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Magazine - Year 1965 - Version 2

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धर्मोपदेशक बन कर जन जागरण कीजिये।

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जनमानस में से अनीति, अश्रद्धा, एवं अविवेक का उन्मूलन करने के लिए जिस विचार क्रान्ति का आयोजन युग निर्माण योजना के अंतर्गत किया गया है उसका विस्तार धार्मिकता के आधार पर ही होगा। भारतीय जनता में धार्मिकता के प्रति परम्परागत श्रद्धा है। आज भले ही उसका दुरुपयोग हो रहा है पर जब कभी भी भारत की आत्म जगेगी उसका माध्यम धर्म ही होगा। राजनैतिक स्वाधीनता की लड़ाई हमने महात्मा गाँधी की प्रेरणा से राम राज्य आने की आशा में लड़ी थी। सत्य अहिंसा हमारे सम्बल थे। परिणाम उसके चाहे राजनैतिक ही हुए हों पर वह वस्तुतः धर्म युद्ध था। गाँधी जी ने अपने आन्दोलन को ऐसा ही रूप दिया था, अतएव वह सफल भी हुआ। यदि बैरिस्टर गान्धी ने अंग्रेजों के उखाड़ने के लिए पश्चिमी ढंग की राजनैतिक लड़ाई लड़ी होती तो स्वाधीनता इतनी जल्दी और इतनी सरलता से कदापि न मिली होती।

राजनैतिक क्रान्ति सम्पन्न होने के बाद अभी हमें मानसिक, सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक, आर्थिक क्रान्ति और भी करनी शेष है और इसके लिए सबसे पहले विचार क्रान्ति द्वारा जनता की मनोभूमि को ऐसा उर्वर बनाना है जिसमें प्रगति एवं विवेक के बीज बोये एवं लगाये जा सकें। यह प्रथम चरण सम्पन्न होने पर आगे की मंजिल बिल्कुल आसान हो जायगी।

80 प्रतिशत भारतीय जनता देहात में रहती है। अशिक्षितों की संख्या भी देश में लगभग 80 प्रतिशत ही है। शहरों और पढ़े लिखे लोगों में काम करने के लिए अनेकों वैयक्तिक एवं सामूहिक प्रयत्न चल रहे हैं। नेताओं और संस्थाओं की घुड़दौड़ भी उसी क्षेत्र में है। किन्तु साधनहीन देहात सूने पड़े हैं। वास्तविक भारत वहीं रहता है। जागरण उसी का किया जाना है। विचार-क्रान्ति का उपयुक्त क्षेत्र वही है क्योंकि नेताशाही अभी वहाँ बुद्धि भ्रम फैलाने में बहुत अधिक समर्थ नहीं हुई है। इस क्षेत्र में यदि विचारों का कुछ विस्तार किया जाना है तो उसका आधार धर्म ही होगा। भारत की अशिक्षित एवं अल्पशिक्षित ग्रामीण जनता धर्मवाद के अतिरिक्त और किसी बाद को समझती भी तो नहीं।

जन मानस को उत्कृष्ट एवं परिष्कृत बनाने के लिए सुलझे हुए विचारों के धर्मोपदेशकों की अत्यधिक आवश्यकता है। भावी जननेतृत्व उन्हीं के हाथ में जाने वाला है। इसलिए ऐसे साहसी, प्रतिभाशाली, कर्मठ एवं श्रद्धावानों को इस उत्तरदायित्व को अपने कन्धों पर उठाने के लिए आगे आना चाहिये और धर्म-मंच द्वारा लोक शिक्षण की कार्य पद्धति का प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य करने के लिए जुट जाना चाहिए।

पिछले अंकों में धर्मोपदेशक शिक्षण क्रम गायत्री तपोभूमि में आरम्भ होने की विज्ञप्ति की गई है। यह पाठ्यक्रम हर दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है। आर्थिक दृष्टि से उसमें किसी भी प्रतिभाशाली व्यक्ति के स्वावलम्बी होने की पूरी-पूरी गुँजाइश है। अब तक के पंडित पुरोहित जिन्हें मन्त्र पढ़ने और पूजन कराने के अतिरिक्त, उन कर्म काण्डों का महत्व रहस्य और संदेश समझाना जरा भी नहीं आता, अपनी गुजर सामान्य लोगों की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह कर रहे हैं। फिर क्रमबद्ध रूप से शिक्षा पाये हुए व्यक्ति के सामने आर्थिक कठिनाई क्यों आवेगी? वे भली प्रकार अपने परिवार का निर्वाह इन्हीं कार्यक्रमों से कर लेंगे।

लोक सम्मान, जन नेतृत्व, धर्म सेवा आदि लाभ भी इस कार्यक्रम में ऐसे जुटे हुए हैं जो व्यक्तित्व को निखारते हैं और आत्म सन्तोष प्रदान करते हैं। औसत भारतीय जब किसी प्रकार पेट ही पाल पाता है तो जिस कार्य में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही सिद्ध होते हैं उसे क्यों नहीं अपनाना चाहिये?

शिक्षण क्रम का पाठ्य क्रम साढ़े चार महीनों का रखा गया है। इस अवधि में भजनोपदेश कर सकने, योग्य संगीत शिक्षा, भाषण देने का व्यवहारिक अभ्यास, षोडश संस्कार कराना, दसों पर्व मनाना, सत्य नारायण कथा, गीता सप्ताह कथा, छोटे बड़े गायत्री यज्ञ कराना, लाठी चलाना, आसन, प्राणायाम जैसे स्वास्थ्यवर्धक प्रयोगों की जानकारी तथा कितने ही उपयोगी विषय सिखाये जाने हैं। जो यह शिक्षण प्राप्त करेंगे, अपने जीवन में एक नई विशेषता उपलब्ध हुई अनुभव करेगा।

प्रस्तुत प्रशिक्षण 26 सितम्बर (आश्विन शुक्ल 1) से आरम्भ होकर 5 फरवरी (माघ सुदी 15) तक साढ़े चार महीने चलेगा। इतना अधिक कर्मकाण्ड, उसका व्यवहारिक अभ्यास, संगीत, भाषण आदि कार्य सीखने में काफी समय लगना चाहिए, पर प्रयत्नपूर्वक सिखाने और श्रमपूर्वक सीखने से यह साढ़े चार महीनों में भी पूरा हो सकता है। आज की व्यस्त परिस्थितियों में अधिक दिन बाहर रह सकना हर किसी के लिए संभव न हो सकेगा इसलिए इतनी कम अवधि का पाठ्यक्रम एक आश्चर्य जैसा ही है, पर हमारा विश्वास है कि उत्साहपूर्वक यह सब किया गया तो इतने दिनों में भी आशातीत सफलता प्राप्त कर ली जायगी।

हर क्षेत्र में हर शाखा में ऐसे प्रशिक्षित कार्यकर्ता होने चाहिये। यह आवश्यक नहीं कि पूरा समय इन्हीं कार्यों के लिए दिया जाय, या इन्हें आजीविका का माध्यम ही बनाया जाय। यह भी हो सकता है कि अवकाश का समय इस साँस्कृतिक सेवा के लिए लगाया जाता रहे और अपने क्षेत्र में धार्मिक भावनाओं का संचार किया जा सके। साढ़े चार महीने का समय यों कार्यव्यस्त लोग भी निकाल सकते हैं। हारी, बीमारी, मकान बनाने या दूसरे जरूरी कामों के लिए सरकारी नौकर भी छुट्टी ले लेते हैं। इस कार्य को जो आवश्यक समझें उन्हें किसी न किसी प्रकार इस प्रशिक्षण के लिये अवकाश निकाल लेना चाहिए।

जिनको आर्थिक कठिनाई है वे 15 रुपये मासिक छात्र-वृत्ति भी प्राप्त कर सकेंगे। इसमें बिना घी की रोटी दाल का खर्च चल सकता है।

हमें प्रयत्न यह करना चाहिये कि इस प्रकार के शिक्षार्थी अपने क्षेत्र में तैयार करें, उत्साह भरें, प्रेरणा दें और उन्हें प्रशिक्षण के लिए मथुरा भिजवावें। जिनमें इस प्रकार की रुचि एवं योग्यता देखें उन्हें विशेष रूप से प्रोत्साहित करना चाहिये। वृक्ष लगाना, कुआँ, धर्मशाला बनवाना आदि जिस तरह पुण्य कार्य हैं, उसी तरह धर्म एवं संस्कृति की सेवा कर सकने की क्षमता में सम्पन्न धर्मोपदेशक उत्पन्न करना भी एक पुण्य कार्य है। यदि यह कार्य अपनी ढूँढ़, खोज, कहने, सुनने, समझाने-बुझाने, प्रेरणा, प्रोत्साहन देने से बनता है तो समझना चाहिये कि एक धर्मोपदेशक उपजाने का पुण्य अपने को भी मिल गया। जो आर्थिक स्थिति की कठिनाई के कारण शिक्षण में न आ सकते हों उनके लिए वैसा प्रबन्ध भी स्थानीय लोगों को मिल जुलकर कर देना चाहिये। इस तरह का दान सार्थक दान ही माना जायगा।

अश्विन का शिविर 26 सितम्बर से 10 अक्टूबर तक का है। इसमें आने वाले, अपनी गायत्री तपश्चर्या के साथ-साथ संक्षेप में धर्मोपदेशक पाठ्य क्रम की मोटी रूप रेखा भी इतनी समझ-सीख सकेंगे कि यदि बताये हुए आधार पर घर रहकर अभ्यास करते रहा जाय तो भी किसी हद तक धर्मोपदेशक का कार्य किया जा सकें।

आश्विन के शिविर में तथा साढ़े चार महीने के शिविर में आने के लिए जिन्हें सुविधा हो उन्हें अवश्य प्रयत्न करना चाहिये।

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