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Magazine - Year 1965 - Version 2

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अहिंसा के अनन्य उपासक-भगवान महावीर

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युग की आवश्यकता के अनुसार भारत वर्ष में समय-समय पर अनेक धर्मों का प्रादुर्भाव हुआ है। उनके सिद्धान्तों और आदर्शों में थोड़ा बहुत अन्तर भी रहा है किन्तु वे किसी न किसी रूप में भारतीय संस्कृति को लेकर ही पनपे हैं। बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि की मान्यताएं वेदों से भिन्न अवश्य हैं पर सर्वांश में नहीं। वे सनातन धर्म के किसी अंग को ही आधार मानकर चले हैं, इसलिये उनका उपयोग और महत्व भी जन कल्याण की दृष्टि से कम नहीं है।

‘जैन धर्म’ ने यद्यपि अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व बनाया है किन्तु संस्कृति की दृष्टि से वह हिन्दू धर्म से भिन्न नहीं है। जैन लोग जीव को शाश्वत मानते हैं। उनका विश्वास है कि जीव को अपने कर्मों के अनुसार अच्छे या बुरे फल भोगने पड़ते हैं। अहिंसा को वे प्रमुख मानते हैं और मोक्ष प्राप्ति के लिये वैराग्य को सबसे उपयुक्त साधन मानते हैं। सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चरित्र में उनका विश्वास है। हिन्दू धर्म की मान्यताएं भी प्रायः यही हैं।

जैन धर्म के प्रवर्तक और उसके धर्म नेता को “तीर्थंकर” के विशिष्ट नाम से पुकारा जाता है। इस शृंखला के 24 वें और अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर हुये हैं।

भारतवर्ष में एक समय ऐसा आया जब यहाँ के लोगों में आध्यात्मिक आस्थायें बिल्कुल भी शेष न रहीं। धर्म का जो रूप शेष बचा था वह भी कुरीतिग्रस्त और घोर आडम्बरपूर्ण था। भौतिक सुखों की आपा-धापी में लोग आत्मतत्व को बिल्कुल ही भूल बैठे थे। भोग और केवल भोग ही लोगों का लक्ष्य बन गया था। हिंसा, साम्प्रदायिकता और जाति कुल आदि का अभिमान मनुष्य में इतना अधिक बढ़ गया था कि इनको लेकर बात-बात में पारस्परिक संघर्ष तथा कलह होते रहते थे, फलस्वरूप व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज तथा जातीय जीवन में अशान्ति का अन्धकार पूरी तरह से छा गया था।

अज्ञान, अत्याचार और अनाचार के इस युग में लोग तात्विक एवं आचरणीय मार्ग से विपरीत चलने लगे थे। साँसारिक सुख की तृप्ति के लिये अपने से हीन व मूक प्राणियों की हिंसा करते थे। लोगों की स्वेच्छाचारिता के परिणाम स्वरूप धार्मिक स्वरूप कुँठित हो चला था।

ऐसे समय में बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर में राजा सिद्धार्थ के घर वर्द्धमान महावीर का जन्म हुआ। जैसे-जैसे उनका ज्ञान और साँसारिक परिस्थितियों का अनुभव बढ़ा, उन्होंने जीवों के कल्याण, सुख व शान्ति के लिये उपाय करने का निश्चय किया।

इस निश्चय से ही वह तीर्थंकर बन सके। तीर्थ का अर्थ है दुःखों से उद्धार पाने का यथार्थ मार्ग। उस मार्ग का जो नेतृत्व करते हैं उन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। यह पद उन्हें 12 वर्ष की घोर तपस्या, आत्म-साधना के बाद प्राप्त हुआ था। जब तक कोई अपने आपको शक्ति सम्पन्न न बना ले, अभ्यन्तर शत्रु-राग, द्वेष मोह और इन्द्रियों पर विजय न पा ले तब तक वह विश्व-कल्याण के लिये कुछ ठोस निर्देशन कर भी नहीं सकता। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत साधना के द्वारा इस सत्य को सिद्ध किया और लोक शिक्षण के मार्ग पर तभी प्रवृत्त हुये जब उन्हें जितेन्द्रिय होने का अधिकार मिला। आत्म-साधना द्वारा ज्ञान और अनुभव में परिपक्व हुये ‘वर्द्धमान’ ने देखा चारों ओर किस कदर हाहाकार उठा हुआ है। लोग अज्ञानान्धकार में इधर-उधर भटक रहे हैं। उनको एक आन्तरिक प्रेरणा हुई कि वे विश्व के अज्ञानी प्राणियों के कल्याण के लिये कोई युग के अनुरूप मार्ग खोज निकालें।

बहुत दिन तक चिन्तन करने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि सर्व-साधारण तक आत्म-ज्ञान का लाभ पहुँचाने के लिये भ्रमण करना चाहिये। इस निश्चय के साथ ही उन्होंने परिव्राजन प्रारम्भ किया और घूम-घूम कर लोगों को उपदेश देने लगे। उनके उपदेशों को सुनकर लोग बहुत प्रभावित होने लगे और यह अनुभव करने लगे कि भोग ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं है। मनुष्य जिन परिस्थितियों को लेकर जन्मा है वे सब आत्म-कल्याण के लिये हैं और उनका उपयोग भी अवश्य होना चाहिये।

मनुष्य के सुख और भलाई के नियम शाश्वत और अपरिवर्तनशील हैं। सत्य की महत्ता प्रत्येक काल में एक जैसी ही होती है। अहिंसा, दया, क्षमा, समता, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों की आवश्यकता किसी भी युग में एक जैसी ही होती है। महापुरुष युग की आवश्यकता के अनुरूप इनमें कुछ अंशों को अधिक महत्व दे देते हैं कुछ को कम, पर इससे दूसरे गुणों का महत्व कम नहीं हो जाता। वे तो अपने स्थान पर ही स्थिर रहते हैं। जब देश में हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती हैं तब अहिंसा का महत्व बढ़ जाता है पर इससे दया, क्षमा आदि का महत्व घट नहीं जाता। इसी प्रकार भ्रष्टाचार के युग में ईमानदारी और सच्चाई प्रमुख हो जाते हैं और अन्य गौण। किसी विशेष सिद्धान्त की सर्वोपरिता महापुरुषों की नहीं युग की देन हुआ करती है।

जाति, कुल के हिसाब से अपने को बड़ा मानने और दूसरों के साथ घृणा करने को वे अमानवीय कृत्य मानते थे। उनका कहना था कि घृणित वह नहीं जिससे घृणा की जाती है परन्तु घृणित वह है जो घृणा करता है और समाज में घृणा के बीज बोता है।

महावीर मनुष्यता को धर्म और जातीय मान्यताओं से ऊँचा मानते थे। दूसरों की भलाई करने, पीड़ितों की रक्षा करने, सहायता करने और पददलितों को सन्मार्ग की राह दिखाने को ही वे धर्म की आन्तरिक क्रियायें मानते थे।

महावीर की दृष्टि और विचार में सब लोग समान कहे गये हैं। हमेशा कोई पतित नहीं होता। कारण या परिस्थिति वश कदाचित कोई व्यक्ति धर्मच्युत हो गया है तो उसे शुद्ध कर लेना अनुचित नहीं। ऊँच-नीच, काले-गोरे, अमीर-गरीब का भेद भाव नहीं किया जाना चाहिये। अहिंसा पालन के लिए भी समान व्यवहार की आवश्यकता प्रतिपादित की है। अपने जीवन कार्य से भी उन्होंने इस बात को सिद्ध कर दिखाया है। उनके शिष्य किसी एक ही वर्ग के न थे वरन् उनमें कुम्हार, जुलाहे, लुहार, माली, चोर, डाकू तथा वेश्यायें भी सम्मिलित थीं और वे सब को समान रूप से धर्म आचरण की शिक्षा दिया करते थे।

“स्याद्वाद” महावीर का एक प्रमुख उपदेश था। इसे वे कथानक के रूप में प्रस्तुत करते थे। इस कहानी में आपने बताया कि संसार के सभी धर्म समान हैं। कोई एक दूसरे से बड़ा या छोटा नहीं है इसलिए विभिन्न धर्मावलम्बियों को एक दूसरे के धर्म से घृणा न करके धर्मों का आदर करना चाहिये। धर्म का उद्देश्य मनुष्य को ऊँचे उठाना है, इस रूप में दुनिया के किसी भी कोने का धर्म त्याज्य नहीं, उन सबका अपना महत्व है। इस महत्व को कभी भी घृणा या अनादर की दृष्टि से न देखना चाहिए।

उनके जीवन की कुछ विशेषतायें उन्हें अन्य महापुरुषों से भी अधिक सम्मानास्पद घोषित करती है। धार्मिक सन्तों में थोड़े ऐसे हुये हैं जिन्होंने स्त्रियों को भी आत्म-कल्याण के लिये समान अधिकार दिये हों। स्त्री सदैव से ही अपवित्र और उपेक्षित समझी गई है भले ही लोग इसकी वास्तविकता न समझ पायें हों। भगवान महावीर ने इस तर्क का जोरदार खंडन किया। वे कहते थे कि स्त्रियों को भी पुरुषों की भाँति व्रत धारण करने का सुअवसर मिलना चाहिए पुरुष और स्त्री आत्मा की दृष्टि से एक समान हैं और दोनों का आत्म-कल्याण के लिए समान अधिकार है।

महावीर ने अहिंसा को बड़े व्यापक अर्थ में लिया है। प्राणियों का वध करना ही उनकी दृष्टि में हिंसा नहीं वरन् जिन कारणों से दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचती हो, कष्ट और दुख पहुँचता हो वह सब हिंसा है और ऐसा कोई कर्म न करना जिससे किसी को शारीरिक या मानसिक आघात पहुँचता हो अहिंसा के अंतर्गत आता है।

भगवान महावीर आदर्श पुरुष थे। उन्होंने मानवता को एक नई दिशा दी है। उनके बताये हुये अहिंसा, तप, सत्य आदि मार्गों पर चलकर विश्व में शान्ति हो सकती है। उनके उपदेशों का अनुसरण करके कोई भी मनुष्य अपना तथा औरों का कल्याण कर सकता है।

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