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Magazine - Year 1965 - Version 2

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दुर्गुणों को त्यागिये, सद्गुणी बनिये।

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संसार में कोई किसी को उतना परेशान नहीं करता जितना कि मनुष्य के अपने दुर्गुण और दुर्भावनायें। एक तो दुर्गुण रूपी शत्रु हर समय मनुष्य के पीछे लगे रहते हैं, वे किसी समय उसे चैन नहीं लेने देते।

सबसे दुर्गुणी व्यक्ति दुर्व्यसनी होता है। दुर्व्यसन मनुष्य के शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्यों के शत्रु होते हैं। शराब, जुआ, व्यभिचार ही नहीं बल्कि, आलस्य, प्रमाद, पिशुनता आदि भी भयानक दुर्व्यसन ही हैं।

यदि मनुष्य शराब पीता है या अन्य किसी प्रकार का नशा करता है, जुआ खेलता है अथवा व्यभिचार में प्रवृत्त है तो वह न केवल धन का क्षय करता है अपितु अनेक प्रकार की शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक व्याधियों को भी आमंत्रित करता है।

मद्यप कितना ही स्वस्थ एवं सम्पन्न क्यों न हो, उसकी लत उसे निर्बल तथा निर्धन बनाकर ही छोड़ेगी। जब तक शरीर में शक्ति रहती है, धन की गर्मी रहती है, मद्य का विषैला प्रभाव अनुभव नहीं होता। पर ज्यों ही इनकी कमी होने लगती है शराब का जहरवाद फैलना शुरू हो जाता है। धन की कमी हो जाने से उसकी मद्य का स्तर गिरने के साथ ही स्वास्थ्य का पतन उत्तरोत्तर तीव्र होता जाता है, शीघ्र ही एक दिन ऐसा आता है कि जीवन की कृत्रिम आवश्यकता बनी शराब का न मिलना उसके लिये मौत की पीड़ा बन जाती है। शराब के अभाव में वह तड़पता, घर की चीजें बेचता, दूसरों के आगे हाथ फैलाता और अपनी मान प्रतिष्ठा को भी बलिदान कर देने के लिये तैयार हो जाता है। शरीर उसका रोगी और जीवन एक भार बन जाता है।

मद्यप आंखें रहते हुये भी अंधा और बुद्धि होते हुये भी मूर्ख होता है। उसे भूत भविष्यत् वर्तमान कुछ भी दिखलाई नहीं देता। यदि भूतकाल को वह देख सके तो बीते हुये शराबियों की दशा, अपनी सम्पन्नता के ह्रास और तुलनात्मक दृष्टि से अपने गिरते हुये स्वास्थ्य से शिक्षा ले सकता है। यदि वर्तमान उसे दिखाई दे सके तो समाज में अपनी प्रतिष्ठा, परिवार की दुर्दशा और चारों ओर अभाव का कारागृह देख कर सुधर सकता है। यदि भविष्य उसको दिखाई दे सके तो बच्चों की अशिक्षा, बेटियों के विवाह, बुढ़ापे की तैयारी आदि की चिंता से सावधान हो सकता है। किंतु मद्यप तो त्रयकालिक अंध होता है। उसे यदि कुछ दीखता है तो बोतल और उसकी मादकता के विष से अपनी मूर्छावस्था का काल्पनिक सुख।

शराबी की चिन्ताओं का कोई ओर-छोर नहीं रहता। जब वह अपने होश में होता है तो एक भले आदमी की तरह कल्याणकर चिन्ता के बीच से गुजरता है। किन्तु वह किसी चिन्ता को दूर करने की स्थिति में तो रहता नहीं, अतएव ये सारी चिन्तायें उसे नई-नई नागिनों की तरह ही डंसती रहती हैं। चिन्ताओं से परेशान होकर मद्यप पुनः शराब की ओर दौड़ता न मिलने पर तड़पता और मिल जाने पर उसे पीता और जीवन शून्य होकर पड़ा रहता है। आवश्यक चिन्ताओं से छूटने के लिए वह शराब की चिन्ता करता और शराब की चिन्ता पूरी होने पर आवश्यक चिन्ता में लग जाता है। चिन्ता और केवल चिन्ता करना उसका जीवन क्रम बन जाता है। निवारण की शक्ति तो उसमें रहती ही नहीं, अतएव एक मात्र चिन्ताओं की चक्की में पिस-पिस कर मरना ही उसका भाग्य बन जाता है। कितना घोर, कितना कष्टकर और कितना भयानक जीवन होता है एक मद्यप का। वह वास्तव में जिन्दगी जीता नहीं, मरता है।

जुआ संसार के सारे व्यसनों का राजा है। जुआरी प्रतिक्षण जीता और मरता रहता है। क्षण-क्षण पर एक नया आघात सहता हुआ भयानक जीवन बिताता है। कानून से त्रस्त समाज से भयभीत और परिवार से डरा हुआ वह किसी गुप्त स्थान पर नोटों के रूप में अपनी और अपने परिवार की जिन्दगी में आग लगाया करता है। दाँव पर बैठे हुये उसके हृदय की धक्-धक् में जीवन मृत्यु का स्पन्दन रहता है। दाँव हारने की सम्भावना उसका रक्त सुखाती और जीतने की खुशी उसे कुचल कर रख देती है।

जुए की जीत हार से भी बुरी होती है। हारने पर वह हताश हो सकता है, निराश होकर कुछ देर के लिये उससे जुआ छूट सकता है। किन्तु जीतने पर होश ठिकाने नहीं रहते। वह विक्षिप्त की तरह दाँव लगाता अहंकारपूर्ण बात करता और पागलों की तरह चाल चलता है। यदि जीत का उन्माद हार के तमाचे से विचलित हो जाता है तब तो वह पागल कुत्ते की तरह भयानक हो उठता है। अपना सर्वस्व दाँव पर रख कर भी वह एक बार जीतना चाहता है और इसी क्रम में भिखारी बन जाता, समाज की दृष्टि में गिरता और कानून के पंजे में फँसता है। परिवार बिलखता, पत्नी रोती और बच्चे भूखों मरते हैं। द्यूत व्यसनी की यह दशा अपवाद नहीं, हर जुआरी की परिसीमा इसी दुर्दशा में है।

जुआरी की एक मात्र चिन्ता दाँव के लिए धन जुटाने की रहती है। अन्य चिन्ताओं का हल वह अपने दाँव में ही देखता है। उसे हर दाँव पर जीतने की आशा रहती है। वह यही सोचा करता है कि अब की नहीं तो अबकी दाँव पर वह दोगुना, तीन-गुना और चार गुना वापस कर लेगा, और उसी धन से सारी समस्याओं का समाधान कर लेगा। उसे बच्चों की शिक्षा, शादी-ब्याह, रहने-सहने और खाने-पीने की सारी समस्याओं का हल एक मात्र अपने एक आगामी दाँव में ही दीखता है। यह आशा कितना बड़ा धोखा, कितनी गहरी विडम्बना और कितनी भयानक आत्म प्रवंचना है।

जहाँ हार जुआरी को भिखारी बना देती है वहाँ जीत उसे शराबी, व्यभिचारी, अहंकारी और अपराधी बना देती है। हार-जीत में एक सा ही भयंकर परिणाम देने वाले व्यसन जुए के जाल में फँसा हुआ व्यक्ति दीन-हीन ऋणी होकर तिल-तिल जलता और मरता रहता है। अभिशाप है एक जुआरी की जिन्दगी। जुआ जैसे व्यसन को दुर्भाग्य एवं दुर्दैव की फटकार समझकर उससे दूर रहने में ही कल्याण है।

व्यभिचार वृत्ति का व्यक्ति किस दुर्दशा को प्राप्त नहीं होता। व्यभिचारी की दृष्टि में पाप का निवास होता है। वह लम्पट एवं लोलुप होता है। व्यभिचारी को क्या अपनी और क्या पराई किसी की भी प्रतिष्ठा का विचार नहीं रहता। मर्यादा, नैतिकता, आदि पूजनीय शब्दों के प्रति उसका कोई सद्भाव नहीं होता।

व्यभिचारी जहाँ विविध व्याधियों का शिकार बनता है वहाँ समाज में घोर अप्रतिष्ठा का पात्र। निकट से निकट सम्बन्धी और घनिष्ठ से घनिष्ठ मित्र उसका विश्वास नहीं करते। व्यभिचारी व्यक्ति कितना ही पद और पदवी वाला क्यों न हो कोई भी उसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता। व्यभिचारी के आगमन पर हर्ष होने के बजाय लोगों को शंका एवं घृणा होती है।

व्यभिचारी अपने इस असम्मान को पूर्ण रूप से देखता अनुभव करता और पीड़ा पाता किन्तु अपनी दुवृत्ति के कारण मजबूरन सहन करता है। अश्लीलता, असभ्यता, आवारागर्दी उसके स्वभाव के अंग बन जाते हैं। लज्जा, शील, दया और शर्म नामक मानवीय गुण व्यभिचारी को छोड़कर चले जाते हैं और वह कुल कलंक समाज का शत्रु हजार बार अपमानित होने, दण्ड पाने और बहिष्कृत होने पर भी अपनी नीच हरकत नहीं छोड़ता है।

व्यभिचारी समाज को सब से अधिक हानि पहुँचाता है। अपनी विषैली वृत्तियों से समाज का वातावरण दूषित करता है। लोगों में दुर्गुण जगाता और अपने जैसे नर पिशाचों को लेकर न जाने किन-किन बुरी बातों को फैलाने का प्रयत्न करता है। दूसरों की इज्जत पर हाथ डालने का प्रयत्न करने वाले व्यभिचारी बदले में अपने कुल की प्रतिष्ठा खोकर अधिकतर आत्महत्या में ही उसका प्रायश्चित्त करते हैं।

सद्गुणी व्यक्ति को सारा समाज हाथों हाथ लिए रहता है, आदर सम्मान और प्रतिष्ठा उसके नाम लिख जाती है, सहयोग, सौहार्द एवं सहानुभूति उसकी अपनी सम्पत्ति बन जाती है। सद्गुणी न कभी निर्धन रहता है और न परेशान। वह सदैव स्वस्थ तथा सुखी रहा करता है।

सेवा मूर्ति -

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