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Magazine - Year 1964 - Version 2

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भय का कारण और निवारण

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डर का सबसे बड़ा कारण है अज्ञान। जिसे हम ठीक तरह नहीं जानते उससे प्रायः डरा करते हैं। सृष्टि के आरम्भ में आदिम मनुष्य सूर्य, चन्द्र, समुद्र, बादल, बिजली, नदी, पर्वत, आँधी, आग, सर्प का स्वरूप ठीक तरह समझ न पाया था, इसलिए चेतना विकास के प्रथम चरण में उनकी स्थिति शक्ति और मर्यादा की समुचित जानकारी न थी, फलस्वरूप उनसे डर लगा। देवता के रूप में उन्हें कल्पित किया गया और अनेक पूजा विधाओं से उन्हें संतुष्ट करने का प्रयत्न किया गया ताकि वे अपना कोई अहित न करें। मृत्यु के उपराँत का जीवन अभी भी रहस्यमय है पर पूर्वकाल में वह और भी रहस्य बना हुआ था। इस अज्ञान ने प्रत्येक मृतक को भूत प्रेत की मान्यता प्रदान कर दी और आकस्मिक दुर्घटनाओं विपत्तियों एवं बीमारियों का मूल कारण विदित न होने से उन्हें भूत की करतूत समझ लिया गया। प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य की मनोभूमि का अधिकाँश भाग इन देवताओं और भूतों का सन्तोष समाधान करने में ही व्यतीत होता था।

ज्ञान का जैसे-जैसे विकास हुआ वे भय छूट गए। बीमार होते ही भूत को बलि चढ़ाने की तैयारी ही जिनके मस्तिष्क में एकमात्र उपाय सूझता हो ऐसे लोग अब बहुत थोड़े हैं, जो हैं वे सभ्य समाज में उपहासास्पद माने जाते हैं। इसी प्रकार अलग-अलग सत्ता वाले, एक दूसरे से लड़ने झगड़ने और ईर्ष्या, द्वेष करने वाले देवताओं के स्थान पर अब इन्हें एक ही ईश्वरीय शक्ति के विभिन्न काम माना जाने लगा है। ग्रह-नक्षत्रों की विद्या की सही जानकारी जैसे-जैसे बढ़ रही है वैसे-वैसे शनि और राहु की अनिष्टकर ग्रह दशा का आतंक समाप्त होता चला जा रहा है।

अधिकाँश भय अवास्तविक होते हैं। साँप से आमतौर से लोग डरा करते हैं पर सही बात यह है कि केवल सत्तरह प्रतिशत साँप ही ऐसे होते हैं जिनमें मारक विष रहता है। यह वास्तविकता जिन्हें विदित होती है, जो साँपों के स्वभाव की गहरी जानकारी रखते हैं वे उनसे जरा भी नहीं डरते वरन् कई बार तो उनसे अपना मनोरंजन लाभ भी करते हैं। सरकस के कर्मचारी खूँखार जानवरों के बारे में अधिक जानकारी होने के कारण उनसे डरना तो दूर उलटा अचरज भरे काम कराते रहते हैं। घने जंगलों में सिंह व्याघ्रों के बीच निवास करने वाले आदिवासी उनसे जरा भी नहीं डरते बल्कि आँख-मिचौनी खेलते रहते हैं जब कि सामान्य लोगों को सिंह, व्याघ्र की बात सुनने से ही डर लगने लगता है।

अजनबी आदमी को देखकर तरह-तरह की आशंकायें मन में उठती हैं पर जब उसका पूरा परिचय हो जाता है। तो पूर्व आशंका मित्रता में बदल जाती है। अन्धेरे में जाते हुए डर केवल इसलिए लगता है कि वहाँ क्या हुआ होगा इसकी जानकारी न होने से चित्त में अनेक तरह की डरावनी बातें उठती हैं। नदी में थोड़ा पानी होने पर भी अनजान आदमी उसमें प्रवेश करते हुए दुर्घटना से सशंकित रहता है। सही जानकारी होने पर डर सहज ही दूर होता है। प्रकाश में तो सुनसान में जाते हुए और नदी के उथले पानी का सही पता लगाते हुए उसमें प्रवेश करते हुए किसी को कोई झिझक नहीं होती।

इस संसार में लगभग सारे डर अज्ञानमूलक हैं। हानि, घाटा, दुर्घटना, असफलता, आक्रमण, दुर्भाग्य, ग्रहदशा, भूत आदि की आशंका से जितना डरा जाता है वस्तुतः उसका सौवाँ भाग भी वास्तविक नहीं होता। अज्ञान ही कायरता या भीरुता का रूप धारण कर मनुष्य को भयभीत करता रहता है। जिसे जितना वास्तविक ज्ञान है वह उतना ही निर्भय रहेगा। तत्वज्ञानी की पहचान यह है कि वह पूर्णतया निर्भय हो। ज्ञान की उपासना को आध्यात्म मार्ग का प्रथम सोपान इसीलिए माना गया है कि उसके आधार पर मनुष्य सब प्रकार के भय और संशयों से छुटकारा पाकर अभीष्ट लक्ष्य की ओर अपनी मानसिक शक्तियों को लगा सकने में समर्थ होता है। वह अज्ञानी जिसे अनेक प्रकार के भय सताते रहते हैं अपनी मानसिक क्षमता का अधिकाँश भाग उसी गोरख-धन्धे में खो बैठता है फिर आत्म-कल्याण जैसे श्रेष्ठ कार्य के लिए उसके पास मनोबल बचेगा ही कैसे?

ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होने से मनुष्य संसार की हर वस्तु का स्वरूप समझ जाता है, तब उसे उनमें डरने लायक कुछ भी कारण दिखाई नहीं पड़ता। निर्भीक लोग उन परिस्थितियों में भी हँसते, प्रसन्नचित्त रहते ओर मानसिक सन्तुलन बनाये रहते देखे जाते हैं, जिनमें कि साधारण मनुष्य आशंकाओं और कुकल्पनाओं से भयभीत होकर किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाते हैं। संसार के महापुरुष एवं राजनेता अगणित महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों और अशुभ संभावनाओं से घिरे रहते हैं। समस्याओं का हल वे सोचते हैं और जो सम्भव है वह करते हैं पर यह होता तभी है जब मानसिक संतुलन को सही रखने की, उत्तेजित न होने की क्षमता विद्यमान हो। श्रेष्ठ और निकृष्ट व्यक्तियों में धैर्य और अधीरता का ही अन्तर रहता है। जिसने इस संसार को एक नाटक मात्र समझ लिया है वह अपना सर्वोत्कृष्ट अभिनय करने मात्र का ध्यान रखता है। जैसी परिस्थितियाँ आती हैं उनके अनुरूप परिवर्तन करने और ढलने की क्षमता जिसने संपादित कर ली वे संसार को, समस्त परिजनों को, एक क्रीड़ा कौतुक मात्र समझते हैं। डरना उन्हें मानवीय दुर्बलता और अज्ञान का एक उपहासास्पद कारण प्रतीत होता है। जो डरते हैं वे कर कुछ नहीं पाते। डर के मारे अधमरे बने रहने वाले, आशंकाओं और संशयों से उद्विग्न रहने वाले व्यक्ति तो अर्ध मूर्छित, अर्ध मृतक स्थितियों में पड़े हुए निकृष्ट और असफल जीवन ही किसी प्रकार पूरा करते हैं।

जिसे अपनी शक्ति का सही ज्ञान होता है वह उतने बड़े कदम उठाता है जो अपनी सामर्थ्य और मर्यादा के अंतर्गत हो। शेखचिल्ली इसलिए असफल हुआ कि वह अपनी अर्थ-व्यवस्था के क्रमिक विकास और योजनाओं की पूर्ति में लगने वाले समय और श्रम के बारे में भ्रम-ग्रस्त बना रहा। किस सफलता के लिए कितनी तैयारी, मेहनत और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी यह जानकर कोई व्यक्ति अपनी गतिविधियों को निर्धारित करे तो उसे कदाचित ही कभी असफलता का मुंह देखना पड़े।

बड़े से बड़ा भय मृत्यु का होता है पर यदि उसे वस्त्र परिवर्तन जैसी जीव के लिए भूत काल में करोड़ों बार घटित हुई एक सामान्य प्रक्रिया मान लिया जाय तो मरने का अवसर आने पर भी मनुष्य अपना साहस बनाये रह सकता है। मृत्यु के संघर्ष में भी देर तक लड़ सकता है। कम से कम शान्तचित्त से ईश्वर का नाम लेते हुए तो मर ही सकता है। मृत्यु के संघर्ष में भी देर तक लड़ सकता है। कम से कम शान्तचित्त से ईश्वर का नाम लेते हुए तो मर ही सकता है। मृत्यु का स्वरूप ठीक तरह समझ में न आने से ही त्रास मिलता है अन्यथा मृत्युदण्ड की आज्ञा सुनकर फाँसी लगने के दिन तक खुशी से सत्तरह पौण्ड वजन बढ़ा लेने वाले क्रान्तिकारियों के उदाहरण सुनने को क्यों मिलते ?

उचित अनुचित का विवेक जागृत होने पर भी मनुष्य निश्चिंत हो सकता है। उसके सामने लक्ष्य और मार्ग स्पष्ट रहने से न तो उलझन रहती है और न परेशानी। हवा में उड़ते हुए पत्ते की तरह जो चारों ओर मन डुलाता है उसे सफलता असफलता का भय बना ही रहता है। सच्ची निर्भयता उसे मिलती है जिसके सामने अपनी कर्तृत्व ही प्रधान है। परिणाम को अधिक महत्व देने वाला व्यक्ति असफलता को न तो अधिक महत्व देता है और न उससे डरता है।

ईश्वर विश्वास निर्भयता का सर्वोपरि उपाय है। पुलिस गारद के पहरे से रहने वाले को जब आक्रमणकारी शत्रुओं से निश्चिन्तता मिल जाती है, सुरक्षा अनुभव होती है तो सर्वशक्तिमान परमात्मा को अपना साथी सहचर बना लेने वाले के लिए डरने की गुंजाइश कहाँ रह जाती है? जिसने धर्म को अपना आधार बना लिया उसका भविष्य अन्धकारमय हो ही नहीं सकता फिर किसी से भी डरने की ऐसे व्यक्ति के लिए बात ही क्या रह जाती है।

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