
प्रकृति की चोरी
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काँग्रेस कार्यकारिणी की मीटिंग में सम्मिलित होने, एक बार गाँधीजी इलाहाबाद आये और पं0 मोती लाल नेहरू के यहाँ आनन्द भवन में ठहरे। सवेरे नित्य कर्म से निवृत्त होकर गाँधीजी हाथ मुँह धो रहे थे और जवाहरलाल नेहरू पास खड़े कुछ बातें कर रहे थे। कुल्ला करने के लिए गाँधीजी जितना पानी लिया करते थे वह समाप्त हो गया तो उन्हें दूसरी बार फिर पानी लेना पड़ा।
इस पर गाँधीजी बड़े खिन्न हुए और बात चीत का सिलसिला टूट गया। जवाहरलालजी ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा—ध्यान न रहने से मैंने पहला पानी अनावश्यक रूप से खर्च कर दिया और अब मुझे दुबारा फिर लेना पड़ रहा है। यह मेरा प्रमाद है।
पं0 नेहरू हंसे और कहा—यहाँ तो गंगा-जमुना दोनों बहती हैं। रेगिस्तान की तरह पानी कम थोड़े ही है आप थोड़ा अधिक पानी खर्च कर लें तो क्या चिन्ता की बात है।
गाँधी जी ने कहा—गंगा-जमुना मेरे लिए ही तो नहीं बहतीं। प्रकृति में कोई चीज कितनी ही उपलब्ध हो, मनुष्य को उसमें से उतना ही खर्च करना चाहिए जितना उसके लिए अनिवार्यतः आवश्यक हो। ऐसा न करने से दूसरों के लिए कमी पड़ेगी और वह प्रकृति की एक चोरी मानी जायगी।