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Magazine - Year 1965 - Version 2

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माँ कस्तूरबा गाँधी

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यह बात सही है कि पति के किसी प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने पर उसका आदर सम्मान पत्नी को स्वभावतः योंही मिल जाता है, और कुछ न होते हुए भी पति की पूजा प्रतिष्ठा एवं गौरव का उपभोग करती है। किंतु माता कस्तूरबा के सम्बन्ध में यह बात सब अंशों में लागू नहीं होती! माता कस्तूरबा को राष्ट्र माता का पद इसलिए ही नहीं मिल गया कि उनके पति महात्मा गाँधी राष्ट्र-पिता के महान पद पर प्रतिष्ठित थे। माता कस्तूरबा ने यह पदवी स्वयं अपने त्याग और ममतामयी सेवा भावना से प्राप्त की थी।

यों तो सभी नारियों में मातृत्व की भावना रहती है, किंतु राष्ट्र-माता कस्तूरबा में यह एक विशेष सीमा तक बढ़ी हुई थी! उनका हृदय आकाश की तरह विशाल, सागर की तरह उदार और गंगा की तरह पवित्र था। वे केवल हृदय से ही माता नहीं थी, बल्कि सम्पूर्ण आकार प्रकार से एक ममतामयी माता थी। सम्पूर्ण तन मन से मातृत्व की यह उपलब्धि माता कस्तूरबा के उस सात्विक जीवन की देन थी जिसका निर्माण उन्होंने होश सँभालते ही कर लिया था!

माता कस्तूरबा किसी निर्धन परिवार की पुत्री नहीं थी। उनका परिवार हर प्रकार से भरा पूरा था। किंतु कस्तूरबा ने कभी भी दिखाऊ तथा आलसी जीवन व्यतीत नहीं किया। वे अधिक सरल एवं सादा जीवन पसन्द करती थीं।

माता कस्तूरबा के कुमारी जीवन में कोई ऐसी विशेषता नहीं थी जिसका कि संस्मरण के रूपों में उल्लेख किया जा सके। यहाँ तक कि शिक्षा के क्षेत्र में भी वे कोई लम्बा डग न रख सकी थी। इसका प्रमुख कारण यह था कि उनका विवाह चौदह वर्ष की अवस्था में ही हो गया था।

साधारण स्त्रियों की तरह बा ने भी अनेक प्रकार के स्वप्न लेकर दाम्पत्य-जीवन में प्रवेश किया। पति का प्यार, विलासपूर्ण जीवन और अधिकारपूर्ण गृह-शासन की कामना बा में भी थी किंतु पति के घर पहुँचते ही कुछ समय बाद ही बा को अनुभव हो गया कि उनके पति श्री मोहनदास करमचन्द गाँधी कुछ भिन्न प्रकार के व्यक्ति हैं। उनके रंगीन स्वप्नों की पटरी उनके विचारों के साथ न बैठ सकेगी ! यह विषम परिस्थिति थी। एक ओर जीवन के रंगीन स्वप्न और दूसरी ओर पति का आदर्श!

माता कस्तूरबा ने इस मानसिक उथल-पुथल को बड़े धैर्य पूर्वक सँभाला! यह एक ऐसी परिस्थिति थी जिसमें यदि प्रत्यक्ष कलह न भी होती तब भी एक मानसिक वैषम्य तो उत्पन्न हो ही सकता था। और जहाँ पति-पत्नी के बीच मानसिक वैषम्य हो, वहाँ सुख शाँति की सम्भावना ही कहाँ रह सकती है।

बहुत कुछ पढ़ी लिखी न होने पर भी एक भारतीय नारी के नाते माता कस्तूरबा संस्कारवश ही इतना समझती थी कि पत्नी का सबसे प्रथम तथा प्रमुख कर्तव्य है सब प्रकार से पति के अनुकूल रहना! उन्होंने पत्नी जीवन के इस मूलाधार को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया और हर प्रकार से अपने पति महात्मा गाँधी से सानुकूलता स्थापित करने का व्रत ले लिया।

यह बात सही है कि संस्कार, स्वभाव तथा इच्छाओं के विरुद्ध किसी व्रत के पालन में कुछ असुविधा अथवा अरुचिता अवश्य होती है। किन्तु यही असुविधा सहन करना व्रत पालन का तप है जिसका पुण्यफल हर प्रकार से मंगलमय ही होता है। जीवन में साग्रह धारण किये हुए संकल्प जब सफलता पूर्वक व्यवहार हो जाते हैं तब मनुष्य की आत्मा में आनन्द के द्वार खुलने लगते हैं और उसका जीवन हर प्रकार से सफल एवं सार्थक बन जाता है।

विवाह के कुछ समय बाद ही बा को अपनी स्वाभाविक जीवन धारा को पति द्वारा अपनाए गये एक विशेष एवं विलक्षण प्रकार के जीवन ढाँचे में ढालना पड़ा! जब तक महात्मा गाँधी घर रहे तब तक तो वे एक साधारण शिक्षित व्यक्ति की तरह वैभवपूर्ण जीवन चलाते रहे जिसके अनुसार माता बा भी खूब शान-शौकत से रहती रही। किंतु अफ्रीका यात्रा के समय से उनका जीवन जो बदला तो दिन-दिन बदलता ही चला गया! इसका कारण था त्रस्त मानवता की वह करुण पुकार जो दक्षिणी अफ्रीका में महात्मा गाँधी के हृदय में उतर गयी थी। दक्षिणी अफ्रीका के भारतीयों के साथ गोरों का अमानवीय व्यवहार देख कर उन्हें जैसे याद आ गया कि वे साधारण साँसारिक जीवन में व्यर्थ उलझे हुये हैं उन्हें तो त्रस्त मानवता का उद्धार करने और उसकी सेवा करने के लिए ही भूमि पर भेजा गया है। बस फिर क्या था उन्होंने बैरिस्टरी का बाना उतारकर रख दिया और एक संत-सिपाही का बाना धारण कर लिया!

पत्नी धर्म के अनुसार माता कस्तूरबा को भी वैसा करना ही था और उन्होंने किया भी!! महात्मा गाँधी की भाँति उन्होंने भी भोग विलास एवं सुख सुविधा की सारी चीजें त्याग दीं। जीवन की आवश्यकताओं एवं आकाँक्षाओं को काट गिराया। सादे से सादे सीमित वस्त्र और लघु से लघु स्वल्पतम् भोजन उनके जीवन की आवश्यकता रह गई।

यद्यपि माता कस्तूरबा ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं थीं और न पति अथवा परिवार की ओर से उन्हें ऐसा करने का निर्देश था और न कोई ऐसा सामाजिक प्रतिबन्ध था कि जिससे ऐसा किये बिना उन्हें अपवाद अथवा लाँछना का लक्ष्य बनना पड़ता । किन्तु उन्होंने यह सारा त्याग अपनी स्वतन्त्र इच्छा से स्वीकार किया। उन्हें पति के साथ हर प्रकार से सानुकूलता स्थापित करने का अपना संकल्प याद था।

अब यदि एक क्षण के लिए बापू और बा के इस समान त्याग की तुलना करके देखा जाये तो बा का त्याग बापू की अपेक्षा अधिक महान एवं अहेतुक सिद्ध होगा! महात्मा गाँधी ने दक्षिणी अफ्रीका में मानवता की दुर्दशा देखी और उसकी पुकार सुनी, जिसने उनके हृदय को द्रवीभूत कर दिया। मानवता की पीड़ा से स्वयं पीड़ित होकर उन्होंने एक प्रकार से उसकी प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर जीवन की सारी सुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया।

ऐसा करने में उनकी पीड़ा को सान्त्वना मिली, उनकी आत्मा को शाँति मिली। वैसा करने में वे अपनी एक प्राकृतिक एवं प्रेरक जिज्ञासा के वशीभूत थे।

दक्षिणी अफ्रीका से लौटने पर तो महात्मा गाँधी का सम्पूर्ण जीवन ही त्याग, कर्तव्य तथा सेवा का एक जीता जागता इतिहास ही बन गया! बापू ने जन सेवा का जो पथ ग्रहण किया उसमें काँटे ही काँटे बिछे हुए थे। बा को उस पथ का अनुसरण करने के लिए कोई मजबूरी नहीं थी फिर भी उन्होंने उसका अनुसरण किया और किसी भी क्षेत्र में महात्मा गाँधी से पीछे नहीं रहीं। बा की इस त्याग तथा तपस्या के पीछे कोई लोकेषणा अथवा पूजा प्रतिष्ठा की प्यास नहीं थी। उनके सारे त्याग एवं तपस्या के पीछे उनका वही- ‘पति से अनुकूलता’ का एक व्रत काम करता था।

बा के सत्याग्रही स्वभाव के विषय में स्वयं बापू ने एक स्थान पर कहा है “मेरे न चाहने पर भी बा हठपूर्वक अपनी इच्छा से मुझ में समा गई है। मेरा यह आग्रह कभी नहीं रहा कि वे मेरे अनुरूप ही अपने जीवन को बना लें किन्तु यह सब उन्होंने महज अपनी इच्छा से कर लिया है!”

बा एक साधारण भारतीय नारी थी। उनमें कोई ऐसी असाधारण विशेषतायें नहीं थीं जिन्होंने उन्हें राष्ट्र की पूज्य माता की पदवी पर पहुँचा दिया हो। बा ने अपनी त्याग-तपस्या से यह सारे गुण अपने में उत्पन्न किए थे बापू के अनुरूप अपने को बनाने में बा ने जिन उपायों का सहारा लिया था उनमें आत्म-त्याग, पति निष्ठा और निष्काम सेवा भाव प्रमुख थे! बा ने जिस दिन से सानुकूलता का व्रत लिया उसी दिन से अपने सम्पूर्ण अस्तित्व एवं व्यक्तित्व को हठ पूर्वक बापू में विसर्जित कर दिया, जिससे न तो उनकी कोई अपनी आवश्यकता रह गई और न कामना। फलतः उन्हें कोई भी त्याग करते समय कोई विशेष कष्ट न होता था। निष्काम सेवा कार्य-क्रमों से माता कस्तूरबा के हृदय का विकास इस सीमा तक हो गया कि वे जन-जन के लिए माता थी और जन-जन उनके लिए पुत्र बन गया।

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Version 2
Type: TEXT
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