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Magazine - Year 1964 - Version 2

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युग चारण-एलेक्जेण्डर पुश्किन

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कवि कई तरह के होते हैं। कुछ ऐसे तुक्कड़ होते हैं जिनका काम छन्द गढ़ कर लोगों को सुना देना और अपनी विशेषता की वाहवाही लूट लेना मात्र होता है। कुछ ऐसे होते हैं जो मनुष्य के भीतर रहने वाले पशु को उभार-उभार कर बाहर लाते हैं और उस बदबू से वातावरण को गन्दा करते रहते हैं। अनियन्त्रित उच्छृंखल काम वासना अनेक गन्दी नालियों में होकर बहती है उन्हीं में से एक नाली ऐसी कविता भी है। विकार और वासनाएं भड़काने के अनेक हेय मार्ग मनुष्य ने ढूँढ़ निकाले हैं, विचारशील लोग उन्हें अश्लील और घृणित ठहराते हैं। कविताएं भी इस श्रेणी की होती हैं। फूहड़ लोग गन्दी भाषा में अपने भाव व्यक्त करते हैं। इसलिए उन्हें कुत्सित और बाजारू कहते हैं। पर कुछ सुशिक्षित ऐसे भी होते हैं जो अच्छे शब्दों की आड़ में यही काम करते हैं और अपनी कृतियों को ‘कला’ बताते हैं। कह नहीं सकते यदि वासनाओं को भड़काने वाली इन कुत्सित रचनाओं को भी माता सरस्वती की साधना, कला मान लिया जाय तो फिर वाणी का व्यभिचार किसे कहा जा सकेगा? मध्य काल के सामन्तवादी युग में भारत की तरह अन्य देशों में भी रीति-काव्य और नायिका-भेद का बोलबाला रहा है पर जब मानवीय चेतना ने सत्य को खोजने और उपयुक्त को ग्रहण करने की आकाँक्षा जागृत की तो इस तरह की कृतियाँ अनुपयुक्त ही मानी जाएंगी।

कवि मानवता का प्रतिनिधि होता है, वह सत्यं शिवं सुन्दरम् की आराधना करता है और यही कहता लिखता एवं गाता है जिससे अनुचित का शमन और उचित का अभिवर्धन हो। जो घृणित है उसी को उछालने से विश्व मानव को कुरूप ही बनाया जा सकता है कोई सच्चा कवि ऐसी धृष्टता नहीं कर सकता। करेगा भी तो कम से कम उसे ‘कला’ तो नहीं ही कहेगा। जो ‘कला’ मानवता के शृंगार में प्रयुक्त हो उसी को तो सार्थक माना जा सकता है। रूस के महाकवि ‘पुश्किन’ ऐसे ही कलाकार थे। उनने अपने युग की पीड़ा को छन्दबद्ध करके मानवीय अन्तःकरण तक पहुँचाने का प्रयत्न किया है। कोई ईमानदार कलाकार इसके अतिरिक्त और कर भी क्या सकता है।

रूस उन दिनों नेपोलियन के आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षा की लड़ाई लड़ रहा था। सेन्ट पीटर्सबर्ग में शिक्षा पाने वाले इस युवक पर तत्कालीन परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा और उसने अपने देश को अधिक समर्थ एवं बलवान बनाने की ठानी। पुश्किन ने देखा उसमें कवित्व मौजूद है और मनुष्य अपनी उपलब्ध किसी भी विशेषता को समाज के लिए समर्पित करके मानवता की बहुमूल्य सेवा कर सकता है उन्होंने अपने कवित्व को समाज सेवा में लगा डालने की योजना बनाई और नियमित रूप से रचनात्मक कविताएं लिखने लगे।

पुश्किन ने देश भ्रमण किया और देखा कि निरंकुश शासन के विरुद्ध जनता में घोर असन्तोष व्याप्त है। और वह अपने मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए बेचैन हो रही है। उत्साही युवक शासन का तख्ता पलट कर जनता की सरकार बनाने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में पुश्किन ने अपना स्थान शोषित और संघर्षशील लोगों के बीच ही उपयुक्त समझा। वे कुलीन कहलाने वाले घराने में जन्मे थे। ऐसे लोग आमतौर से राज्य समर्थक होते हैं पर उनने सत्य को प्रधान समझा और कुलीनता के घेरे से निकल कर जनता के खेमे में जा मिले। अब उनकी रचनाओं में जनता का—पीड़ित और शोषित जनता का दर्द रहने लगा। उनकी कविताएं गाई जाने लगीं और जनता ने उनसे आवश्यक प्रेरणा प्राप्त की।

उन्होंने देखा कि एकाकी प्रयत्न काफी न होगा। संगठित रूप से कवि और साहित्यकार कुछ काम करें तो ही विशाल देश का जन-मानस प्रबुद्ध बनाया जा सकेगा। अस्तु वे साहित्यिकों के संगठन कार्य में लगे और कवियों तथा लेखकों की एक संस्था ‘ग्रीनलेम्प’ बनाई। व्यवस्थित संगठित रूप से होने वाले सभी कार्यों की तरह नव-चेतना का साहित्यिक निर्माण करने में आशाजनक सफलता मिलने लगी। ‘रोड टू लिबर्टी’ तथा ‘दी विलेज’ नामक उनके दो काव्य बहुत लोक-प्रिय हुए जिनमें राजनीतिक उत्पीड़न के विरुद्ध जनता को संघर्ष करने के लिए प्रेरणा दी गई थी।

पुश्किन जार सरकार की आँखों में खटकने लग गये। उन्हें देश-निकाला देकर साइबेरिया भेज देने की धमकी दी गई। उस समय तो कुछ प्रभावशाली मित्रों ने मध्यस्थता करके उन्हें बचा लिया और जुर्माना देकर ही पीछा छुड़वा दिया पर आखिर ऐसे कब तक चलता। उनके प्रयत्न उग्र होते जा रहे थे। सरकार ने उन्हें निर्वासित करके दक्षिणी रूस भेज दिया। चार वर्ष के निर्वासन काल में वे काकेशस, क्रीमिया, किसेनेव तथा ओडेसा में रहे, वहाँ उन्होंने पीड़ित जनता के दुःख दर्द को और भी अच्छी तरह समझा तथा अपना कर्तव्य और भी दृढ़तापूर्वक निश्चित कर लिया। वे न तो विलासिता के लिए ललचाये और न अत्याचारों से डरे। एक ईमानदार और बहादुर इन्सान की तरह अपने समाज के पुनरुत्थान के लिए पीड़ित पद-दलित मानवता को ऊपर उठाने के लिए वे और भी अधिक दृढ़ता के साथ लग गये। हमले से कोई भी योद्धा नहीं दबता तो फिर पुश्किन ही कैसे दबते?

इस निर्वासन काल में भी उन्होंने साहित्य साधना छोड़ी नहीं, वरन् ‘दि रावर ब्रदर्स’ दी जिरासीज’ जैसे काव्य लिखे, उनमें ‘काकेशस का कैदी’ तो बहुत अधिक प्रसिद्ध हुआ। उन दिनों के शासक अलेक्जेण्डर प्रथम ने उन्हें उनके जन्म ग्राम ‘मिखाइ लोवस्कोय’ में कैद कर दिया ताकि उस छोटे दायरे में रहकर जन-संपर्क से वंचित रह जावें। इस एकान्त-वास में वे चिन्तन और मनन में संलग्न रहकर अधिक मनोबल संग्रह करते रहे और वहाँ भी उनने कुछ ग्रन्थों की रचना कर डाली।

छोटे बड़े दर्जनों महा-काव्य और साधारण कविता की पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं। नाटक और उपन्यास भी कई लिखे हैं। इन सभी रचनाओं में वह ओज आदर्श और अभाव मौजूद है जो अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करने और मानवीय पुण्यों की स्थापना में आवश्यक स्फूर्ति एवं प्रेरणा दे सके। उनके जीवन काल में भले ही उन रचनाओं को उतना सम्मान न मिला हो पर पीछे रूस ही नहीं विश्वभर में उन्हें मानवता की वकालत के रूप में सम्मान मिला। महर्षि टॉलस्टाय ने लिखा है—’पुश्किन की रचनाएं प्रत्येक लेखक को पढ़नी ही चाहिएं ताकि वह अपने लिए सही दिशा निर्धारित कर सके।”

जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने ‘दी कन्टैम्परेरी’ नामक पत्रिका भी निकाली जिससे न केवल प्रेरक विचारों का ही विस्तार हुआ वरन् पत्रिका-कला का भी एक आदर्श उपस्थित हुआ। पुश्किन आदर्श के प्रतीक थे उनका जीवन भौतिक आकाँक्षाओं से नहीं उत्कृष्टता की भावनाओं से अति ओत-प्रोत हो रहा था, ऐसी दशा में उनकी कृतियाँ भी विश्व मानव का शृंगार ही बन सकती थीं। वे रूस के नहीं समस्त विश्व के कवि माने जाते हैं और उन्हें किसी क्रान्ति के ही प्रेरक नहीं वरन् अनैतिकता के विरुद्ध छेड़े गये विश्व युद्ध का अग्रिणी नेता समझा जाता है।

महाकवि अलेक्जेण्डर पुश्किन 6 जून 1799 को मास्को में जन्मे और 10 फरवरी 1837 में एक द्वन्द्व युद्ध में मारे गये। 38 वर्ष का उनका जीवन मानवता के अमर गायक का जीवन है। इस थोड़ी-सी आयु में उनकी ज्वलंत भावनाओं ने उनसे इतना करा लिया जितना कि मुर्दों की तरह जीने वाले दस जिंदगियों में भी कर नहीं पाते।

भारत माता को पुश्किन जैसे सपूतों की आवश्यकता है। सामाजिक कुरीतियों, बौद्धिक भ्रम जंजालों, नैतिक अनास्थाओं से जर्जरित यह पवित्र भूमि आशा भरे नेत्रों से देखा करती है कि कोई अग्नि-गान का गायक इन विडम्बनाओं को भस्म कर डालने वाले गीत गाये, पर यहाँ तो ‘कला’ के नाम पर वासना, भड़काने वाली और अबूझ पहेलियाँ जैसी जंजाल भरी तुकबंदी लिखने से ही फुरसत नहीं। कवि हों तो कविता भी हो। हृदय हो तो उसमें दर्द भी उठे। निम्न स्तर के लोगों के मन की बात कहकर तुकबंदी की वाहवाही लूटने वालों को कवि के कर्तव्यों का ज्ञान कहाँ? भारत माता पुश्किन जैसे कवियों को न जाने कब अपनी कोख में जन्म देगी और न जाने उनकी कृतियों से भारतीय साहित्य को गर्व से मस्तक ऊँचा उठाने का अवसर कब मिलेगा?

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