
धर्म राज्य के प्रसारकर्ता-सम्राट अशोक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सम्राट अशोक को कलिंग का भयानक युद्ध लड़ना पड़ा। विजय उन्हीं की हुई पर उसमें जो नरसंहार हुआ, सहस्रों बालकों और विधवाओं को जो व्यथा वेदनाएँ सहनी पड़ीं उनसे सम्राट की अन्तरात्मा रो पड़ी। उनने सोचा जितना श्रम, जितना धन, जितने साधन, जितना पुरुषार्थ, अहंकार और स्वार्थ की पूर्ति के लिये आरम्भ किये गए इन निकृष्ट कार्यों में व्यय किया जाता है उतना यदि रचनात्मक कार्यों में लगाया जा सके तो उससे मानवीय सुख-शान्ति प्रगति और समृद्धि में कितना बड़ा योग मिल सकता है?
वास्तविकता भरे विचार अशोक की श्रद्धा के रूप में परिणत होते गये और अन्त में उनने यही निश्चय किया कि उन्हें जो शक्ति और स्थिति मिली है उसे व्यर्थ कामों में नहीं, स्वार्थपूर्ण कार्यों में भी नहीं, केवल विश्व-मानव की सेवा में ही प्रयुक्त करेंगे। परमात्म का का दिया हुआ वैभव उन्हीं के चरणों में समर्पित कर देना, सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। इसी से वह अनुदान चिरस्थायी हो सकता है।
राज्य प्राप्त होने के नौवें वर्ष में उन्होंने बौद्ध धर्म की महत्ता को समझा और उसी के प्रसार में अपने सभी साधन प्रयुक्त करने आरम्भ कर दिये। यों लोग अपने धन, वैभव का एक छोटा अंश दान देकर यश लूट लेते हैं और पुण्य कमा लेने का सन्तोष भी कर लेते हैं वस्तुतः वह विडम्बना मात्र ही होती है। जिस कार्य को मनुष्य श्रेष्ठ समझे उसके लिए सर्वतोभावेन लगे, निर्वाह मात्र की अपने लिए व्यवस्था करके शेष को अपने प्रिय लक्ष्य के लिए समर्पित करे तो ही किसी को आस्थावान कहा जा सकता है। संसार में जितने आस्थावान महापुरुष हुए हैं उनने अपने प्रिय लक्ष्य के लिए सर्वस्व अर्पण करके ही सन्तोष प्राप्त किया है। सच्चे आदर्शवादी की तरह अशोक के सामने भी वही मार्ग शेष था।
जिस धर्म के प्रति अशोक की आस्था थी वह भले ही बौद्ध धर्म के रूप में अशोक के सामने आया हो पर था वस्तुतः मानवधर्म ही। उनके शिला लेखों में धर्म की विवेचना इस प्रकार मिलती है—अपासिनये। (सदाचरण) बहुकयाने (बहुजन कल्याण) सचे (सत्य) सोचये (पवित्रता) मादवे (मृदुता) अनिरभो प्राणाँन (प्राणियों को पीड़ा न देना) अविहिंसा भूतानं (जीवमात्र के साथ अहिसा का व्यवहार) मातरि पितरि सुश्रूषा (माता पिता की सेवा) गुरुनं अपचिति (गुरुजनों का समादर) मित संस्तुत नातिकानं, सम्बंधियों, ब्राह्मण और साधुओं की सहायता) अपव्ययता (कम खर्च करना) तथा अपमाडता (संग्रह न करना) इन्हीं सिद्धान्तों को बौद्धधर्म के अवतरण के पीछे अशोक ने देखा और उनका आरम्भ कर दिया।
यों सभी धर्मों के मूल में थोड़े हेर-फेर के साथ यही आदर्श सन्निहित हैं पर मानव जाति का दुर्भाग्य ही कहिए कि बाह्य कर्मकाण्ड और रीति रिवाजों को ही लोग धर्म समझते रहते हैं और उसमें भिन्नता देखकर परस्पर लड़ने झगड़ने लगते हैं। यदि बाह्य आवरणों को देशकाल पात्र की सुविधा व्यवस्था के रूप में देखा जाय और उन्हें गौण समझा जाय तो सभी धर्मों के मूल में एक ही तत्व—सदाचार अवस्थित मिलेगा। वस्तुतः सदाचार का दूसरा नाम ही धर्म है। अशोक इसी धर्म के प्रति आस्थावान् थे और उसी का उन्होंने प्रसार किया।
अशोक ने अपने राज्य में धर्म भावनाओं को बढ़ाने सदाचारी जीवन बिताने की प्रजाजनों को प्रबल प्रेरणा की और अधार्मिक अवाँछनीय तत्वों के उन्मूलन में तनिक भी शिथिलता न दिखाई। इतिहास मर्मज्ञ एच0जी0वेल्स ने लिखा है—संसार के सर्वश्रेष्ठ सम्राट तथा इनके 28 वर्ष के राज्यकाल को मानव-जाति के क्लेशपूर्ण इतिहास का सर्वोत्तम समय कहा जा सकता है।’ उन्होंने मनुष्यों के लिए ही नहीं पशु-पक्षियों के लिए भी न्याय का अधिकार पाने की व्यवस्था की।
कालसी (देहरादून) चितालद्रुग (मैसूर) वेर्रागुदी (मद्रास) मानमेहरा (हजारा) शहबाजगढ़ी (पेशाबर) जूनागढ़ (सौराष्ट्र) धौली (पुरी) ज्यौगडा (गंजाम) आदि स्थानों में जो शिलालेख मिले हैं उनसे प्रतीत होता है कि अशोक ने धर्म और सदाचार के प्रति मानव प्रवृत्तियों को मोड़ने के लिए भारत ही नहीं संसार भर में विद्वान धर्म प्रचारक भेजे, उनका व्यय-भार वहन किया, धर्म-ग्रन्थ लिखाये, पुस्तकालय स्थापित किये, विद्यालय खोले, सम्मेलन बुलाये और वे सब काम बड़ी रुचि-पूर्वक किए जिनसे धर्म-बुद्धि अपनाने की जन-प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले। राज्य-कोष का विपुल धन उन्होंने इन्हीं कार्यक्रमों में लगाया।
सिकन्दर सरीखे अनेकों राजा और कारुँ जैसे धन कुबेर अनेकों इस पृथ्वी पर हो चुके हैं पर लोभवश वे अपने प्राप्त साधनों को स्वार्थ की संकीर्ण परिधि में ही बाँधे रहे। फलस्वरूप न अपना हित कर सके न दूसरों का, अशोक ने परमार्थ बुद्धि का आश्रय लेकर अपने शासन के केवल 28 वर्षों में वह कार्य कर दिखाया जिससे अनन्त काल तक उनकी धर्मबुद्धि को सराहा जाता रहेगा।
अशोक को यात्राओं का शौक था। प्रथम आठ वर्षों में ये विनोद यात्राएँ, विलासिता, हास परिहास, जिह्वा स्वाद मद्य माँस नृत्य वाद्य, जादू कौतुक, आखेट आदि के कार्य-क्रमों के साथ चलती थीं। धर्म दीक्षित सम्राट ने अब इन यात्राओं को धर्म प्रचार के निमित्त की जाने वाली तीर्थ यात्राओं में बदल दिया। वे बोधि वृक्ष दर्शन के लिए गये। साँची स्तूप के पूर्व द्वार पर रानी तिष्यरक्षिता समेत अशोक की बोधियात्रा का उल्लेख अंकित है। उनने अपने सभी प्रधान शासकों को आदेश दिया कि अपने क्षेत्रों में दौरा करके एक धर्म प्रचारक की तरह उपदेश दिया करें तथा धर्म बुद्धि एवं अधर्म-उन्मूलन के लिए आवश्यकतानुसार स्थानीय व्यवस्था किया करें। धर्म सेवकों की निर्वाह व्यवस्था पर पूरा ध्यान दिये जाने को वे राज्य कर्तव्य मानते थे, अतएव उन दिनों उच्चकोटि के धर्म सेवी भारत में मौजूद थे और वे अपने प्रकाश को एशिया के विभिन्न देशों तक फैलाने में लगे हुए थे।
उस काल की उपलब्ध जानकारी से विदित होता है कि अशोक ने माँसाहार को निषिद्ध ठहराकर प्राणिमात्र की हिंसा बन्द कर दी थी। पशु एवं मनुष्यों के लिए चिकित्सालय खुलवाये। रास्तों के सहारे वृक्ष लगवाए, कुँए खुदवाए, जेलों की दशा सुधारी, न्याय सरलतापूर्वक मिल सके ऐसी व्यवस्था की। प्रजाजनों में परस्पर सद्-भाव पैदा करने के लिए उन्होंने निरन्तर प्रयत्न किया।
अशोक के धर्म प्रचार से प्रभावित होकर भारत और लंका में ही नहीं मिश्र, सीरिया, मेसीडोनिया, ऐपिरस, किरीन गान्धार, तिब्बत, बर्मा, मलाया, जावा, सुमात्रा वाली, इन्डोनेशिया, जापान, चीन, रूस, ईरान आदि देशों की जनता ने भी उत्साहपूर्वक बौद्धधर्म स्वीकार किया। प्रत्येक देश में एक मुख्य प्रचारक चार उप प्रचारक और उनके साथ तीस-तीस धर्म प्रचारकों के दल भेजे गये थे। महेन्द्र, संघमित्रा, मज्झिम, कस्सपगोत्र, दुण्डुमिस्सर आदि धर्म प्रचारकों के अवशेष पुरातत्ववेत्ता कनिंघम को सोनी के समीप मिले थे, साथ में जो अंकन उपलब्ध हुए उनसे विदित होता है कि वे विदेशों में धर्म प्रचार करते थे।
कितने ही चक्रवर्ती शासकों ने अपने राज्य संसार में दूर-दूर तक फैलाने में सफलता प्राप्त की पर अशोक की धर्मराज्य विस्तार योजना सबसे अनुपम थी। राजाओं के राज्य उनके मरते ही बिखर गये पर अशोक द्वारा स्थापित किया हुआ धर्मराज्य आज भी बौद्धधर्म के रूप में संसार में विद्यमान है। ईसाई और मुसलमानों के अतिरिक्त आज भी जनसंख्या की दृष्टि से बौद्ध-धर्म का ही तीसरा नम्बर है। हिन्दू तो चौथे नम्बर पर आते हैं।
अशोक की नीति का थोड़ा-सा अनुगमन करके ईसाई धर्मावलम्बियों ने गत एक हजार वर्षों में लगभग आधी दुनिया को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया है पर हिन्दू—अभागे हिन्दू—अभी भी कुम्भकर्णी निद्रा में पड़े हैं। वे संसार को धर्मराज्य के अंतर्गत लाने की बात सोचना तो दूर स्वधर्मावलम्बियों को भी दूर-दूर कर पराये बनाने में अपना बड़प्पन समझते हैं। अशोक की आत्मा इन्हें न जाने क्या-क्या कहकर कोसती होगी।