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Magazine - Year 1965 - Version 2

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पुरुषार्थ धर्म है,-कामनायें बन्धन

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पूर्व जन्मों के प्रारब्धवश इस जीवन में जो काम, संयोग और परिस्थितियाँ मनुष्य को उपलब्ध हों, उनमें संतोष रखते हुये आगे की उन्नति के लिये उद्योग करना धर्म है। शरीर जिस साधना में तत्पर हो उसी को पूरा करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। अपनी परिस्थितियों से बहुत अधिक की कामना करना ही मनुष्य की दुःखद स्थिति का कारण है। अनियन्त्रित मनोरथ का त्याग करना ही अपने पूर्व-प्रारब्ध के लिये संतोष करने का अच्छा उपाय है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि आगे के लिये अधिक सुँदर परिस्थितियाँ प्राप्त करने की चेष्टा न करे। श्रेय की इच्छा करने वाले मनुष्य को न तो निष्क्रिय रहना चाहिये और न ही विविध कामनायें करनी चाहिये।

सेना में सिपाही की योग्यता के अनुसार कमाण्डर उसे कोई एक काम सौंप देता है। योग्यता बढ़ा लेने पर कमाण्डर क्रमशः उसे उच्च पद देता चला जाता है किंतु सिपाही की स्थिति में रहते हुये सेनानायक के पद की आकाँक्षा करने से न तो वह सिपाही के कर्त्तव्यों का भली-भाँति पालन कर सकेगा और न ही सेनानायक का पद ही मिल सकेगा। इससे दुःख तो मिलेगा ही दुष्परिणाम भी उपस्थित हो सकते हैं।

एक ही परिस्थिति में यदि दत्तचित्त से लगे रहें तो उसमें भी आशाजनक परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। कभी इधर, कभी उधर की दौड़ भाग करना मनुष्य की अस्थिरता का चिह्न है। जो तरह-तरह की कामनायें मन में करते रहते हैं उन्हें ही यह परेशानी भुगतनी पड़ती है। अधिक से अधिक धन, अधिक सुख सुविधाओं की लिप्सा ही मनुष्य को कमजोर और दुःखी बनाती है क्योंकि यदि उन्नति की उचित योग्यता, शक्ति और परिस्थितियाँ न हुई तो आकाँक्षाओं की कभी पूर्ति नहीं हो सकेगी और उससे दुःखी अधीर चिन्तित और निराश ही बने रहेंगे।

दूसरों को अधिक सुखी और सम्पन्न देखकर ईर्ष्या करना और परमात्मा को दोषी ठहराना, मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है। ऐसा वह इसलिए करता है कि उसे केवल अपने अधिकार प्रिय हैं। पूर्व जीवन में उसने क्या किया है इस की भी तो कुछ संगत होनी चाहिए। किसी को कम किसी को अधिक देने का अन्याय भला परमात्मा क्यों करेगा? मनुष्य अपने ही कर्मों का लाभ या घाटा उठाता है। एक रुपया देकर किसी को भला पाँच रुपए की कीमत की भी कोई वस्तु मिली है? योग्यता से अधिक दे देने की भूल भला परमात्मा क्यों करेगा? ऐसा यदि हो तो उसे लोग अन्यायी ही तो कहेंगे। यही क्या कुछ कम उपकार है जो उसने आपको मनुष्य जीवन जैसा अलभ्य अवसर प्रदान किया है। आप चाहें तो अपने जीवन का मूल्य बढ़ा सकते हैं और कर्त्तव्य पालन तथा अन्य सद्गुणों द्वारा आगे के लिए शुभ परिस्थितियाँ, अच्छे परिणाम और मंगल संयोग प्राप्त कर सकते हैं।

काम बदलने की चिन्ता आप मत कीजिए। यह एक प्रकार की ‘कर्म-हिंसा’ है। इसी में पुरुषार्थ करते रहिये। भली परिस्थितियों के संयोग ईश्वरीय प्रेरणा से स्वतः प्राप्त हो जाते हैं उसके लिये कोई जोड़-तोड़ नहीं करनी पड़ती। आप क्रियाशील रहिये, उद्योग करते जाइये, उन्नति के अवसर आपके जीवन में जरूर आयेंगे। पर कदाचित आपके प्रारब्ध कुछ इस तरह के नहीं हैं कि आप अधिक उन्नति कर सकें तो खीझ और उत्तेजना से प्राप्त परिस्थिति का संतोष भी आपको नहीं मिल सकेगा। इसीलिये फल-प्राप्ति की कामना को गीताकार ने दोष बताया है और मनुष्य को निरन्तर कर्म करने की प्रेरणा दी है।

जागृत मनुष्य कभी क्रिया हीन नहीं रहेगा। प्राप्त परिस्थितियों में जो लोग प्रसन्नतापूर्वक लगे रहते हैं जीवन का सुख उन्हीं को मिलता है। सुख किसी वस्तु या परिस्थिति विशेष में नहीं है। वह एक मानसिक भाव है जो प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहने से मिल जाता है। छोटी-छोटी बातों में दुःखी रहने का तात्पर्य यह है कि आप परमात्मा के विधान की अवहेलना करना चाहते हैं। यों न सोचिये वरन् अपने से दयनीय स्थिति के व्यक्तियों से अपनी तुलना कीजिए और पूर्ण प्रसन्न रहने का प्रयत्न कीजिए। पुरुषार्थ करने की आप में शक्ति होगी तो अच्छे परिणाम भी मिल जायेंगे पर परिणाम की ओर अपना ध्यान बनाए रखकर प्राप्त आनन्द को क्यों छोड़ते हैं? जागृत पुरुष इसीलिए प्रत्येक परिस्थिति में सुख का अनुभव करते हैं और तप, त्याग, परोपकार द्वारा अपनी भावनाओं को उत्कृष्ट बनाकर आगे के लिए शुभ-फल संचय कर लेते हैं। इस जीवन की बढ़ी हुई योग्यता ही तो अन्य जन्मों के संस्कार रूप में दिखाई देती है।

दूसरी अवस्था में मनुष्य की कर्म-भावना का विश्लेषण आता है। पुरुषार्थ अपनी शारीरिक या पारिवारिक आवश्यकतायें पूर्ण कर लेने को ही नहीं कहते। मनुष्य इस संसार में रहकर यहाँ के हवा, पानी, धरती, प्रकाश आदि का स्वच्छन्द उपभोग करता है, इस तरह वह धरती माता का भी ऋणी है। जो उपकार प्रकृति और परमात्मा ने उस पर किये हैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का सही तरीका यह है कि मनुष्य भी प्राणिमात्र की सेवा और उपकार भावना से काम करे। स्वार्थों तक ही सीमित रहने से पशु और मनुष्य में भेद भी कुछ नहीं रह जाता । परमात्मा का श्रेष्ठ पुत्र कहलाने का सौभाग्य तो तब मिलता है जब निष्काम भावना से सृष्टि के अन्य प्राणियों के साथ समता, न्याय और कर्त्तव्य पालन की उदारता बनी रहे।

बच्चों का पालन-पोषण, व्यापार, देश-रक्षा, मेहनत-मजदूरी, ज्ञान-सम्पादन और जन-मार्गदर्शन, इन कर्मों में से ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, कम महत्वपूर्ण या अधिक महत्वपूर्ण होने की एक ही कसौटी है और वह है मनुष्य की भावना। स्वार्थ सम्मुख रखकर परोपकार दिखाई देने वाले कर्म भी फलदायक नहीं होते। निष्काम भाव से की हुई बच्चों की सेवा और प्राणिमात्र के हित के लिये किया गया उपदेश दोनों का ही फल समान है क्योंकि उनकी भावना एक ही है। कर्म की विविधता में उसका मूल्य भावना स्तर पर आँका जाता है। किसी व्यक्ति की आप चोरों से रक्षा करें और बदले में आधा धन माँगने लगें तो आपकी यह सेवा प्रभावशील न रहेगी। कर्म का महत्व फल त्याग से है। सच्चा सुख, संतोष तो तब मिलता है जब मनुष्य अपने आप को परमात्मा का एक उपकरण मान कर विशुद्ध त्याग-भावना से परोपकार करता है। जीवन-मुक्त का लक्षण फल-प्राप्ति की कामना का परित्याग ही बताया गया है।

मुक्ति के लिये मनुष्य को तरह-तरह के साधन ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं है। भेष बदलना या काम छोड़ देना भी बुद्धि संगत नहीं है। ऐसा करके भी मनुष्य निष्क्रिय हो नहीं सकता। खाने-पीने, उठने-बैठने के सामान्य कर्म तो मनुष्य को प्रत्येक अवस्था में करने ही पड़ते हैं। कर्म करते हुये फल प्राप्ति की वासना अथवा मनोरथ का परित्याग होना चाहिये। क्योंकि आकाँक्षायें स्वार्थपरता की जननी है। इस तरह से लोकोपकारी कर्त्तव्य कर्मों का सम्पादन नहीं हो सकता।

प्रकृति हमें नित्य, निरन्तर निष्काम कर्म करने की शिक्षा देती रहती है। सूर्य चन्द्रमा प्रकाश देते हैं। बदले में कुछ प्राप्त करने की उनकी कोई भावना नहीं होती। वृक्ष अपने फलों का उपभोग अपने लिये नहीं करते। पहाड़ लोगों को असीम खनिज देते है, नदियाँ शीतल जल से लोगों को तृप्त करती रहती हैं। इन्हें कभी किसी तरह की कोई भी कामना नहीं होती। लोक-कल्याण के लिये निरन्तर एक सी-स्थिति में चलते रहना ही उनका धर्म है। मनुष्य की दशा भी इसी तरह की होनी चाहिये। सुख कर्म में है फल तो उसके विनाश का प्रारम्भ मात्र है।

मुक्ति-एक लक्ष्य है जो निरन्तर चलते रहने से प्राप्त होता है। उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिये मनुष्य छलाँग से काम नहीं ले सकता। बीच की साधनावस्था से होकर आगे बढ़ना ही स्वाभाविक नियम है। अकुलाहट, तीव्रता या चित्त में विकार आना मनोरथ पूरा न होने का लक्षण है।

आत्म-कल्याण के विविध साधनों में प्रत्येक स्थिति में हर मनुष्य के लिये सरल और सुलभ साधना-निष्काम कर्म की भावना ही है। कठोर साधनों की अपेक्षा यह मार्ग अधिक सरल है जिसे गीता में “निष्काम कर्म योग” के नाम से प्रतिपादित किया गया है। कर्तव्य भावना का ज्ञान और मनोरथ के परित्याग से परमात्मा की स्थिति का बोध हो जाता है और मनुष्य जन्म मरण के भव बन्धन से मुक्ति पा लेता है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसके लिये निष्काम-कर्म से बढ़कर और कोई दूसरा उपाय श्रेष्ठ नहीं है।

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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
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