तो संभवतः उनको भी खाली हाथ रहना पड़ता और निराशा के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ न लगता।

नामदेव धान्य-कुधान्य का बड़ा ध्यान रखते थे। अभाव-ग्रस्त जीवन व्यतीत करते हुए भी वे किसी का दान स्वीकार न करते थे। उनकी धर्मपत्नी परिश्रमपूर्वक जो कमाती उसी में से वे जो दे जातीं उसी से रूखा-सूखा खाकर फटा-टूटा पहन कर काम चलाते। कई उदार लोग उनकी निर्धनता का पता चलने पर सहायता भेजते पर वे किसी का भी दान स्वीकार न करते और कहते जिसका अन्न खाया जाता है उनके लिये अपना भजन भी चला जाता है। फिर यदि किसी की अनीति की कमाई हुई तो उसे खान पर अपना मन भी कलुषित होगा।

प्राणी मात्र में भगवान की झाँकी करना और प्रत्येक के साथ प्रेम एवं आत्मीयता का व्यवहार करना यही तो ईश्वर भक्ति की कसौटी है। इस कसौटी पर भक्त नामदेव सदा खरे उतरते रहे। एक दिन वे रोटी बना रहे थे कि अचानक एक कुत्ता आया और उनकी बनाई हुई रोटियाँ मुँह में दबा कर भागा। नामदेव उसके पीछे चुपके से घी की कटोरी लेकर जा पहुँचे और कुत्ते से कहा—’मेरे भगवान! आपको भोग लगाने के लिए यह घी भी मैंने रखा था फिर आप रूखी रोटी क्यों खाते हैं? नामदेव ने कुत्ते को प्रेमपूर्वक खिलाया और उसकी रोटियाँ घी में चुपड़ दीं।’ यह तो एक घटना मात्र है, उनके जीवन की प्रत्येक गतिविधि प्राणीमात्र में भगवान देखने और उनके साथ आत्मीयता का व्यवहार करने की नीति पर चलती थी। सच्चे सन्तों की अनादि परम्परा रही भी यही है।

जाति के दर्जी होने के कारण दूसरे लोग उन्हें समय-समय पर तिरस्कृत करते रहते थे पर इससे वे कभी खिन्न न हुए। ‘जो भूल करता है उसे दुःखी होना चाहिए, मेरी मान्यता तो प्राणिमात्र में एक आत्मा देखने की है’ जो इस सत्य के विपरीत जाति वंश के आधार पर किसी को छोटा माने तो यह उनका अविवेक है। किसी की भूल का दण्ड मैं क्यों सहूँ यह कहकर उन तिरस्कार करने वालों की बात को उपहास में उड़ा देते थे और अपने मन को कभी छोटा न होने देते थे। लोग कुछ भी कहते रहें उनने न अपने को किसी से ऊँच माना और न नीच। सन्तों की उपयुक्त समता पर उनकी अगाध आस्था थी वह जीवन भर वैसी ही बनी रही।

सन्त नामदेव ने धर्म-प्रसार को अपना आवश्यक धर्म कर्तव्य बनाया और वे महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक भागवत धर्म का उपदेश जन-साधारण को करते रहे। तत्कालीन पण्डित लोग दान-पुण्य, पाठ-पूजा, कथा-कीर्तन और स्नान-दर्शन मात्र से ही भगवान की प्राप्ति होने का प्रतिपादन करते थे। सदाचार और कर्तव्य-पालन को उनने व्यर्थ मान रखा था और कहते थे कि इन कर्मकाण्डों से ही जब पाप नष्ट हो सकते हैं तो उन्हें छोड़कर घाटे में रहने की क्या आवश्यकता है? नामदेव की प्रतिपादना में यह अन्तर था कि वे कर्मकाण्ड को उपयोगी और आवश्यक तो मानते थे पर सदाचार एवं कर्तव्य-पालन को प्रथम स्थान देते थे और स्पष्ट कहते थे कि दुरात्मा का भजन विडम्बना मात्र रह जाता है। भागवत धर्म में उनका प्रयोजन उसी आस्था से था जो उपासना के साथ-साथ सच्चरित्रता एवं परमार्थ की प्रेरणा भी देती हो।

सच्चे भगवद् भक्त की तरह नामदेव ने भागवत धर्म को अपने जीवन में उतारा और उसी की शिक्षा दूसरों को भी दी। संसार में अधिक संख्या निहित स्वार्थों से ग्रसित संकीर्ण लोगों की होती है, वे ऐसे सत्य को सहन नहीं कर पाते जो उनकी मान्यताओं से भिन्न हो। सत्य का प्रतिपादन करने के अपराध में उन्हें विरोध और निन्दा का सामना करते रहना पड़ा। शूद्र समझे जाने वाले वंश में उत्पन्न होना भी एक जन्मजात अपराध की तरह उन्हें तथाकथित पण्डितों का कोप भाजन बनाये रहा। पर इससे क्या? सचाई का सूर्य चमकता ही रहा। उस पर धूलि उड़ाने वाले अपनी दुरभिसन्धियों में कृतकार्य न हो सके। विवेकशील जौहरियों ने उनकी परख तब भी की थी और सन्त नामदेव ऊँचे सन्त महात्माओं की श्रेणी में अब भी विद्यमान हैं। वे आज शरीर समेत भले ही न हों पर यह सन्देश तो देते ही रहेंगे कि आदमी बदल सकता है, उसे बदलना चाहिए। जब दुर्दान्त दस्यु से कोई व्यक्ति उच्च श्रेणी का सन्त बन सकता है तो गुण कर्म स्वभाव के साधारण परिवर्तनों में तो किसी मनस्वी व्यक्ति को कुछ भी कठिनाई न होनी चाहिए।

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