
स्वास्थ्य के लिए कोष्ठ-शुद्धि की आवश्यकता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
स्वास्थ्य में खराबी का प्रमुख कारण आमाशय में दूषित मल का ढेर जमा हो जाना है। आहार के असंयम और पेट की आवश्यक सफाई के अभाव में आँतों में काफी बड़ी मात्रा में सञ्चित मले एकत्रित हो जाता है। इससे पाचन क्रिया शिथिल पड़ जाती है। दूसरे यही मल-विकार शरीर के दूसरे अंगों में चला जाता है तो किसी न किसी रोग के रूप में फूट निकलता है। चाहे पाचन प्रणाली की कमजोरी हो अथवा दूसरा रोग, स्वास्थ्य की खराबी का पहला कारण पेट की खराबी या पेट में दूषितमल का इकट्ठा हो जाना ही है।
“दि न्यू हाइजिन” में विद्वान लेखक जे. डब्ल्यू विल्सन ने अपनी पुस्तक में एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है, इससे कोष्ठबद्धता या आँतों में मल जमा हो जाने का सही अनुमान हो जाता है।
पुस्तक में लिखा है “एक बार अमेरिका के डाक्टरों ने मलाधार में सञ्चित मल की अवस्था की पूर्ण तत्परता के साथ खोज की। इसके लिए उन्होंने पर्याप्त समय लगाकर 284 शवों की परीक्षा की। यह शव विभिन्न रोग के रोगियों के थे। डाक्टरों ने देखा कि इनमें से 256 शवों की बड़ी आँतें सड़े हुए मल से भरी हुई थीं। उनमें से कई का मलाधार मल से भरकर फूल जाने के कारण दुगुना तक हो गया था। कई शवों में यह मल इतना सूख गया था कि मलाधार के साथ चिपककर स्लेट के समान कठोर हो गया था। इससे किसी भी रोगी का मलत्याग स्थगित नहीं हुआ था यह बड़े आश्चर्य की बात है। इस सूखे हुए मल को तराशा गया तो उसके अन्दर छोटे बड़े कई प्रकार के रोगों के कीड़े पाये गए। कहीं-कहीं, इन कीटाणुओं के अण्डे भी मिले। कई जगह ऐसा हुआ था कि इन कीटाणुओं ने मल की दीवार पार कर ली थी और माँस में प्रवेश कर गये थे जिससे वहाँ घाव पड़ गये थे।”
यही कीटाणु जब उन घावों से होकर माँस या रुधिर-संचार के मार्ग में पहुँच जाते हैं तो वह सारे शरीर का दौरा करते हुए जहाँ अनुकूल स्थिति देखते हैं वहीं अपना अड्डा जमा लेते हैं। यह स्थल प्रायः शरीर के मर्म स्थल होते हैं जहाँ खून के जीवाणु बड़े हल्के होते हैं। इन जीवाणुओं को परास्त कर रोग के कीटाणु जहाँ अपना अड्डा जमा लेते हैं वहीं किसी बीमारी के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
जो नियमित रूप से मलत्याग करते रहते हैं उन्हें यह न समझ लेना चाहिए कि उनका पेट इन कीटाणुओं से अथवा इस सड़े मल से सुरक्षित है। डाक्टरों का मत है कि सामान्य अवस्था में भी तीन सेर से लेकर पाँच सेर तक यह संचित मल लोगों के पेट में होता है। जिसकी प्रायः सभी लोग उपेक्षा ही किया करते हैं।
इससे स्नायविक दुर्बलता तथा पेडू के विभिन्न रोग उठ खड़े होते हैं। मूत्राशय की सूजन तथा मधुमेह आदि का कारण यह कोष्ठबद्धता ही है। विषैले रक्त प्रवाह के कारण त्वचा और शरीर के दूसरे रोग भी इसी के कारण होते हैं। सर्दी, सन्धिवात, अकाल, वार्धक्य, मधुमेह, गठिया, दृष्टिहीनता, बहरापन, अन्त्रपुच्छ, बवासीर, प्रदाह अन्तड़ी का घाव, आँत के आँव की संयुक्त अवस्था, स्त्रियों में शीघ्र वृद्धापन—मासिक धर्म की गड़बड़ी, रजमष्ट और श्वेतप्रदर आदि की बीमारियाँ भी इसी कारण से होती हैं। वास्तव में रोग का कारण अनेक नहीं एक ही है। और वह यह संचित मल की सड़ाँद से उत्पन्न विजातीय पदार्थ है। स्थान, अवस्था और शारीरिक स्थिति के अनुसार ही वह अनेकों रूपों में परिलक्षित होता है। जैसे आटे से रोटी, पूड़ी, हलुवा आदि कई प्रकार के व्यंजन बना लेते हैं उसी प्रकार प्रत्येक अवस्था में रोग और स्वास्थ्य की खराबी का कारण भी यही कोष्ठबद्धता है।
स्थायी तौर पर इस बात का पता लगाने के लिए एक बार डाक्टरों ने 80 घण्टे तक एक व्यक्ति को टट्टी नहीं जाने दिया। फलस्वरूप उसका पेट फूलने लगा, सिरदर्द जी मिचलाना, चक्कर आना, निद्रा आदि के अनेक उपद्रव उठ खड़े हुए। बाद में डूस देकर जब उसका मल साफ किया गया तो उसे पुनः पहले जैसी स्वच्छ अवस्था प्राप्त हुई। विषैली प्रतिक्रिया मल संचय से होती है।
बाजार की औषधियों से भी जुलाब लेने पर यही हानि होती है। दवाओं का प्रभाव सीधे पाचक रसों और अम्लों पर पड़ता है जिससे पेट की सशक्तता मारी जाती है यहाँ तक कि कुछ दिनों के नियमित जुलाब लेने से फिर जुलाब भी एक आवश्यक कर्म बन जाता है अर्थात् स्वाभाविक तौर पर मलत्याग की क्रिया बहुत शिथिल पड़ जाती है।
कोष्ठबद्धता का सबसे सरल उपचार कटिस्नान है। किसी टब में पानी भर नाभि के नीचे और मोटी जाँघ का तक हिस्सा कुछ देर नियमित रूप से शीतल जल में रखने से सारे शरीर का खून आँतों की ओर खिंच जाता है जिससे आँतें सशक्त होती हैं और मल-त्याग की स्वाभाविक क्षमता प्राप्त कर लेती हैं। कई व्यक्तियों के पेडू में बड़ी गर्मी होती है। इससे मल में जो रस होता है वह पेडू सोख लेता है और मल सूखकर आँतों से चिपक जाता है। कटिस्नान से पेडू की गर्मी जल में चली जाती है और मल सरलतापूर्वक निकल जाने में आसानी हो जाती है। इसके लिये कटिस्नान करते समय पेट को दाँये से बाँये रगड़ते रहना चाहिये ताकि मल हलका होकर मलद्वार की ओर खिसक जाय। मूत्राशय, जरायु, कोष्ठ कठोरता, बवासीर आदि में यह स्नान बड़ा लाभदायक होता है।
पेट की सफाई का दूसरा साधन एनिमा है। दूसरी सभी क्रियाओं से एनिमा की क्रिया अधिक सरल है। मुँह से जो पानी पेट में पहुँचाया जाता है उसका सीधा प्रवाह होता है जिससे यह जल मल के बीच से होकर गुजर जाता है और बहुत ही थोड़े भाग को प्रभावित कर पाता है। किन्तु विपरीत दिशा से जल पहुँचाने से यह जल मल की गाँठों को काटता हुआ ऊपर को चढ़ता है। इससे सरलतापूर्वक मल आँतों को छोड़ देता है। कुछ दिन नियमित रूप से एनिमा का प्रयोग करने से पुराना बहुत दिन का जमा हुआ सूखा मल भी कोमल बनकर बाहर निकल जाता है। इससे आँतों को कटि-स्नान वाली शीतलता भी आसानी से प्राप्त हो जाने से दोहरा लाभ होता है। इस दृष्टि से एनिमा का उपयोग अधिक लाभदायक माना जाता है। इसमें पाचन रसों के क्षय की आशंका नहीं रहती।
एनिमा का प्रयोग करते समय दायें बाँये और उकड़ूं तीनों प्रकार से पेट में जल पहुँचाने से सभी तरफ का मल आँतों को छोड़ कर पानी के साथ मिलकर सुविधापूर्वक बाहर निकल जाता है। नींबू जैसी कोई क्षार-युक्त वस्तु मिलाने से इस क्रिया में और भी लाभ होता है।
प्राकृतिक तौर पर कोष्ठबद्धता निवारण और पेट की सफाई के लिये उपवास एक बड़ा ही महत्वपूर्ण साधन है। एक या दो उपवास, रहने से यह देखा जाता है कि मुख में थूक आना, जी मिचलाना, चक्कर अनिद्रा, मुँह से बाहर निकलने वाली साँस में बदबू आदि तीव्रता से उठने लगती है। इससे यह पता चलता है कि पेट की सारी पाचन प्रणाली उपवास के समय अपनी सफाई की क्रिया प्रारम्भ कर देती है। इससे जमी हुई गन्दगी उखड़ती है। यही दुर्गन्ध और सड़न ही मुँह, नाक थूक आदि के द्वारा बाहर निकलती है।
शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास का महत्व इसलिए अधिक है कि इससे मल स्वाभाविक तौर पर बाहर निकल जाता है और कुछ दिन के विश्राम से पाचन प्रणाली फिर से प्रचण्ड हो जाती है। इस शक्ति में इतनी नवीनता आ जाती है कि उपवास के बाद स्वास्थ्य का बड़ी शीघ्रता से सुधार होता है। किन्तु यह उपवास सदैव ही विवेकपूर्ण होने चाहिएं।
अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार ही लंबे या आँशिक उपवास लाभदायक होते हैं। उपवास-भंग के समय भी पर्याप्त सावधानी की आवश्यकता करनी पड़ती है। उतावली और जल्दबाजी से इसका अहितकर प्रभाव पड़ सकता है इसलिए उपवास के लिये सबसे पहले किसी जानकार व्यक्ति से पूरी सलाह लेकर ही इसका उपयोग करना अच्छा होता है। पर एक-दो दिन के सरल उपवास-एक पहर के आँशिक उपवासों का लाभ सभी लोग आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।